पिछले चार साल में मेक इन इंडिया के जरिए
उद्योग के सरदारों को रिझा रही सरकार को अचानक बेचारे बेबस और नोटबंदी-जीएसटी के
मारे छोटे उद्योग क्यों याद आ गए, जिन्हें
सामने रखकर वित्त मंत्रालय ने रिजर्व बैंक पर तोप तान दी है.
हम इस पर आश्चर्य कर सकते हैं, यह जानते हुए भी कि बैंक और वित्तीय
प्रणाली कर्ज के फंदे में फंसकर बुरी तरह हांफ रहे हैं और छह माह बाद यह मुसीबत फट
पड़ेगी, फिर भी सरकार आखिर बैंकों को कर्ज की रेवडिय़ों
का बाजार खोलने के लिए क्यों कह रही है?
दरअसल, चुनाव सामने है और भारतीय अर्थव्यवस्था
की रफ्तार पर बन आई है. मौसम बिगड़ रहा है. पिछले दो माह का घटनाक्रम बता रहा है कि
बड़े चुनाव से पहले ग्रोथ के आंकड़े सरकार के चुनाव प्रचार को बदमजा कर सकते हैं.
कर्ज को लेकर सरकार की ताजा बेचैनी इसी डर से उपजी है.
आर्थिक विकास दर में अब तेज गिरावट के
आसार हैं. चार कमजोरियां पहले से ही मौजूद हैं. एक—नोटबंदी और जीएसटी के बाद से
बाजार में मांग नदारद है क्योंकि न तो निजी निवेश में बढ़त हो रही है और न उपभोक्ता
खपत में. दो—ब्याज दरों में बढ़ोतरी का दौर प्रारंभ हो चुका है. तीन—जीएसटी की चपत
से सरकार के राजस्व में गिरावट है, घाटा
और नतीजतन कर्ज बढ़ रहा है. और चार—बकाया कर्ज से परेशान बैंक नए कर्ज बांटने की
स्थिति में नहीं हैं और न ही सरकार अपनी जेब से इन बैंकों के उद्धार का बोझ उठा
सकती है.
इन तीन बुनियादी चुनौतियों के बावजूद
अर्थव्यवस्था किसी तरह ढुलक रही थी लेकिन सितंबर के बाद माहौल बुरी तरह बदल गया.
रुपए की कमजोरी और कच्चे तेल की कीमतों में उफान के बीच वित्तीय बाजार में संकट का चक्र शुरू हो रहा है.
सितंबर के पहले सप्ताह में अचानक कई
गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियां (एनबीएफसी) बैंकों की तरह ही बकाया कर्ज की बीमारी
की चपेट में आ गईं. ठीक यही मौका था जब बाजार में ब्याज दर भी बढऩे लगी थी इसलिए
उनके लिए नया कर्ज जुटाना मुश्किल हो
गया और बाजार में पूंजी की कमी हो गई.
अब खतरा विकास दर गिरने का है
क्योंकि...
1. बैंकों के बकाया कर्ज के जाल में
फंसने के बाद गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियां कर्ज और पूंजी का प्रमुख स्रोत थीं.
2014-18 के बीच एनबीएफसी कर्ज पर अर्थव्यवस्था की निर्भरता पांच फीसदी से अधिक बढ़ी
है. एनबीएफसी के डूबने के साथ सबसे बड़ा खतरा अचल संपत्ति के बाजार पर है जहां
हाउसिंग फाइनेंस कंपनियों की कर्ज की आपूर्ति 2013-18 के बीच 27 फीसदी की गति से
बढ़ी है. एनबीएफसी और हाउसिंग फाइनेंस से कर्ज की आपूर्ति में कमी या महंगे कर्ज की
वजह से अचल संपत्ति बाजार में गहरे संकट का अंदेशा है. खतरा है कि कई अचल संपत्ति
कंपनियां और डेवलपर मुश्किल में होंगे जैसा कि आइएलएफएस के साथ हुआ है. सरकार
बेतरह उलझे कर्ज बाजार में बैंकों को और ज्यादा जोखिम की तरफ धकेल रही है.
2. बाजार में मंदी के ताजा दौर ट्रैक्टर, मोबाइल फोन और दूसरे उपभोक्ता उत्पादों
की खरीद एनबीएफसी के कर्ज पर निर्भर थी. यहां मांग और बिक्री बुरी तरह प्रभावित
हुई है, जिसका असर इस बार त्योहारी मौसम की
खरीद पर भी दिखा. छोटे कारोबारियों के रोजमर्रा की पूंजी और माइक्रोफाइनेंस की
जरूरतें भी इस समानांतर बैंकिंग से पूरी हो रही थीं.
3. सरकार ने भले ही रिजर्व बैंक के
जरिए बैंकों से कर्ज पाइप खुलवाने की कोशिश की है, बैंकों के एनपीए का इलाज रोक दिया है
लेकिन कर्ज की महंगाई रोकना उसके बस का नहीं है. पिछले दो महीने में बैकों ने नए
कर्ज पर ब्याज दरें बढ़ाई हैं. जमा दरें कम होने की गुंजाइश नहीं है इसलिए एनबीएफसी
के साथ ही उपभोक्ताओं व कारोबारियो को मिलने वाला कर्ज भी महंगा होगा और इसके
अलावा अमेरिका व यूरोप में भी ब्याज दरें बढऩे लगी हैं.
ब्याज दरों और ग्रोथ का रिश्ता
संवेदनशील है. भारतीय अर्थव्यवस्था का ताजा इतिहास बताता है कि अगर छोटी अवधि के
कर्ज (जैसा कि अभी है) पर ब्याज दरों में बढ़त लंबे समय तक जारी रहती है तो विकास
दर में गिरावट तय है. चुनाव सामने है और सरकार का बजट बेपटरी है इसलिए नए सरकारी
निवेश की गुंजाइश कम है.
अगली तिमाही से जीडीपी यानी आर्थिक
विकास दर में ढलान शुरू हो सकती है. अगले साल फरवरी से मई तक जब देश में चुनाव का
अश्वमेध यज्ञ चल रहा होगा तब बड़ी बात नहीं कि भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर
ढलान की नई मंजिलें नाप रही हो. 2020 में विकास दर 6 फीसदी तक लुढ़कने के खतरे जायज
हैं क्योंकि तब तक वित्तीय तंत्र में बीमारियां अपने उफान पर होंगी. यानी कि
आर्थिक ग्रोथ के मामले में 2019 में हम शायद वहीं खड़े होंगे 2014 में जहां से चले
थे.