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Saturday, April 9, 2022

कंपन‍ियां डुबाने की आदत

 


 

स्‍पाइस जेट के विमान में ताजा ट्रेंड पर इंस्‍टारील बना रही एयरहोस्‍टेस को पता ही नहीं होगा कि उसकी कंपनी के वित्‍तीय खातों में धांधली के सवाल क्‍यों उठ रहे हैं. क्‍यों ब्‍लैकरॉक , जो दुनिया की सबसे बडी एसेट मैनेजर ने कंपनी है उसने स्‍पाइस जेट में वित्‍तीय अपारदर्शिता के सवाल उठाये हैं. सवाल ही नहीं उसने तो कंपनी की ऑडिट कमेटी में चेयरमैन के खास प्रत‍िन‍िध‍ि नियुक्‍त करने के प्रस्‍ताव पर भी वीटो ठोंक दिया है  

पता तो जेट एयरवेज के 20,000 से अधिक कर्मचारियों को भी नहीं चला था कि उनकी कंपनी के मालिक या बोर्ड ने ऐसा क्या कर दिया जिससे कंपनी के साथ उनकी जिंदगी का सब कुछ डूब गया.

भारत में अब दो तरह की कंपन‍ियां हैं एक जिनके फ्रॉड और तमाम धतकरम हमें पता हैं दूसरी वह कंपन‍ियां जिनके भीतर घोटाले तो हैं लेक‍िन हमे जानकारी नहीं है.

देश का सबसे ख्‍यात आधुन‍िक स्‍टॉक एक्‍सचेंज भी तो एक कंपनी ही है जिसने खास ब्रोकरों को आम निवेशकों से पहले बाजार में कारोबार करने की तकनीकी सुव‍िधा देकर देश की साख मिट्टी में मिला थी. पारदर्श‍िता जिस एक्‍सचेंज की बुनियादी जरुरत है उसे कोई रहस्‍यमय गुरु चला रहा था !

 

यह सूरते हाल उतनी ही निराश करती है जितनी क‍ि हताश करती है भारत की राजनीति! यानी क‍ि सत्‍यम के घोटाले यानी 2009 के बाद भारत में कुछ भी नहीं बदला.

सत्‍यम ही क्‍यों ? क्‍यों कि इसे भारत का एनरॉन मूमेंट कहा गया था.

एबीजी श‍ि‍पयार्ड जैसों की खबरें पढ़ने के बाद किसी को कागज़ी कंपन‍ियां, खातों में हेराफेरी, कर्ज को छ‍िपाने जैसे धतकरम सामान्‍य नज़र आएंगे. एनरॉन ने भी यही किया था लेक‍िन  वाल स्‍ट्रीट की डार्ल‍िंग एनरॉन के सन 2000 अमेरिका के इतिहास के सबसे बड़े फर्जीवाड़े में पकडे जाने के बाद सरकार थरथरा गई. अमेरिका ने  एनरॉन जैसा घोटाला नहीं देखा था नियामक शार्मिंदा हुए. राष्‍ट्रपति जॉर्ज बुश की बड़ी किरक‍िरी हुई.

अमेरिका में कंपनियों के लिए बेहद सख्‍त सरबेंस ऑक्‍सले एक्‍ट आया. पारदर्श‍िता के कठोर नियम तय क‍िये गए. अकाउंट‍िंग की प्रणाली बदली गई. इसके बाद कारपोरेट दुनिया में बहुत कुछ बदल गया. ठीक इसी तरह लेहमैन ब्रदर्स डूबा  तो डॉड फ्रैंक कानून लाया गया था.

पूरी दुनिया में कंपनी फ्रॉड, भ्रष्‍टाचार, फर्जीवाड़े को लेकर सक्रियता बढी, कानून बदले और सख्‍ती बढ़ी. इसके बाद से कम से कम यह अर्थात लिखे जाने तक तो अमेरिका में एनरॉन या लेहमैन नहीं दोहराया गया ..

भारत में भी सत्‍यम घोटाले के बाद बहुत कुछ बदला था.  तत्‍कालीन कैबिनेट सच‍िव नरेश चंद्रा की अध्‍यक्षता में एक सम‍ित‍ि की सिफार‍िश पर कारपोरेट गवर्नेंस की नई व्‍यवस्‍था आई थी. नैसकॉम  की समिति ने ऑड‍िट, शेयरधारकों के अध‍िकार घोटाले की सूचना देने वाले (व्‍हि‍सल ब्‍लोअर) के संरंक्षण के नियम सुझाये गए.

सेबी की अकाउंट‍िंग व डिस्‍क्‍लोजर कमेटी ने शेयरों को बाजार में सूचीबद्ध कराने के लिए नियमों (आर्ट‍िक‍िल 49) बदलाव किये.

