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Wednesday, July 27, 2022

आह रुपया वाह रुपया

 

 रुपये की गिरावट को लेकर तैर रहे मीम्‍स और चुटकुलों पर जमकर ठहाके लगाइये.  आपका हक बनता है यह.. क्‍यों कि रुपये की  कीमत पर भारतीय राजनीति की प्रतिक्रियायें दरअसल   च‍िरंतन लॉफ्टर चैलेंज है. इस तरफ वालों के लिए रुपये की कमजोरी ही उसकी ताकत है और उस तरफ वालों के लिए कमजोर रुपया देश की साख का कचरा हो जाना है. कांग्रेस और भाजपा को अलग अलग भूमिकाओं को यह प्रहसन रचाते हुए बार बार देखा गया है  

अलबत्‍ता इस बार  मामला जरा ज्‍यादा ही  टेढ़ा हो गया है. डॉलर अब 80 रुपये के करीब है. इतना कभी नहीं टूटा. यानी एक बैरल तेल (115-120 डॉलर ) करीब 10000 रुपये का. या कि एक टन आयात‍ित कोयला करीब 30000 रुपये का. 

रुपये की ढलान पर खीझने और खीसें न‍िपोरने वाले दोनों को इस सवाल का जवाब चाहिए कि आख‍िर रुपया कितना और गिर सकता है? शायद वह यह भी जानना चाहेंगे कि क्‍या सरकार और रिजर्व बैंक रुपये की गिरावट रोक सकते हैं?

 

रुपया मजबूत या कमजोर 

रिजर्व बैंक के पैमानों पर रुपया अभी भी महंगा है यानी ओवरवैल्‍यूड है !!

स्‍टैंडर्ड चार्टर्ड बैंक का रुपी रियल इफेक्‍ट‍िव रेट इंडेक्‍स यानी रीर जून के दूसरे सप्‍ताह में 123.4 पर था एक साल पहले यह  117 अंक पर था. इस इंडेक्‍स की बढ़त बताती है कि हमें कमजोर दिख रहा रुपया दरअसल प्रतिस्‍पर्धी मुद्राओं के मुकाबले मजबूत है.. 

रिजर्व बैंक अमेरिकी डॉलर सहित 40 मुद्राओं की एक पूरी टोकरी के आधार पर  रुपये की विन‍िमय दर तय करता है. यह मुद्रायें भारत के व्‍यापार भागीदारों की हैं. यही है रीर, जो बताता है कि न‍िर्यात बाजार में भारत की मुद्रा कितनी प्रतिस्‍पर्धात्‍मक है रीर  से  पहले नीर भी है. यानी नॉमिनल इफक्‍ट‍िव एक्‍सचेंज रेट.  जो दुतरफा कारोबार में रुपये की प्रतिस्‍पर्धी ताकत का पैमाना  है. अलग अलग मुद्राओं के नीर का औसत रीर है.

रीर सूचकांक पर रुपया डॉलर के मुकाबले तो टूटा है लेक‍िन इस टोकरी की 39 मुद्रायें भारत की तुलना में कहीं ज्‍यादा कमजोर हुई हैं. खासतौर पर यूरो बुरी तरह घायल है.  इसलिए रीर पर रुपया मजबूत है.

आप रुपये की कमजोरी को रोते रहिये, सरकार और रिजर्व बैंक के रीर पर रुपया ताकत से फूल रहा है.

रिजर्व बैंक को एक और राहत है क‍ि 2008 के वित्‍तीय संकट और 2013 में अमेरिकी ब्‍याज दरें बढ़ने के दौर में लगातार गिरावट के दौर में रुपया अमेरिकी डॉलर के मुकाबले 20 फीसदी तक टूटा था. अभी दिसंबर से जून तक यह ग‍िरावट छह फीसदी से कम है.  हालांकि 2008 से 2022 के बीच भारतीय रुपया डॉलर के मुकाबले 48 से 80 के करीब आ गया है.  

