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Thursday, December 30, 2021

बेरोजागारी की गारंटी


 फरीदाबाद की फैक्‍ट्री में लेबर सुपरवाइजर था व‍िनोदओवर टाइम आदि मिलाकर 500-600 रुपये की द‍िहाड़ी बन जाती थी. कोविड लॉकडाउन के बाद से गांव में मनरेगा मजदूर हो गया.  अब तो सरपंच या मुखि‍या के दरवाजे पर ही लेबर चौक बन गया है, वि‍नोद वहीं हाज‍िरी लगाता है. मनरेगा वैसे भी केवल साल 180 दि‍न का काम देती थी लेक‍िन बीते दो बरस से विनोद के पर‍िवार को  साल में 50 द‍िन का  का काम भी मुश्‍क‍िल से मिला है.

आप विनोद को बेरोजगार कहेंगे या कामगार ?  

गौतम  को बेरोजगार कर गया लॉकडाउन. उधार के सहारे कटा वक्‍त. पुराना वाला रिटेल स्‍टोर तो नहीं खुला लेक‍िन खासी मशक्‍कत के बाद एक मॉल में काम म‍िल गया. वेतन पहले से 25 फीसदी कम है और काम के घंटे 8 की जगह दस हो गए हैं, अलबत्‍ता शहर की महंगाई उनकी जान निकाल रही है.

क्‍या गौतम मंदी से उबर गया है ?   

महामारी ने भारत में रोजगारों की तस्‍वीर ही नहीं आर्थ‍िक समझ भी बदल दी है. महंगाई और बेकारी के र‍िश्‍ते को बताने वाला फिल‍िप्‍स कर्व सिर के बल खड़ा हो कर नृत्‍य कर रहा है यहां बेकारी और महंगाई दोनों की नई ऊंचाई पर हैं इधर मनरेगा में कामगारों की भीड़ को सरकारी रोजगार योजनाओं की सफलता का गारंटी कार्ड बता द‍िया गया है. सब कुछ गड्ड मड्ड हो गया है .


यद‍ि हम यह कहें क‍ि मनरेगा यानी महात्‍मा गांधी ग्रामीण रोजगार योजना भारत में बेकारी का सबसे मूल्‍यवान सूचकांक हो गई है तो शायद आपको व्‍यंग्‍य की खनक सुनाई देगी लगेगा. लेकनि महामार‍ियां और महायुद्ध हमारी पुरानी समझ का ताना बाना तोड़ देते हैं इसलिए मनरेगा में अब भारत के वेलफेयर स्‍टेट  की सफलता नहीं भीषण नाकामी दिखती है

आइये आपको  भारत में बेरोजगारी के सबसे विकराल और विदारक सच से मिलवाते हैं. मनरेगा श्रम की मांग पर आधार‍ित योजना है इसल‍िए यह बाजार में रोजगार की मांग घटने या बढ़ने का सबसे उपयुक्‍त पैमाना है. दूसरा तथ्‍य यह कि  मनरेगा  अस्‍थायी रोजगार कार्यक्रम है इसलिए इसके जरिये बाजार में स्‍थायी रोजगारों की हालात का तर्कसंगत आकलन हो सकता है.

वित्‍त वर्ष 2021 के दौरान मनरेगा में लगभग 11.2 करोड़ लोगों यानी लगभग 93 लाख लोगों को प्रति माह काम मिला. 2020-21 का साल शहरों की गरीबी के गांवों में वापस लौटने का था, इसल‍िए मनरेगा में काम हास‍िल करने वालों की तादाद करीब 42 फीसदी बढ़ गई.  इस साल यानी वित्‍त वर्ष 2022 के पहले आठ माह (अप्रैल नवंबर 2021)  में प्रति माह करीब 1.12 करोड़ लोगों मनरेगा की शरण में पहुंचे,यानी पर मनरेगा पर निर्भरता में करीब 20 फीसदी की बढ़ोत्‍तरी.  

अब उतरते हैं इस आंकडे के और भीतर जो यह बताता है क‍ि अर्थव्‍यवस्‍था में कामकाज शुरु होने और रिकवरी के ढोल वादन के बावजूद श्रम बाजार की हालात बदतर बनी हुई है. श्रमिक शहरों में नहीं लौटे इसल‍िए मनरेगा ही गांवो में एक मात्र रोजगार शरण बनी हुई है.