कंपनी कानून में बदलाव कर कारपोरेट फ्रॉड को आपराधिक मामलों में शाम‍िल किया गया. धोखाधड़ी रोकने के लिए निदेशकों नई जिम्‍मेदारी तय की गई. चार्टर्ड अकाउंटेंट इंस्‍टीट्यूट ने फ्रॉड की रिपोर्ट‍िंग के नया न‍ियम बनाये और यहां तक क‍ि और वित्‍तीय मामलों की जांच का सीबीआई यानी सीरियस फ्रॉड ऑफ‍िस बनाया गया ...

सबसे बड़ा बदलाव ऑडिट को लेकर हुआ था. कहते हैं अगर आंकड़ों से पूछताछ की जाए तो वह सच उगल देते हैं. इसलिए भारत में फोरेंस‍िक ऑडिट की शुरुआत हुई.  पंजाब नेशनल बैंक के साथ नीरव मोदी का फ्रॉड हो या आईएलएफस के खातों में हेरफेर या क‍ि एबीजी शिपयार्ड की फर्जी कंपनियां यह सब पता चला जब ऑडिटर्स और रेटिंग एजेंसियों की चोरी व धोखाधड़ी पकड़ने के लिए फोरेंस‍िक ऑड‍िट शुरु हुए.  यहां तक कि नेशनल स्‍टॉक एक्‍सचेंज का वह रहस्‍यमय गुरु भी इसी ऑड‍िट के सहारे दस्‍तावेजों की गुफा से बाहर निकला है.

 

ऑडिट की यह किस्‍म खातों में आपराध‍िक हेरफेर, पैसे के अवैध लेन देन और फ्रॉड के प्रमाणों को अदालत तक ले जाने पर आधार‍ित है. रिजर्व बैंक 2016 तक इस ऑडिट के नियम दुरुस्‍त कर दिये थे. फंसे हुए कर्ज के बड़े मामलों की फोरेंस‍िक जांच जरुरी बना दी गई. सेबी ने लगातार न‍ियमों को चुस्‍त किया. 2020 के सबसे ताजे आदेश में कंपन‍ियों पर फ्रॉड रोकने के नए नियम बनाने और अकाउंट‍िंग में बदलाव की शर्तें लगाईं गईं.

 

यहां तक आते आते आपको बेचैनी महसूस होने लगी होगी क्‍यों क‍ि अगर नसीहतें ली गईं थी, कानून बदले गए थे. यद‍ि कॉर्पोरेट गवर्नेंस यानी कंपनी को चलाने के नियम इतने चुस्‍त  हैं तो फिर कंपन‍ियां डुबाने हेाड़  क्‍यों लगी है ?

जेट एयरवेज, एडीएजी (अनिल अंबानी समूह),  वीडियोकॉनसहारामोदीलुफ्तरोटोमैकजेपी समूहनीरव मोदीगीतांजलि जेम्सजेट एयरवेजकिंगफिशर,  यूनीटेकआम्रपालीआइएलऐंडएफएस, स्टर्लिंग बायोटेकभूषण स्टील, कैफे कॉफी डे, एबीजी शिपयार्ड  ..... एसा लगता हैं क‍ि  भारत के निजी प्रवर्तक तो आत्मघाती हो गए हैं. 

 

घोटाले के केवल सुर्खि‍यों में ही नहीं आंकड़ों में भी दिखते हैं. रिजर्व बैंक के दस्‍तावेज बताते हैं कि कुल बैंक फ्रॉड में सबसे बड़ा हिस्‍सा कर्ज से जुड़े मामलों का था और 2017-18 से 2018-19 के बीच तीन गुना बढ़ गए. यानी 2.52 लाख करोड़ रुपये से बढ़कर 6.45 लाख करोड़.

आख‍िर वजह क्‍या है कि इतने सब कानूनी उपायों के बावजूद प्रत्‍येक उद्योग में घोटालों की झड़ी लगी है. सत्‍यम से लेकर एबीजी श‍िपयार्ड और नेशनल स्‍टॉक एक्‍सचेंज तक अगर सभी घोटालों को करीब से देखा जाए तो सबमें एक ही जैसे तरीके,कारगुजारी और फर्जीवाड़ा दिखता है

1. बैंकों से कर्ज लेकर फर्जी कंपनियों में घुमा देना और कुछ का कुछ कारोबार करना

2. कर्ज को छ‍िपा कर नया कर्ज लेते रहना

3. कभी कमाई तो कभी खर्च को बढाचढ़ाकर दिखाना

4. कंपनी के खातों में तरह तरह से हेरफेर

5. नियामकों को सही सूचना देने बचना

6. ऑडिटर्स बेइमानी जो कि दरसअल सच बताने के लिए लगाये जाते हैं

 