रीर और नीर जैसे पैमाने  निर्यात के पक्ष में हैं. लेक‍िन जैसे ही हम निर्यात वाला चश्‍मा उतार देते हैं रुपये की गिरावट खौफ से भर देती है. क्‍यों कि कमजोर रुपया आयात की लागत बढ़ाकर हमें दोहरी महंगाई में भून रहा है. भारत की थोक महंगाई में 60 फीसदी हिस्‍सा इंपोर्टेड इन्‍फलेशन का है. सनद रहे कि  2022 के वित्‍त वर्ष 192 अरब डॉलर रिकार्ड व्‍यापार घाटा (आयात और न‍िर्यात का अंतर) दर्ज किया.

रिजर्व बैंक की दुविधा

अगर रिजर्व बैंक बाजार में डॉलर छोडता रहे तो रुपये की गिरावट रुक जाएगी लेक‍िन वक्‍त रिजर्व बैंक के माफ‍िक नहीं है. वह तीन वजहों से कीमती विदेशी मुद्रा का हवन नहीं करना चाहता.

एक -   2018 तक भारतीय बाजारों से औसत एक अरब डॉलर हर माह बाहर जाते थे निकल रहे थे लेक‍िन इस जनवरी के बाद यह निकासी पांच अरब डॉलर मास‍िक हो गई है.  विदेशी निवेशकों को भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था में फिलहाल उम्‍मीद नहीं दिख रही है. बाजार में डॉलर झोंककर भी यह उड़ान नहीं रोकी जा सकती.

दो -  डॉलर इंडेक्‍स अपनी ताकत के शि‍खर पर है. अमेरिका में ब्‍याज दरों जि‍तनी बढ़ेंगी,  डॉलर मजबूत हो जाएगा और रुपये की कमजोरी बढ़ती रहेगी.

तीन -  महंगाई पूरी दुनिया में है. भारतीय आयात में 60 फीसदी हिस्‍सा खाड़ी देशों, चीन, आस‍ियान, यूरोपीय समुदाय और अमेरिका से आने वाले सामानों व सेवाओं का है. जहां  2021 में निर्यात महंगाई 10 से  33 फीसदी तक बढ़ी है. महंगाई का आयात रोकना मुश्‍क‍िल है. आयात‍ित सामान महंगा होने से  सरकार को ज्‍यादा इंपोर्ट ड्यूटी मिलती है तो इसलिए यहां भी कुछ खास नहीं हो सकता.

 

कहां तक गिरेगा रुपया ?

 

रिजर्व बैंक की कोशि‍श  रुपये को नहीं विदेशी मुद्रा भंडार को बचाने की है. पिछली गिरावटों की तुलना में डॉलर के मुकाबले रुपया  उस कदर नहीं टूटा है जितनी कि कमी विदेशी मुद्रा में भंडार दिख रही है. मई से फरवरी 2008-09 के बीच रुपये की निरंतर गिरावट के दौरान विदेशी मुद्रा भंडार करीब 65 अरब डॉलर की कमी आई थी उसके बाद सबसे बड़ी गिरावट बीते नौ माह में यानी 21 अक्‍टूबर से 22 जून के बीच आई जिसमें जिसमें करीब 51 अरब डॉलर विदेशी मुद्रा भंडार से न‍िकल गए हैं

विदेशी मुद्रा भंडार अभी जीडीपी का करीब 20 फीसदी है. अगर यह गिरकर 15 फीसदी यानी 450 अरब डॉलर तक चला गया तो बड़ी घबराहट फैलेगी.

 

विदेशी मुद्रा भंडार इस समय 593 अरब डॉलर है. रिजर्व बैंक का इंटरनेशनल इन्‍वेस्‍टमेंट पोजीशन (आईआईपी) इस भंडार की ताकत का  हिसाब बताता है.  दिसंबर 2021 के  आईआईपी आंकड़ों के अनुसार   छोटी अवध‍ि के कर्ज और शेयर बाजार में पोर्टफोलियो निवेश की देनदारी निकालने के बाद भंडार में करीब 200 अरब डॉलर बचते हैं जो  60-63 अरब डॉलर (जून 2022) के मासिक इंपोर्ट बिल के हिसाब से केवल तीन चार माह के लिए पर्याप्‍त है. यही वजह है कि रिजर्व बैंक ने डॉलर की आवक बढ़ाने के लिए अन‍िवासी भारतीयों ,कंपन‍ियों और  विदेशी निवेशकों  के लिए रियायतों का नया पैकेज जारी किया है.

