अर्थार्थ
आपने खूब कमाया इसलिए महंगाई ने आपको नोच खाया !!...हजम हुई आपको वित्त मंत्री की सफाई ?...नहीं न? हो भी कैसे। हम ताजे इतिहास की सबसे लंबी और जिद्दी महंगाई का तीसरा साल पूरा कर रहे हैं और सरकार हमारे जखमों पर मिर्च मल रही है। हमारी भी खाल अब दरअसल मोटी जो चली है क्यों कि पिछले दो ढाई वर्षों में हमने हर रबी-खरीफ, होली-ईद, जाड़ा गर्मी बरसात, सूखा-बाढ़, आतंक-शांति, चुनाव-घोटाले और मंदी-तेजी महंगाई के काटों पर बैठ कर शांति से काट जो चुके है। वैसे हकीकत यह है कि उत्पादन व वितरण का पूरा तंत्र अब पीछे से आई महंगाई को आगे बांटने की आदत डाल चुका है। उत्पादक, निर्माता, व्यापारी और विक्रेता महंगाई से मुनाफे पर लट्टू हैं नतीजतन बेतहाशा मूल्य वृद्धि अब भारत के कारोबार स्थायी भाव है। यह सब इसलिए हुआ है क्यों कि पिछले दो वर्षों में अर्थव्यंवस्था के हर अहम व नाजुक पहलू पर बारीकी और नफासत के साथ महंगाई रोप दी गई है। कहीं यह काम सरकारों ने जानबूझकर किया और तो कहीं इसे बस चुपचाप हो जाने दिया है। लद गए वह दिन जब महंगाई मौसमी, आकस्मिक या आयातित ( पेट्रो मूल्य) होती थी अब महंगाई स्थायी, स्वाभाविक, सुगठित और व्यवस्थागत है। छत्तीस करोड़ अति निर्धनों, इतने ही निर्धनों और बीस करोड़ निम्न मध्यमवर्ग वाले इस देश में कमाई से महंगाई बढ़ने का रहस्य तो सरकार ही बता सकती है आम लोग तो बस यही जानते हैं कि महंगाई उनकी कमाई खा रही है और लालची व्यापारियों व संवेदनहीन सत्ता तंत्र की कमाई की बढ़ाने के काम आ रही है।
कीमत बढ़ाने का कारोबार
महंगाई की सूक्ष्म कलाकारी को देखना जरुरी है क्यों कि निर्माता, व्यापारी और उपभोक्तां इसके टिकाऊ होने पर मुतमइन हैं। जिंस या उत्पाद को कुछ बेहतर कर उसका मूल्य यानी वैल्यूं एडीशन आर्थिक खूबी या सद्गुण है लेकिन किल्लत वाली अर्थव्यवस्थाओं में यह बुनियादी जिंसों की कमी कर देता है। भारत में खाद्य उत्पाद इसी दुष्चक्र के शिकार हो चले हैं क्यों कि बुनियादी जिंसों की पैदावार पहले ही मांग से बहुत कम है। संगठित रिटेल ने बहुतों को रोजगार और साफ सुथरी शॉपिंग का मौका भले ही दिया हो लेकिन वह इसके बदले वह