गरीबी में कमी न स्वीकारने का राजनीतिक आग्रह भारत में इतना मजबूत है कि जीवन जीने की लागत की ईमानदार पैमाइश तक नहीं होती।
योजना आयोग के मसखरेपन का भी जवाब नहीं। जब उसे राजनीति
को झटका देना होता है तो वह गरीबी घटने के आंकड़े छोड़ देता है और देश की लोकलुभावन
सियासत की बुनियाद डगमगा जाती है। गरीबी भारत के सियासी अर्थशास्त्र का गायत्री
मंत्र है। यह देश का सबसे बड़ा व संगठित सरकारी उपक्रम है जिसमें हर साल अरबों का
निवेश और लाखों लोगों के वारे-न्यारे होते है। भारत की सियासत हमेशा से मुफ्त रोजगार, सस्ता अनाज देकर वोट
खरीदती है और गरीबी को बढ़ता हुआ दिखाने की हर संभव कोशिश करती है ताकि गरीबी
मिटाने का उद्योग बीमार न हो जाए। गरीबी में कमी न स्वीकारने का राजनीतिक आग्रह
भारत में इतना मजबूत है कि जीवन जीने की लागत की ईमानदार पैमाइश तक नहीं होती। यही
वजह है कि योजना आयोग, जब निहायत दरिद्र सामाजिक आर्थिक आंकड़ो के दम पर गरीबी
घटने का ऐलान करता है तो सिर्फ एक भोंडा हास्य पैदा होता है।
भारत गरीबी के अंतरविरोधों का शानदार संग्रहालय
है जो राजनीति, आर्थिकी से लेकर सांख्यिकी तक फैले हैं। आर्थिक नीतियों का एक
चेहरा पिछले एक दशक से गरीबी को बढ़ता हुआ