सरकार और रिजर्व बैंक को 80 के पार रुपये पर भी कोई दिक्‍कत नहीं है. बस एक मुश्‍त तेज गिरावट रोकी जाएगी. रुपया रोज गिरने के नए रिकार्ड बनायेगा. आप  बस  किस्‍म किस्‍म की आयात‍ित महंगाई झेलने के लिए अपनी पीठ मजबूत रख‍िये.

Saturday, October 6, 2018

रुपए के राहु-केतु



कोई कला नहीं चली सरकार की!

रुपया इस बार गिरा तो गिरता चला गया,

डॉलर के मुकाबले रुपया74 के करीब है. 75 रुपए वाले डॉलर की मंजिल दूर नहीं दिखती.

कमजोरी शायद भीतरी है! 

कमजोरी!

सात फीसदी की विकास दररिकॉर्ड विदेशी निवेश (दावों के मुताबिक)शेयर बाजार में भरपूर विदेशी पूंजीमूडीज की बेहतर रेटिंगमजबूत सरकार के बाद भी
कहां गए सारे विटामिन?

रुपया जनवरी से अब तक 14 फीसदी टूट चुका है. ताजा दशकों मेंएक साल में ऐसी गिरावट केवल दो बार नजर आई. पहला—1998 के पूर्वी एशिया मुद्रा संकट के दौरान रुपया एक साल में 13.63 फीसदी टूटा था. दूसरा—2012 में तेल के 100 डॉलर प्रति बैरल पर पहुंचने पर रुपया 14.51 फीसदी गिरा था.

अमेरिका और चीन के बीच व्यापार युद्ध एक चुनौती है लेकिन माहौल 1998 के मुद्रा संकट या 2008 के बैंकिंग संकट जैसा हरगिज नहीं है.

तो फिर?

डॉलर मजबूत हुआ है!

लेकिन डॉलर तो 2012 में अमेरिकी फेड रिजर्व की ब्याज दरें बढ़ाने के संकेत के बाद से मजबूत हो रहा है! 

दरअसलरुपए की जड़ और तना कमजोर हो गया है. पिछले चार वर्षों के 'अच्छे दिनों' के दौरान चालू खाते का घाटा (विदेश से संसाधनों की आमद और निकासी के बीच अंतर) बढ़ता गया है. चालू खाते (करंट अकाउंट) के घाटे में रुपए की जान बसती है.

जून की तिमाही में यह घाटा जीडीपी के अनुपात में 2.4 फीसदी पर पहुंच गया जो कि 15.8 अरब डॉलर (पिछले साल इसी दौरान 15 अरब डॉलर) है. घाटे की यह आगतेल की कीमतों में तेजी से पहले ही लग चुकी थी.
घाटा बढऩे की वजहें हरगिज बाहरी नही हैं.

पहली वजहः मेक इन इंडिया के झंडाबरदारों को खबर हो कि भारत का उत्पादन प्रतिस्पर्धा की होड़ में पिछड़ रहा है. बिजलीईंधनजमीनकर्ज की महंगाई और श्रमिकों की उत्पादकता में गिरावट के कारण अर्थव्यवस्था ठीक उस समय पिछड़ रही है जब नई तकनीकों (ऑटोमेशन) के कारण प्रतिस्पर्धात्मकता के मायने बदल रहे हैं. भारत में मैन्युफैक्चरिंग का जीडीपी में हिस्सा 16-17 फीसदी पर अटका है. चीनकोरिया या थाईलैंड की तरह 25-29 फीसदी करने के लिए जबरदस्त प्रतिस्पार्धात्मक होना होगा.