मनरेगा के काम का हिसाब दो श्रेणि‍यों में मापा जाता है एक काम की मांग यानी वर्क डिमांडेड और एक काम की आपू‍र्ति अर्थात वर्क प्रोवाइडेड‍. नवंबर 2021 में मनरेगा के तहत काम की मांग (वर्क डिमांडेड) नवंबर 20 की तुलना में 90 फीसदी ज्यादा थी. मतलब यह क‍ि  रिकार्ड जीडीपी रिकवरी के बावजूद मनरेगा में काम की मांग कम नहीं हुई. इस बेरोजगारी का नतीजा यह हुआ क‍ि मनरेगा में दिये गए काम का प्रतिशत मांगे गए काम का केवल 61.5% फीसदी रह गया. यानी 100 में केवल 61 लोगों को काम मिला. यह औसत पहले 85 का था. यही वजह थी कि इस वित्‍त वर्ष में सरकार को मनरेगा को 220 अरब रुपये का अत‍िर‍िक्‍त आवंटन करना पड़ा.

मनरेगा एक और विद्रूप चेहरा है जो हमें रोजगार बाजार के बदलती तस्‍वीर बता रहा है. मनरेगा में काम मांगने वालों में युवाओं की प्रतिशत आठ साल के सबसे ऊंचे स्‍तर पर है. मनरेगा के मजदूरों में करीब 12 फीसदी लोग 18 से 30 साल की आयु वर्ग के हैं. 2019 में यह प्रतिशत 7.3 था. मनरेगा जो कभी गांव में प्रौढ़ आबादी के लिए मौसमी मजदूरी का जर‍िया थी वह अब बेरोजगार युवाओं की आखि‍री उम्‍मीद है.

तीसरा और सबसे चिंताजनक पहलू है मनरेगा की सबसे बड़ी विफलता. मनरेगा कानून के तहत प्रति परिवार कम से कम 100 दिन का काम या रोजगार की गारंटी है. लेक‍िन अब प्रति‍ परिवार साल में 46 दिन यानी महीने में औसत चार द‍िहाड़ी मिल पाती है. कोव‍िड से पहले यह औसत करीब 50 दिन का था. इस पैमाने पर उत्‍तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, कर्नाटक, तम‍िलनाडु जैसे राज्‍य हैं जहां साल में 39-40 द‍िन का रोजगार भी मुश्‍क‍िल है

सनद रहे क‍ि मनरेगा अस्‍थायी रोजगार का साधन है और दैन‍िक मजदूरी है केवल 210 रुपये. यदि एक परिवार को माह में केवल चार दिहाड़ी मिल पा रही है तो यह महीने में 1000 रुपये से भी कम है. यानी क‍ि विनोद जिसका जिक्र हमने शुरुआत में किया वह  गांव में गरीबी के टाइम बम पर बैठकर महंगाई की बीड़ी  जला रहा है. यही वजह है कि गांवों से साबुन तेल मंजन की मांग नहीं निकल रही है.  

अब बारी गौतम वाली बेरोजगारी की.  

वैसे महंगाई और बेरोजगारी से याद आया क‍ि एक थे अल्‍बन विल‍ियम हाउसगो फ‍िल‍िप्‍स वही फ‍िल‍िप्‍स कर्व वाले. बड़ा ही रोमांचक जीवन था फ‍िलि‍प्‍स का. न्‍यूजीलैंड किसान पर‍िवार में पैदा हुए. पढ़ ल‍िख नहीं पाए तो 1937 में  23 साल की उम्र में दुन‍िया घूमने न‍िकल पड़े लेक‍िन जा रहे थे चीन पहुंच गए जापान यानी युद्ध छिड़ गया तो जहाज ने शंघाई की जगह योकोहामा ले जा पटका. वहां से कोरिया मंचूर‍िया रुस होते हुए लंदन पहुंचे और बिजली के इंजीन‍ियर हो गए.

फिलि‍प्‍स दूसरे वि‍श्‍व युद्ध में रायल ब्रिटिश फोर्स का हिस्‍सा बन कर पहुंच गए स‍िंगापुर. 1942 में जब जापान ने जब स‍िंगापुर पर कब्‍जा कर लिया तो  आखि‍री जहाज पर सवार हो कर भाग रहे थे कि जापान ने हवाई हमला कर दिया.  जहाज ने जावा पहुंचा दिया जहां तीन साल जेल में रहे और फिर वापस न्‍यूजीलैंड पहुंचे. तंबाकू के लती और अवसादग्रस्‍त फि‍ि‍लप्‍स ने अंतत: वापस लंदन लौटे और लंदन स्‍कूल ऑफ इकोनॉमिक्‍स में भर्ती हो गए. जहां उन्‍होंने 1958 में महंगाई और बेकारी को रि‍श्‍ते के समझाने वाला स‍िद्धांत यानी फि‍ल‍िप्‍स कर्व प्रत‍िपाद‍ित कि‍या.

