फरीदाबाद की फैक्ट्री में लेबर सुपरवाइजर था विनोद, ओवर टाइम आदि मिलाकर 500-600 रुपये की दिहाड़ी बन जाती थी. कोविड लॉकडाउन के बाद से गांव में मनरेगा मजदूर हो गया. अब तो सरपंच या मुखिया के दरवाजे पर ही लेबर चौक बन गया है, विनोद वहीं हाजिरी लगाता है. मनरेगा वैसे भी केवल साल 180 दिन का काम देती थी लेकिन बीते दो बरस से विनोद के परिवार को साल में 50 दिन का का काम भी मुश्किल से मिला है.
आप विनोद को
बेरोजगार कहेंगे या कामगार ?
गौतम को बेरोजगार कर गया लॉकडाउन. उधार के सहारे कटा
वक्त. पुराना वाला रिटेल स्टोर तो नहीं खुला लेकिन खासी मशक्कत के बाद एक मॉल
में काम मिल गया. वेतन पहले से 25 फीसदी कम है और काम के घंटे 8 की जगह दस हो गए
हैं, अलबत्ता शहर की महंगाई उनकी जान निकाल रही है.
क्या गौतम मंदी
से उबर गया है ?
महामारी ने भारत
में रोजगारों की तस्वीर ही नहीं आर्थिक समझ भी बदल दी है. महंगाई और बेकारी के रिश्ते
को बताने वाला फिलिप्स कर्व सिर के बल खड़ा हो कर नृत्य कर रहा है यहां बेकारी
और महंगाई दोनों की नई ऊंचाई पर हैं इधर मनरेगा में कामगारों की भीड़ को सरकारी रोजगार
योजनाओं की सफलता का गारंटी कार्ड बता दिया गया है. सब कुछ गड्ड मड्ड हो गया है .
यदि हम यह कहें
कि मनरेगा यानी महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार योजना भारत में बेकारी का सबसे
मूल्यवान सूचकांक हो गई है तो शायद आपको व्यंग्य की खनक सुनाई देगी लगेगा. लेकनि महामारियां और महायुद्ध हमारी पुरानी समझ का ताना बाना तोड़ देते हैं
इसलिए मनरेगा में अब भारत के वेलफेयर स्टेट की सफलता नहीं भीषण नाकामी दिखती है
आइये आपको भारत में बेरोजगारी के सबसे विकराल और विदारक
सच से मिलवाते हैं. मनरेगा श्रम की मांग पर आधारित योजना है इसलिए यह बाजार में
रोजगार की मांग घटने या बढ़ने का सबसे उपयुक्त पैमाना है. दूसरा तथ्य यह कि मनरेगा
अस्थायी रोजगार कार्यक्रम है इसलिए इसके जरिये बाजार में स्थायी रोजगारों
की हालात का तर्कसंगत आकलन हो सकता है.
वित्त वर्ष
2021 के दौरान मनरेगा में लगभग 11.2 करोड़ लोगों यानी लगभग 93 लाख लोगों को प्रति
माह काम मिला. 2020-21 का साल शहरों की गरीबी के गांवों में वापस लौटने का था, इसलिए मनरेगा में
काम हासिल करने वालों की तादाद करीब 42 फीसदी बढ़ गई. इस साल यानी वित्त वर्ष 2022 के पहले आठ माह
(अप्रैल नवंबर 2021) में प्रति माह करीब
1.12 करोड़ लोगों मनरेगा की शरण में पहुंचे,यानी पर मनरेगा
पर निर्भरता में करीब 20 फीसदी की बढ़ोत्तरी.
अब उतरते हैं इस
आंकडे के और भीतर जो यह बताता है कि अर्थव्यवस्था में कामकाज शुरु होने और
रिकवरी के ढोल वादन के बावजूद श्रम बाजार की हालात बदतर बनी हुई है. श्रमिक शहरों
में नहीं लौटे इसलिए मनरेगा ही गांवो में एक मात्र रोजगार शरण बनी हुई है.
मनरेगा के काम
का हिसाब दो श्रेणियों में मापा जाता है एक काम की मांग यानी वर्क डिमांडेड और एक
काम की आपूर्ति अर्थात वर्क प्रोवाइडेड. नवंबर 2021 में मनरेगा के तहत काम की
मांग (वर्क डिमांडेड) नवंबर 20 की तुलना में 90 फीसदी ज्यादा थी. मतलब यह कि रिकार्ड जीडीपी रिकवरी के बावजूद मनरेगा में काम
की मांग कम नहीं हुई. इस बेरोजगारी का नतीजा यह हुआ कि मनरेगा में दिये गए काम का
प्रतिशत मांगे गए काम का केवल 61.5% फीसदी रह गया. यानी 100
में केवल 61 लोगों को काम मिला. यह औसत पहले 85 का था. यही वजह थी कि इस वित्त
वर्ष में सरकार को मनरेगा को 220 अरब रुपये का अतिरिक्त आवंटन करना पड़ा.