रुपया डॉलर के मुकाबले हर साल तीन से चार फीसदी टूटता है ताकि भारतीय उत्पाद बाजार में टिक सकें. जिस साल ऐसा नहीं हुआउस वर्ष भारतीय निर्यात औंधे मुंह गिरा है.

दूसरी वजहः मोदी सरकार के कूटनीतिक अभियान चाहे जितने आक्रामक रहे हों लेकिन भारत के निर्यात को सांप (या ड्रैगन) सूंघ गया है. 2013 से पहले दो वर्षों में 40 और 22 फीसदी की रफ्तार से बढऩे वाला निर्यात बाद के पांच वर्षों में नकारात्मक से लेकर पांच फीसदी ग्रोथ के बीच झूलता रहा. 
पिछले दो वर्षों में दुनिया की आर्थिक और व्यापार वृद्धि दर तेज रही है. 

लगभग एक दशक बाद विश्व व्यापार तीन फीसदी की औसत विकास दर को पार कर (2016 में 2.4 फीसदी) 2017 में 4.7 फीसदी पर पहुंच गया लेकिन भारत विश्व व्यापार में तेजी का कोई लाभ नहीं ले सका. निर्यात की निरंतर गिरावट ने इस घाटे की आग में पेट्रोल डाल दिया है.

तीसरी वजहः चालू खाते का घाटाबुनियादी तौर पर देश में निवेश योग्य संसाधनों की कमी यानी विदेशी संसाधनों पर निर्भरता बढऩे का पैमाना भी है. भारत में इस समय जीडीपी के अनुपात में जमा बचत का अंतर 4.2 फीसदी के स्तर पर है जो 2013 के बाद सबसे ऊंचा है. रिजर्व बैंक के मुताबिक2018 में भारत में आम लोगों की बचत के अनुपात में उनकी वित्तीय देनदारियों में बढ़ोतरी 2012 के बाद रिकॉर्ड ऊंचाई पर है. सरकारों की बचत शून्य है और घाटे नया रिकॉर्ड बना रहे हैं.

रुपया अब दुष्चक्र में फंसा दीखता है. अमेरिका में मंदी खत्म होने के ऐलान के साथ डॉलर की मजबूती बढ़ती जानी है. कच्चा तेल 100 डॉलर के ऊपर निकलने के लिए बेताब है. रुपए को थामने के लिए सरकार ने आयात को महंगा कर महंगाई की आग में एक तरह से बारूद डाल दी. अब ब्याज दरें बढ़ेंगी और निवेशक बिदकेंगे.



कमजोर रुपया, महंगा तेल, महंगाई और घाटे... भारतीय अर्थव्यवस्था की सभी बुनियादों में अचानक दरारें उभर आई हैं. प्रचार के अलावा, इन क्षेत्रों में पिछले चार साल में कोई बड़े ढांचागत सुधार नहीं हुए. चुनाव तो आते-जाते रहेंगे, लेकिन अगली छमाही देश की अर्थव्यवस्था के लिए बेहद संवेदनशील होने वाली है.