फ‍िल‍िप्‍स कर्व के आधार पर तो गौतम को पहले से ज्‍यादा वेतन म‍िलना चाहिए क्‍यों क‍ि यह सिद्धांत कहता है कि उत्‍पादन बढ़ाने के लिए वेतन बढ़ाने होते हैं जिससे महंगाई बढ़ती है जबक‍ि यदि उत्‍पादन कम है वेतन कम हैं तो महंगाई भी कम रहेगी.

महामारी के बाद भारत की अर्थव्‍यवस्‍था अजीब तरह से बदल रही है. यहां मंदी के बाद उत्‍पादन बढ़ाने की जद्दोहजहद तो दि‍ख रही है लेकनि गौतम जैसे लोग पहले से कम वेतन काम कर रहे हैं. जबक‍ि और हजार वजहों से महंगाई भड़क रही है बस कमाई नहीं बढ़ रही है.

भारत की ग्रामीण और नगरीय अर्थव्‍यवस्‍थाओं में   कम वेतन की लंबी खौफनाक ठंड शुरु हो रही है. सरकारी रोजगार योजनाओं में बेंचमार्क मजदूरी इतनी कम है कि अब इसके असर पूरा रोजगार बाजार बुरी तरह मंदी में आ गया है. मुसीबत यह है कि कम पगार की इस सर्दी के बीच महंगाई की शीत लहर चल रही है यानी कि अगर अर्थव्‍यवस्‍था में मांग बढ़ती
भी है और वेतन में कुछ बढ़त होती है तो वह पहले से मौजूदा भयानक महंगाई को और ज्‍यादा ताकत देगी या लोगों की मौजूदा कमाई में बढ़ोत्‍तरी चाट जाएगी.

क्‍या बजटोन्‍मुख सरकार के पास कोई इलाज है इसका ? अब या तो महंगाई घटानी होगी या कमाई बढ़ानी होगी, इससे कम पर भारत की आर्थि‍क पीड़ा कम होने वाली नहीं है.

  

Friday, July 17, 2020

सबसे बड़ी हार


विक्रम अपना मास्क संभाल ही रहा था कि  वेताल कूद कर पीठ पर लद गया और बोला राजा बाबू ज्ञान किस को कहते हैंविक्रम नेश्मशान की तरफ बढ़ते हुए कहायुधिष्ठि ने यक्ष को बताया था कि यथार्थ का बोध हीज्ञान है.
वेताल उछल कर बोलातो फिर बताओ कि लॉकडाउन के बाद भारत में बेकारी का सच क्या हैविक्रम बोलाप्रेतराजलॉकडाउन ने हमारी सामूहिक याददाश्त पर असर किया हैजल्दी ही लोगों को यह बताया जाएगा कि मांगनिवेश या उत्पादन बढ़े बगैर कमाई और रोजगार आदि कोविड से पहले की स्थिति में लौट आए हैंइसलिए कोविड के बाद बेकारी की तस्वीर को देखने के लिए कोविड के पहले की बेकारी को देखते चलें तो ठीक रहेगा. 

बेकारीः कोविड से पहले
एनएसएसओ के मुताबिक, 2017-18 में बेकारी की दर 6.1 फीसद यानी 45 साल के सबसे ऊंचे स्तर पर थीफरवरी 2019 में यह  8.75 फीसद के रिकॉर्ड ऊंचाई पर  गई (सीएमआइई).

कोविड से पहले तक पांच साल मेंआर्थिक उदारीकरण के बाद पहली बारसंगठित और असंगठितदोनों क्षेत्रों में एक साथ बड़े पैमाने पर रोजगार खत्म हुए.

2015 तक संगठित क्षेत्र की सर्वाधिक नौकरियां कंप्यूटरटेलीकॉमबैंकिंग सेवाएं-कॉमर्सकंस्ट्रक्शन से आई थींमंदी और मांग में कमीकर्ज में डूबी कंपनियों का बंद होने और नीतियों में अप्रत्याशित फेरबदल से यहां बहुत सी नौकरियां गईं.