मनरेगा एक और
विद्रूप चेहरा है जो हमें रोजगार बाजार के बदलती तस्वीर बता रहा है. मनरेगा में
काम मांगने वालों में युवाओं की प्रतिशत आठ साल के सबसे ऊंचे स्तर पर है. मनरेगा
के मजदूरों में करीब 12 फीसदी लोग 18 से 30 साल की आयु वर्ग के हैं. 2019 में यह
प्रतिशत 7.3 था. मनरेगा जो कभी गांव में प्रौढ़ आबादी के लिए मौसमी मजदूरी का जरिया
थी वह अब बेरोजगार युवाओं की आखिरी उम्मीद है.
तीसरा और सबसे
चिंताजनक पहलू है मनरेगा की सबसे बड़ी विफलता. मनरेगा कानून के तहत प्रति परिवार
कम से कम 100 दिन का काम या रोजगार की गारंटी है. लेकिन अब प्रति परिवार साल में
46 दिन यानी महीने में औसत चार दिहाड़ी मिल पाती है. कोविड से पहले यह औसत करीब
50 दिन का था. इस पैमाने पर उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, कर्नाटक, तमिलनाडु जैसे राज्य हैं जहां साल में
39-40 दिन का रोजगार भी मुश्किल है
सनद रहे कि
मनरेगा अस्थायी रोजगार का साधन है और दैनिक मजदूरी है केवल 210 रुपये. यदि एक
परिवार को माह में केवल चार दिहाड़ी मिल पा रही है तो यह महीने में 1000 रुपये से
भी कम है. यानी कि विनोद जिसका जिक्र हमने शुरुआत में किया वह गांव में गरीबी के टाइम बम पर बैठकर महंगाई की
बीड़ी जला रहा है. यही वजह है कि गांवों
से साबुन तेल मंजन की मांग नहीं निकल रही है.
अब बारी गौतम
वाली बेरोजगारी की.
वैसे महंगाई और
बेरोजगारी से याद आया कि एक थे अल्बन विलियम हाउसगो फिलिप्स वही फिलिप्स
कर्व वाले. बड़ा ही रोमांचक जीवन था फिलिप्स का. न्यूजीलैंड किसान परिवार में
पैदा हुए. पढ़ लिख नहीं पाए तो 1937 में
23 साल की उम्र में दुनिया घूमने निकल पड़े लेकिन जा रहे थे चीन पहुंच
गए जापान यानी युद्ध छिड़ गया तो जहाज ने शंघाई की जगह योकोहामा ले जा पटका. वहां
से कोरिया मंचूरिया रुस होते हुए लंदन पहुंचे और बिजली के इंजीनियर हो गए.
फिलिप्स दूसरे
विश्व युद्ध में रायल ब्रिटिश फोर्स का हिस्सा बन कर पहुंच गए सिंगापुर. 1942
में जब जापान ने जब सिंगापुर पर कब्जा कर लिया तो आखिरी जहाज पर सवार हो कर भाग रहे थे कि जापान
ने हवाई हमला कर दिया. जहाज ने जावा
पहुंचा दिया जहां तीन साल जेल में रहे और फिर वापस न्यूजीलैंड पहुंचे. तंबाकू के
लती और अवसादग्रस्त फििलप्स ने अंतत: वापस लंदन लौटे और लंदन स्कूल ऑफ
इकोनॉमिक्स में भर्ती हो गए. जहां उन्होंने 1958 में महंगाई और बेकारी को रिश्ते
के समझाने वाला सिद्धांत यानी फिलिप्स कर्व प्रतिपादित किया.
फिलिप्स कर्व
के आधार पर तो गौतम को पहले से ज्यादा वेतन मिलना चाहिए क्यों कि यह सिद्धांत
कहता है कि उत्पादन बढ़ाने के लिए वेतन बढ़ाने होते हैं जिससे महंगाई बढ़ती है
जबकि यदि उत्पादन कम है वेतन कम हैं तो महंगाई भी कम रहेगी.
महामारी के बाद
भारत की अर्थव्यवस्था अजीब तरह से बदल रही है. यहां मंदी के बाद उत्पादन बढ़ाने
की जद्दोहजहद तो दिख रही है लेकनि गौतम जैसे लोग पहले से कम वेतन काम कर रहे हैं.
जबकि और हजार वजहों से महंगाई भड़क रही है बस कमाई नहीं बढ़ रही है.
भारत की ग्रामीण
और नगरीय अर्थव्यवस्थाओं में कम वेतन की लंबी खौफनाक ठंड शुरु हो रही है.
सरकारी रोजगार योजनाओं में बेंचमार्क मजदूरी इतनी कम है कि अब इसके असर पूरा
रोजगार बाजार बुरी तरह मंदी में आ गया है. मुसीबत यह है कि कम पगार की इस सर्दी के
बीच महंगाई की शीत लहर चल रही है यानी कि अगर अर्थव्यवस्था में मांग बढ़ती
भी है और वेतन में कुछ बढ़त होती है तो वह पहले से मौजूदा भयानक महंगाई को और ज्यादा
ताकत देगी या लोगों की मौजूदा कमाई में बढ़ोत्तरी चाट जाएगी.
क्या बजटोन्मुख
सरकार के पास कोई इलाज है इसका ? अब या तो महंगाई घटानी होगी या कमाई बढ़ानी होगी, इससे
कम पर भारत की आर्थिक पीड़ा कम होने वाली नहीं है.