Wednesday, September 9, 2015

रुपया और राष्‍ट्रवाद



रुपए के अवमूल्यन में पाप या अपमान जैसा कुछ नहीं है. अगर आप बाजार में हैं तो आपको प्रतिस्पर्धी होना ही चाहिए.
चीन की चरमराती अर्थव्यवस्था और ग्लोबल करेंसी व वित्तीय बाजारों में उठापटक का भारत तत्काल कोई बड़ा फायदा उठाए या न नहीं, लेकिन इस माहौल का एक बड़ा लाभ जरूर हो सकता है. इस वित्तीय बेचैनी के बीच हमारे नेता देश की करेंसी यानी रुपए को लेकर अपने दकियानूसी आग्रहों से निजात पा सकते हैं. भारत में, बीजेपी और वामदल हमेशा से इस ग्रंथि के शिकार रहे हैं कि राष्ट्रीय साख के लिए फड़कती मांसपेशियों वाली करेंसी जरूरी है. उन्होंने यह बात सफलता के साथ सड़क पर खड़े अंतिम व्यक्ति तक पहुंचाई है कि रुपए का कमजोर होना आर्थिक पाप है.
लेकिन सियासत व बाजारों में पिछले एक साल के फेरबदल के बाद ऐसा संयोग बना है जब करेंसी जैसे एक परिवर्तनशील वित्तीय उपकरण की कीमत में गिरावट को राष्ट्रीय शर्म बताकर चुनाव लडऩे वाली बीजेपी सत्ता में है और मजबूती देने वाले तमाम कारकों की मौजूदगी के बावजूद रुपया अवमूल्यन की नई तलहटी छू रहा है. यह अनोखी परिस्थिति मुद्रा यानी करेंसी को लेकर हमें अपनी रूढ़िवादी सोच से मुक्त होने और डॉ. मनमोहन सिंह के उस सूत्र को स्वीकार करने का निमंत्रण देती है जो उन्होंने 1991 में रुपए के बड़े अवमूल्यन के बाद दिया था कि ''विनिमय दर केवल एक मूल्य मात्र है जिसका प्रतिस्पर्धात्मक होना जरूरी है.''करेंसी अवमूल्यन को लेकर भारत की राजनीति गजब की रूढ़िवादी रही है. 1991 के उथल-पुथल भरे आर्थिक दौर पर कांग्रेस के नेता व पूर्व केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश की ताजा किताब भारतीय राजनीति की रुपया ग्रंथि के बारे में दिलचस्प तथ्य सामने लाती है. जयराम रमेश संकट और सुधार के उस दौर में प्रधानमंत्री के सलाहकारों में शामिल थे. रमेश के संस्मरण बताते हैं कि रुपए को लेकर प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव के आग्रह भले ही वामदलों या बीजेपी जैसे रूढ़िवादी न रहे हों लेकिन अवमूल्यन को लेकर वे बुरी तरह अहसज थे.
1991
के वित्तीय संकट के दौरान तत्कालीन वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने रिजर्व बैंक के जरिए, 1 जुलाई और 3 जुलाई, 1991 को रुपए की कीमत क्रमशः 7 9 फीसदी घटाई. उस वक्त तक यह रुपए का सबसे बड़ा अवमूल्यन था और वह भी सिर्फ  72 घंटों में. उस दौर में रुपए की कीमत पूरी तरह सरकार तय करती थी, आज की तरह बाजार नहीं. रमेश लिखते हैं कि प्रधानमंत्री राव इस फैसले से इतने असहज थे कि 3 जुलाई को सुबह वित्त मंत्री मनमोहन सिंह को बुलाकर दूसरा अवमूल्यन रोकने का आदेश दे दिया. डॉ. सिंह ने समझाने की भरसक कोशिश की लेकिन प्रधानमंत्री सहज नहीं हुए. अंततः सुबह 9.30 बजे डॉ. सिंह ने रिजर्व बैंक के तत्कालीन गवर्नर डॉ. सी. रंगराजन से इसे रोकने को कहा लेकिन तब तक देर हो गई थी, रिजर्व बैंक सुबह नौ बजे रुपए के दूसरे और बड़े अवमूल्यन को अंजाम दे चुका था. डॉ. सिंह ने राहत की सांस ली और प्रधानमंत्री को उत्साह के साथ फैसला सूचित कर दिया. अलबत्ता, फैसला इतना सहज नहीं था. अवमूल्यन के बाद संसद में लंबे समय तक प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री को अपनी पार्टी व विपक्ष की लानतें झेलनी पड़ीं.

