यह एक डरा हुआ बजट था जो कहीं भी कुछ नया व बड़ा करने से ठिठक गया है और ठहराव व ठगे जाने का एहसास छोड़ गया है.
साहसी
होना ताकत व माहौल पर निर्भर नहीं होता इसके लिए नीयत और मंशा ज्यादा जरूरी है.
प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी ने जिस राजनैतिक साहस के साथ कश्मीर में 'परिवारवादी'
और
अलगाववादी लोगों (सज्जाद लोन)
के
साथ सरकार बना ली, वही हिम्मत बजट में नजर क्यों
नहीं आई? कश्मीर में बीजेपी के राजनैतिक दर्शन
से इतर जाने का फैसला जिस इच्छा शक्ति से निकला था, क्रांतिकारी
सुधारों भरे बजट के लिए ठीक ऐसे ही संकल्प की दरकार थी. मोदी
सरकार के नौ माह बीतने और बेहद महत्वपूर्ण बजटों (रेल
व आम बजट) के औसत होने के बाद अब यह सवाल उठना
लाजमी है कि सरकार गवर्नेंस में कोई बड़ा परिवर्तन करने की नीयत रखती भी है या बिग
आइडिया की पुकार और बदलाव के कौल केवल चुनावी जबानी जमा खर्च थे?
उपभोक्ताओं,
किसानों,
रोजगार
तलाशते युवाओं से लेकर कंपनियां और विदेशी रेटिंग एजेंसियां
(फिच, स्टैंडर्ड
ऐंड पुअर) भी इस बजट के असर को लेकर मुतमईन नहीं
हैं तो सिर्फ इसलिए क्योंकि यह एक डरा हुआ बजट था जो कहीं भी कुछ नया व बड़ा करने से
ठिठक गया है और ठहराव व ठगे जाने का एहसास छोड़ गया है.
रेलवे
व आम बजट में क्या मिला, यह सबको पता
है. मगर यह जानना बेहतर होगा कि ऐेसा क्या हो सकता
था जो इन्हें 1991 के बाद के सबसे परिवर्तनकारी बजटों
में बदल देता. बीजेपी ने जिस ठसक के साथ झारखंड में
दल बदल के जरिए सरकार बना ली, लगभग उसी
तरह के राजनैतिक साहस के आधार पर सुरेश प्रभु यह ऐलान कर सकते थे कि रेलवे अब सिर्फ रेल चलाएगी.
रेल
नीर की बोतलें भरना, पहिए-स्लीपर
बनाना, इंजन-डिब्बे
गढ़ना रेलवे का काम नहीं है. इन कारखानों
में सरकार का हिस्सा बेचकर मिले संसाधनों को रेल नेटवर्क में लगाया जा सकता था.
यह
रेलवे का मेक इन इंडिया हो सकता था. रेलवे को
इस तरह के बिग आइडिया की ही जरूरत थी जो एकमुश्त बदलाव की राह खोलता.
अब
अगर एक साल बाद भी रेलवे जस की तस रहे तो चौंकिएगा नहीं, क्योंकि
रेल नेटवर्क के
लिए पांच साल में 8.5 लाख करोड़ रु.
कहां
से आएंगे, यह खुद 'प्रभु'
भी
नहीं बता सकते.
जिस
जिद के साथ भूमि अधिग्रहण कानून पर राजनैतिक करवट बदली गई, ठीक
वैसा ही साहस खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश खोलने के फैसले पर क्यों नहीं दिखाया
जा सकता? सरकार के भीतर यह सबको मालूम है कि
2018 तक करीब 950 अरब डॉलर
पर पहुंचने वाला देश का खुदरा बाजार रोजगार का सबसे बड़ा जरिया हो सकता है.
