अगर आपने बीते एक साल के दौरान यूपीआइ (यूनीफाइड पेमेंट इंटरफेस) का इस्तेमाल किया है या मोबाइल वालेट से भुगतान किया है तो आप प्रसिद्ध जर्मन भौतिकीविद मैक्स प्लैंक को सही सिद्ध कर रहे हैं जो कहते थे कि विज्ञान और तकनीक से लोगों की सोच नहीं बदलती. बड़े परिवर्तन इसलिए होते हैं क्योंकि बदलावों का प्रतिरोध मर चुका होता है और नई पीढ़ी इन नए उपायों के अलावा और कुछ नहीं जानती.
भारतीय बैंकों के निजीकरण का तो पता नहीं लेकिन बैंकिंग बदल चुकी है. ओपन बैंकिंग या निओ बैंकिंग का आगाज हो चुका है. बात इतनी ही नहीं कि 2017 से 2021 बीच भारत में यूपीआइ के जरिए पेमेंट 388 फीसद सालाना की दर से बढ़ा है, या भारत में डिजिटल पेमेंट सालाना बीते एक दशक में 55 (संख्या) और 43 (विनिमय का मूल्य) फीसद की गति से बढ़े हैं बल्कि भारत की समग्र बैंकिंग ही पुराने कूल-किनारे तोड़ कर बहने को तैयार है.
तकनीकें अपने लिए माहौल खुद बना लेती हैं. जब बैंकों के बीच सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए 'सहमति’ (ओपन फाइनेंशियल डेटा नेटवर्क), कैशलेस भुगतानों के लिए यूपीआइ, आइएमपीएस, मोबाइल वालेट जैसी नए प्रयोग हो रहे थे या कि आधार के जरिए ऑनलाइन प्रमाणन की प्रणाली बनाई जा रही थी तब यह नहीं सोचा गया था कि यह भविष्य की बैंकिंग की बुनियाद होगी. बाजार जरूरतें बदलीं, ग्राहकों की विविध जरूरतों के लिए नए उत्पादों का अवसर बना तो नए उद्यमियों (स्टार्ट-अप) ने 'सहमति, यूपीआइ, ईआधार’ की मदर फिनटेक पर केंद्रित ओपन बैंकिंग का बिगुल बजा दिया.
बदलाव का नक्शा
कारोबारी रिश्तों के मामले में भारतीय बैंकिंग, बैंकों के झुंड से बाहर नहीं निकलने के हक में नहीं रही है लेकिन मामला कारोबार बढ़ाने का था तो उन्हें ऐप्लिकेशन परफॉर्मिंग इंटरफेस (एपीआइ) के बाजार में कूदना पड़ा. इसके जरिए बैंकिंग सेवाएं और ग्राहकों की सूचनाएं उन कंपनियों के लिए खुल गईं जिनके इतिहास में बैंकिंग का कोई तजुर्बा दर्ज नहीं है. यही फिनटेक है जिसके जरिए कोई कंपनी, बैंकों के समानांतर ही उनकी सेवाएं (जमा, लोन, कार्ड भुगतान आदि) ग्राहकों दे सकती है.
इस बदलाव ने भारतीय बैंकिंग को अचानक अमेरिका, यूरोप, जैसे आधुनिक बैंकिंग मुल्कों की पांत में खड़ा कर दिया. कोटक, आइसीआइसीआइ, एपडीएफसी और येस बैंक ने नए तकनीक प्लेटफॉर्म बनाकर फिनटेक कंपनियों को नए अवसर दिए. सनद रहे कि यूपीआइ में सरकारी बैंक आगे आए हैं लेकिन एपीआइ मे सरकारी बैंक पिछड़ गए हैं क्योंकि इसके लिए कोर बैंकिंग ढांचे में व्यापक और महंगे तकनीकी बदलावों की जरूरत है.
मंदी के बीच भारत में आई स्टार्ट-अप की नई खेप फिनटेक पर केंद्रित है. यह बाजार करीब 15,000 करोड़ रुपए का है. डिजिटल फिफ्थ की रिपोर्ट बताती है कि 2020-21 में 112 स्टार्ट-अप को करीब 1.4 अरब डॉलर का निवेश मिला. फिनटेक स्टार्ट-अप 2016 से अब तक 10 अरब डॉलर उठा चुके हैं. आठ कंपनियां यूनीकॉर्न (एक अरब डॉलर) बन चुकी हैं. बीते एक वित्त वर्ष में इस बाजार में करीब नौ बड़े अधिग्रहण हो चुके हैं. फ्लिपकार्ट वाले सचिन बंसल के नवी (वित्त वर्ष 2020 में 221 करोड़ का कारोबार) का डीएचएफएल जनरल इंश्योरेंस को लपक लेना खासा चर्चित रहा है.
दो दर्जन इंस्टा लोन और डिस्काउंट ब्रोकिंग स्टार्ट-अप आ चुके हैं. अब ऑनलाइन बीमा बेचने और उद्योग को कर्ज बांटने की बारी है.
बाजार बदला तो नियामक भी जागे. रिजर्व बैंक ने ई पेमेंट और डिजिटल सेवाओं के लिए बैंकों को नियम व नीति बनाने को कहा है. ई वालेट बैंक पर एनईएफटी/आरटीजीएस की इजाजत दे दी गई है. बीमा नियामक (इरडा) और रिजर्व बैंक, दोनों ही वीडियो आधारित केवाइसी की छूट देने लगे हैं. पब्लिक क्रेडिट रजिस्ट्री बनने वाली है जो कर्ज लेने वालों की पूरी सूचना एक जगह रखेगी.
खतरों भरा खालीपन
इस संभावनामय क्रांति के बीच एक खतरनाक खालीपन हमें डराता है. चाइनीज ऐप लोन घोटाले ने बताया है कि फिनटेक और ओपन बैंकिंग आने के बावजूद सूचनाओं की सुरक्षा (डेटा प्रोटेक्शन) को लेकर सरकार की नींद नहीं टूटी है. नया कानून अधर में है. डेटा इंपावरमेंट और प्रोटेक्शन आर्किटेक्चर (दीपा) पर नीति आयोग की सिफारिश मंत्रालयों के बीच अब भी भटक रही है.
तकनीकें सुविधा और सहजता लाती हैं, इसलिए वे बेहद खामोशी के साथ संस्कृतियां बदल देती हैं. या कि 2020 में भारत डिजिटल लेनदेन के मामले में दुनिया का सबसे बड़ा देश (25.5 अरब विनिमय) देश हो गया है. चीन भारत से पीछे है.
तकनीकें, जैविक विकास जैसी होती हैं, मनुष्य का वापस वानर बन जाना असंभव है. पुरानी बैंकिंग की वापसी भी अब नामुमकिन है लेकिन भारत के लोग इस क्रांति का लाभ लेने से पहले निजता और सूचनाएं गंवाकर लुट पिट न जाएं, इसके लिए राजनीति पर निर्णायक दबाव बनाना होगा. नहीं तो ओपन बैंकिंग हमारी वित्तीय निजता लूट में भी बदल सकती है.