1991
से लेकर 2014 के लोकसभा चुनाव तक देश में काफी कुछ बदल गया लेकिन रुपए को लेकर नेताओं की हीन ग्रंथि में कोई तब्दीली नहीं आई. सत्ता में बैठने के बाद नरेंद्र मोदी और अरुण जेटली को इस बात का एहसास हो रहा होगा कि कि उन्होंने रुपए की गिरावट को जिस तरह देश की साख से जोड़ा था, वह हास्यास्पद था. बाजार के जानकार रुपए की उठापटक को टेक्निकल चार्ट पर पढ़ते हैं. इस चार्ट के मुताबिक, रुपए में ताजी गिरावट (3 सितंबर 66.24 रुपए प्रति डॉलर) 2013 का दौर जैसी दिख रही है, जब रुपया 68.80 तक टूट गया था.

2013
का जिक्र इसलिए जरूरी है क्योंकि कमजोर रुपए को देश की कमजोरी बताने के राजनैतिक अभियान उसी दौरान जन्मे थे. 2013 में कच्चे तेल की कीमतें 100 डॉलर प्रति बैरल से ऊपर थीं. भारत में विदेशी मुद्रा की आवक-निकासी के सभी संतुलन ध्वस्त थे. हालत इस कदर बुरी थी कि रिजर्व बैंक को रुपए पर संकट टालने के लिए उपायों का पूरा दस्ता मैदान में उतारना पड़ा तब जाकर कहीं हालत सुधरी. लेकिन आज जब कच्चे तेल की कीमतें 44 डॉलर पर हैंफॉरेक्स रिजर्व 355 अरब डॉलर के रिकॉर्ड स्तर पर है, महंगाई घट रही है, व्यापार घाटा गिर रहा है, विदेशी आवक-निकासी में अंतर कम हो रहा है तब भी रुपया ताकत की हुंकार लगाने की बजाए 2013 की तर्ज पर गोते खा रहा है. यह परिस्थित सिद्ध करती है कि करेंसी एक परिवर्तनशील वित्तीय उपकरण है, जिसे भावुक राष्ट्रीयता के संदर्भ में नहीं, बल्कि आर्थिक हालात की रोशनी में देखना ही समझदारी है.
 
वित्त मंत्री जेटली को रुपए की ताजा गिरावट का बचाव करना पड़े तो वे यही कहेंगे कि पिछले कुछ माह में फिलिपीन पेसो, थाई बाट और भारतीय रुपए के अलावा, उभरते बाजारों की सभी मुद्राएं गिरी थीं. इसलिए रुपए का 66-67 पहुंचना कोई बड़ी बात नहीं है. भारतीय मुद्रा निर्यात बाजार की अन्य प्रतिस्पर्धी मुद्राओं के मुकाबले कुछ ज्यादा ही मजबूत हो गई थी, इस अवमूल्यन से हमें निर्यात में बढ़त मिलेगी. यकीनन, उनके इस तर्क में आपको 1991 के डॉ. सिंह के ही शब्द सुनाई देंगे. जयराम रमेश की किताब में डॉ. सिंह का वह जवाब दर्ज है जो उन्होंने 1991 में रुपए के बड़े अवमूल्यन के बाद राज्यसभा में हुई बहस पर दिया था. उन्होंने कहा था कि अंग्रेज भारत को प्राथमिक उत्पादों का निर्यातक बनाकर रखना चाहते थे, औद्योगिक उत्पादों का निर्यातक नहीं. इसलिए घरेलू मुद्रा को हमेशा ताकतवर रखने के संस्कार भर दिए गए. रुपए का संतुलित अवमूल्यन हमें आधुनिक व प्रतिस्पर्धात्मक बनाता है तो वह राष्ट्र विरोधी कैसे हो जाएगा? आज डॉलर की कीमत 67 रुपए पर पहुंचते देख क्या मोदी-जेटली समेत पूरी बीजेपी यह स्वीकार करेगी कि हमेशा ताकतवर रुपए की वकालत ब्रिटिश औपनिवेशिक आर्थिक नीति की हिमायत नहीं थी? क्या बीजेपी अब यह स्वीकार करेगी कि रुपए के अवमूल्यन में पाप या अपमान जैसा कुछ नहीं है. अगर आप बाजार में हैं तो आपको प्रतिस्पर्धी होना ही चाहिए.