असंगठित क्षेत्रजो भारत में लगभग 85 फीसद रोजगार देता हैवहां नोटबंदी (95 फीसद नकदी की आपूर्ति बंदऔर जीएसटी के कारण बेकारी आईभारत में 95.5 फीसद प्रतिष्ठानों में कर्मचारियों की संख्या पांच से कम है.

इसलि भारत में बेकारी की दर (6.1 फीसददेश की औसत विकास दर (7.6 फीसदके करीब पहुंच गईयानी विकास दर बढ़ने से बेकारी भी बढ़ी जो अप्रत्याशि था. 2014 से पहले के दशक में बेकारी दर 2 फीसद थी और विकास दर 6.1 फीसद.

बेकारीः कोविड के बाद
लॉकडाउन बाद मिल रहे आंकडे़भारत में रोजगारों की पेचीदगी का नया संस्करण हैंएनएसएसओ के आंकड़ो के मुताबिकभारत में 52 फीसद कामगार आबादी स्वरोजगार यानी  अपने काम धंधे में है, 25 फीसद दैनिक मजदूर हैं और 23 फीसद पगार वालेसीएमआइई के आंकड़ों में बेकारी की दर जो अप्रैल मई में 24 फीसद थीवह अब वापस 8 फीसद यानी कोविड से पहले वाले स्तर पर है

लेकिन यह कहानी इतनी सीधी नहीं हैइन आंकड़ों के भीतर उतरने पर नजर आता है कि बेकारी की दर घटी है लेकिन रोजगार मांगने वालों में भी 8 फीसद की (कोविड पूर्वकमी आई है यानी एक बड़ी आबादी काम  होने से नाउम्मीद होकर श्रम बाजार से बाहर हो गई है.

रोजगारों की संख्या नहीं बल्कि अब रोजगारों की प्रकृति को करीब से देखना जरूरी हैलॉकडाउन के बाद गैर कृषि‍ रोजगार टूटे हैंजहां उत्पादकता कृषि‍ की तीन गुनी हैवेतन भी ज्यादाज्यादातर बेकारों ने या तो मनरेगा में शरण ली है या फिर बहुत छोटे स्वरोजगार यानी रेहड़ी-पटरी की कोशि में हैं.

रोजगारों की गुणवत्ता संख्या की बजाए वेतन से मापी जाती हैलॉकडाउन के बाद गांवों में रोजगार में जो बढ़त दिख रही है वह मनरेगा में हैजहां मजदूरी शहरी इलाकों की दिहाड़ी से आधी हैयह दरगांवों में भी गैर मनरेगा कामों से सौ रुपए प्रति दिन कम है.

लॉकडाउन से निकलती भारतीय अर्थव्यवस्था में बेरोजगारी के तीन आयाम होंगे

• दैनिक और गैर अनुबंध वाले मजदूरों की संख्या में वृद्धि यानी रोजगार सुरक्षा पर खतरा

• कृषि‍ और छोटे स्वरोजगारों पर ज्यादा निभरता यानी कम मजदूरी

• संगठित नौकरियों में वेतन वृद्धि पर रोक के कारण खपत में कमी और शहरी रोजगारों में मंदी

भारत में करीब 44 फीसद लोग खेती में लगे हैं, 39 फीसद छोटे उद्योगों और अपने कारोबारों में और 17 फीसद के पास बड़ी कंपनियों या सरकार में रोजगार हैंखेती में मजदूरी वैसे भी कम हैगैर कृषि‍ कारोबारों में करीब 55 फीसद लोगों की कमाई में बढ़ोतरीनए पूंजी‍ निवेश और मांग पर निर्भर है.

निवेश  मांग में बढ़त के साथ 2007 से 2012 के बीच हर साल करीब 75 लाख नए रोजगार बने जो 2012-18 के बीच घटकर 25 लाख सालाना रह गएनतीजतन शहरी और ग्रामीण इलाकों में वेतन  आय बढ़ने की दर लगातार गिरती गई और कोविड से पहले बेकारी 45 साल के सर्वोच्च स्तर पर पहुंच गई.

कोविड के बाद बेकारी बढ़ी ही नहीं बल्कि और जटिल हो रही हैग्रामीण रोजगार स्कीमों से गरीबी रोकना मुश्कि होगाशहरी अर्थव्यवस्था को खपत की बड़ी खुराक चाहिएअब चाहे वह सरकार अपने बजट से दे या फिर कंपनियों को रियायत देकर निवेश कराएदोनों ही हालात में 2012 की रोजगार (75 लाख सालानाऔर पगार वृद्धि दर पाने में कम से कम छह साल तो लग ही जाएंगे.