इस
'ट्रेड इन इंडिया' में खेती
समेत तमाम क्षेत्रों के लिए संभावनाएं छिपी हैं जो कैश ट्रांसफर के साथ बढ़ने वाले
उपभोक्ता खर्च के माफिक है. खुदरा में
विदेशी निवेश को लेकर बीजेपी को सिर्फ अपने स्वदेशी कुनबे को मनाना था,
जो
भूमि अधिग्रहण की कंटीली राह से ज्यादा आसान होता. सरकार
को कारोबार से बाहर निकलने और गवर्नेंस करने की सलाह देने वाले प्रधानमंत्री अगर एअर
इंडिया, भारत संचार निगम,
बीमा
निगम जैसी कंपनियों के विनिवेश का ऐलान नहीं कर पाए तो यह सिर्फ कमजोर इच्छा शक्तिका नमूना है.
बजट
के आंकड़े मोदी सरकार से की गई उम्मीदों की चुगली खाते हैं.
मुफ्तखोरी
पर बाहें फटकारने के विपरीत बजट में गैर पेट्रो सब्सिडी का बिल जस का तस है.
सरकार
उन्हीं पुरानी समाजिक सुरक्षा स्कीमों पर लौट आई, जिनकी
विफलता प्रामाणिक है. खर्च तो शिक्षा व स्वास्थ्य
पर कम हुआ है जो आम जनता के लिए मोदी की 'मन की बातों'
का
ठीक उलटा है. राज्यों को संसाधनों के हस्तांतरण
के नए मॉडल से सहमत होने के लिए साधुवाद, अलबत्ता वित्त
आयोग की सिफारिशें इस बदलाव का जरिया बनी हैं जिन्हें कोई भी सरकार स्वीकार करती.
रियायतों
के बावजूद कंपनियां और विदेशी एजेंसियां अगर बजट पर मुतमईन नहीं हो पा रही हैं तो वजह
यही है कि मोदी-अरुण जेटली आर्थिक सुधारों के अगले
चरण का वादा करते हुए आए थे, न कि एक कामचलाऊ
और कतरब्योंत वाले बजट का. मोदी-जेटली
को यह याद रखना होगा कि टुकड़ों-टुकड़ों में
बदलावों पर शक-शुबहे होते हैं लेकिन बड़े व एकमुश्त
सुधार सरकार को साहसी साबित करते हैं. यूपीए सरकार
के डायरेक्ट कैश ट्रांसफर या आधार स्कीमों को स्वीकारना उदारता का प्रमाण है लेकिन
इनसेआगे न बढ़ पाना इस बात का प्रमाण भी है कि नई सरकार यथास्थिति को बेहतर करने से
ज्यादा का साहस नहीं जुटा सकी. यही वजह है
कि बजट की सामाजिक स्कीमों के अमल पर ठीक वैसे ही शक हैं जैसे कि यूपीए के साथ थे और
बजट के आंकड़ों में ठीक वैसा ही लोचा है जैसा कि हमेशा से होता आया है.
चिंता
यह नहीं है कि बजट औसत है बल्कि निराशा इस बात की है कि मोदी सरकार जिस नई और बड़ी
सूझ का भरोसा देकर सत्ता में आई थी वह नौ माह में कहीं नहीं दिखी.
पिछले
साल दिसंबर में हमने इस स्तंभ में लिखा था कि सरकारों को हमेशा उलटी तरफ से देखना बेहतर
होता है, क्योंकि पांच साल का समय बहुत ज्यादा
नहीं होता. मोदी सरकार के पास अब केवल दो बजट
बचे हैं. दो कीमती बजट यूं ही गुजर गए.
जुलाई
के बजट में सरकार का एजेंडा आना चाहिए था और इस बजट में ऐक्शन प्लान.
2016 के बजट में सुधारों का असर आंक कर संतुलन की कोशिश होती और
2017 में नए कदम उठाए जाने चाहिए थे क्योंकि 2018 का
बजट चुनावी होगा और 2019 का बजट नई सरकार पेश करेगी.
लोगों
ने मोदी सरकार से तारे तोड़ने की अपेक्षा नहीं जोड़ी थी. उम्मीद
सिर्फ यही
थी कि कारोबार और जिंदगी की सूरत बदलनी चाहिए. अब
चाह कर भी बहुत कुछ करने का वक्त नहीं है क्योंकि अगले दो बजट तो बस गलतियां सुधारते
ही बीत जाएंगे.