सरकार अगर चाहे तो वह बहुत कम वक्त में बहुत बड़ी आबादी को गरीब बना सकती है. यह बात राजनैतिक अर्थशास्त्र के पितामह जॉन मेनार्ड केंज कहते थे जिनकी शपथ लेकर सरकारें बजट तैयार करती हैं. केंज ने बताया था कि सरकारें महंगाई बढ़ाकर आम लोगों की बचत-खपत-संपत्ति घटाकर उन्हें गरीब बना देती हैं.
महंगाई के कारण आय और खर्च की क्षमता घटने से, बीते एक बरस में देश की 97 फीसदी आबादी ‘गरीब’ हो गई है (सीएमआईई). गरीबी का मतलब फटेहाल हो जाना ही नहीं है. निर्धनता तुलनात्मक है. जो आय के जिस स्तर पर है, उसकी गरीबी उतनी ही मारक है.
महंगाई हमारे लिए नई नहीं है. कमाई और मांग बढ़ने से आने वाली महंगाई के कुछ समर्थक मिल जाएंगे. मौद्रिक पैमानों पर धन की आपूर्ति से कीमतें बढ़ती हैं लेकिन इस वक्त जब कमाई व कारोबार ध्वस्त है और सस्ता कर्ज सबकी किस्मत में नहीं है तब सरकार ही महंगाई थोप रही है.
धूमिल कहते थे कि लोहे का स्वाद लोहार नहीं, घोड़े से पूछो जिसके मुंह में लगाम है. इस महंगाई का वीभत्स असर, केवल घोड़े (आम लोग) ही नहीं लोहार (आंकड़े वाले) भी बता रहे हैं.
खाद्य सामान की कीमत एक फीसद बढ़ने से खाने पर खर्च करीब 0.33 लाख करोड़ रुपए (क्रिसिल) बढ़ जाता है. खाद्य महंगाई बीते एक साल में 9.1 फीसद (कोविड पूर्व से तीन फीसद) की दर से बढ़ी. फल-सब्जी की मौसमी तेजी को अलग रख दें तो भी खाद्य तेल, मसाले, दाल, अंडे की कीमतों ने महंगाई की कुल दर को मीलों पीछे छोड़ दिया.
मिल्टन फ्रीडमैन कहते थे कि महंगाई कानून के बिना लगाया जाना वाला टैक्स है. भारत में अधिकांश टैक्स मूल्यानुसार (एडवैलोरेम) हैं, यानी कीमत बढ़ने से टैक्स संग्रह बढ़ता है. ईंधन, बिजली, सेहत और मनोरंजन की कीमतें, बुनियादी (कोर) महंगाई हैं जो मौसमी उतार-चढ़ाव से नहीं बल्कि टैक्स या कच्चे माल की लागत से प्रभावित होती है. इस मोर्चे पर महंगाई बीते नवंबर से ही बढ़ रही है. पेट्रो उत्पादों पर टैक्स और कीमतें मंदी के जख्म पर मिर्च वाला नमक हैं.
फैक्ट्री उत्पादों की महंगाई ट्यूब से निकला टूथपेस्ट है, जिसे फिर ट्यूब में नहीं भरा जा सकता. मांग की अनुपस्थिति और कच्चे माल व ईंधन की महंगाई के कारण कंपनियों और कारोबारियों ने अधिकांश फैक्ट्री उत्पाद (कपड़े, जूते, प्रसाधन) महंगे कर दिए हैं.
महंगाई और गरीबी के ताजे रिश्ते केवल मौद्रिक नहीं हैं. सरकारों को यह आईना दिखाना जरूरी है कि—
महंगाई की नई नापजोख अलग-अलग मदों पर उपभोग खर्च की रोशनी में होनी चाहिए. पेट्रोल-डीजल की महंगाई और बीमारी के इलाज पर खर्च के कारण दूसरी जरूरतों को दरकिनार कर दिया गया है. इससे मंदी और गहराई है.
कोविड में इलाज पर लोगों ने 66,000 करोड़ रु. ज्यादा खर्च किए. कोविड से पहले तक भारतीयों के उपभोग खर्च में स्वास्थ्य पर खर्च औसत 5 फीसद होता था, जो एक साल में 11 फीसद हो गया.
जिंदगी आसान करने वाले उत्पाद और सेवाओं पर लोगों का खर्च बीते छह माह में करीब 60 फीसद कम हुआ, जिसकी वजह ईंधन पर बढ़ा खर्च है. (एसबीआइ रिसर्च)
सीएसओ ने बताया कि 2020-21
में प्रति व्यक्ति आय
8,637 रुपए घटी है. निजी और असंगठित क्षेत्र में बेरोजगारी और वेतन कटौती के कारण आय में 16,000 करोड़ रुपए की कमी आई है. (एसबीआइ रिसर्च)
महंगाई सरकारें ही बढ़ाती हैं. यह बात जॉन मेनार्ड केंज ही नहीं एक पुराने अर्थविद् फ्रेडरिक हायेक भी कहते थे, नहीं तो इस महामारी व महाबेरोजगारी के बीच दवाएं, पेट्रोल-डीजल, खाने के सामान पर टैक्स कम हो सकता था. बचत पर ब्याज दर में कटौती टाली जा सकती थी.
महंगाई बहुत कम समय में कुछ लोगों को बहुत अमीर और असंख्य लोगों को अत्यंत निर्धन कर सकती है. जैसे कि बीते सात साल में पेट्रोल-डीजल से टैक्स संग्रह 700 फीसद बढ़ा. मंदी और बेकारी के दौरान 2020-21
में सरकार ने इन ईंधनों से रिकॉर्ड 2.94 लाख करोड़ रुपए का टैक्स वसूला जबकि कंपनियों पर टैक्स में 1.45 लाख करोड़ रुपए की कमी की गई है.
भारत में खुदरा महंगाई में एक फीसद बढ़त से जिंदगी 1.53 लाख करोड़ रुपए महंगी (क्रिसिल) हो जाती है. एक बरस में खुदरा महंगाई की सरकारी (आधा- अधूरा पैमाना) सालाना दर 6.2 फीसद रही जो 2019 से करीब दो फीसद ज्यादा थी. अब यह 8 फीसद की तरफ बढ़ रही है. इसी के चलते 97 फीसद निम्न और मध्यम वर्गीय आबादी एक साल में पहले के मुकाबले गरीब हो गई है.
असंख्य सेवाएं और उत्पाद हमेशा के लिए महंगे हो चुके हैं. खपतमार और गरीबी बढ़ाने वाली महंगाई लंबी मंदी लाती है. महामारी के दौरान जब अन्य देशों ने अपने लोगों की तकलीफ कम की है तो हमारी सरकार ने ही हमें योजनाबद्ध ढंग से गरीब कर दिया. तेल (पेट्रोल-डीजल और खाद्य सामग्री) खरीदते हुए सरकार को बार-बार यह बताना जरूरी है कि उन्हें गरीबी बढ़ाने के लिए वोट नहीं दिया गया था.