ऊपर के छह ब‍िंदुओं में एक भी एसा नहीं जिसके लिए नियमों में लोचा हो. अगर कंपनी के मालिक प्रबंधक चाहें तो यह सब रुक सकता है लेक‍िन फर्जीवाड़ा कंपनियों के प्रवर्तक खुद कर रहे हैं. राजनीतिक रसूख, नियामकों से लेनदेन और बैंकरों की मिलीभगत इसमें सबसे ज्‍यादा लूट बैंकों के पैसे की होती है, प्रवर्तक तो अपनी पूंजी जोख‍िम में डालता ही नहीं.

इंडिगो या फोर्टिस में विवाद के बाद कंपनियों में कॉर्पोरेट गवर्नेंस की कलई खुली. वीडियोकॉन को गलत ढंग से कर्ज देने के बाद भी चंदा कोचर आइसीआइसीआइ में बनी रहींयेस बैंक के एमडी सीईओ राणा कपूर को हटाना पड़ा या कि आइएलऐंडएफएस ने कई सब्सिडियरी के जरिए पैसा घुमाया और बैंक का बोर्ड सोता रहा

भारतीय कंपनियों के प्रमोटरपैसे और बैंक कर्ज के गलत इस्तेमाल के लिए कुख्यात हो रहे हैंआम्रपाली के फोरेंसिक ऑडिट से ही यह पता चला कि मालिकों ने चपरासी और निचले कर्मचारियों के नाम से 27 से ज्यादा कंपनियां बनाईजिनका इस्तेमाल हेराफेरी के लिए होता था

ताकतवर प्रमोटरबैंकरेटिंग एजेंसियों और ऑडिट के साथ मिलकर एक कार्टेल बनाते हैं प्रवर्तकों के कब्जे के कारण स्वतंत्र निदेशक नाकारा हो जाते हैंनियामक ऊंघते रहते हैंकिसी की जवाबदेही नहीं तय हो पाती और अचानक एक दिन कंपनी इतिहास बन जाती है.

 

इसल‍िए बीते एक दशक में भारत में खराब कॉर्पोरेट गवर्नेंस से जितनी बड़ी कंपनियां डूबी हैंया समृद्धि का विनाश (वेल्थ डिस्ट्रक्शनहुआ है वह मंदी से होने वाले नुक्सान की तुलना में कमतर नहीं है.

दरअसलयह तिहरा विनाश है.

एकशेयर निवेशक अपनी पूंजी गंवाते हैंजैसेकई  दिग्गज  कंपनियों के शेयर अब पेनी स्‍टॉक बन गए हैं

दोइनमें बैंकों की पूंजी डूबती है जो दरअसल आम लोगों की बचत है और

तीसराअचानक फटने वाली बेकारी जैसे जेट एयरवेज, .

कंपनियों में खराब गवर्नेंस पर सरकारें फिक्रमंद नहीं होतीं. उन्हें तो इनसे मिलने वाले टैक्स या चुनावी चंदे से मतलब हैप्रवर्तकों का कुछ भी दांव पर होता ही नहींडूबते तो हैं रोजगार और बैंकों का कर्जमरती है बाजार में प्रतिस्पर्धाजाहिर है कि इससे किसी नेता की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता.

सनद रहे कि कंपनियों का बुरा प्रबंधनखराब सरकार से ज्‍यादा सरकार को तो फिर भी बदला जा सकता है लेकिन कंपनियों का खराब प्रबंधन उन्‍हें डुबा ही देता है.

भारत पूंजीवाद की साख बुरी तरह दागी हो रही है, अगर कंपन‍ियों ने कामकाज को पारदर्शी नहीं क‍िया तो सुधारों और मुक्‍त बाजार से लोगों की चिढ़ और बढ़ती जाएगी.

 

Friday, November 27, 2020

तिजोरीभर सवाल

 


बीती सदी के सबसे बड़े आविष्कारों की सूची पेंसिलीन के बिना पूरी नहीं होगी. लेकिन इस जीवन रक्षक ऐंटीबायोटिक के आविष्कारक अलेक्जेंडर फ्लेमिंग (1881-1955) का यह डर भी सही साबित हुआ, ऐंटीबायोटिक के अति उपयोग के कारण जीवन पर खतरा छा जाएगा.

अच्छे से अच्छा सुधार भी अधिकतम सीमा तक प्रयोग होने के बाद जोखिम से भर जाता है, जैसे कि बैंकिंग में निजीकरण. तभी तो भारतीय उदारीकरण के इतिहास में शायद पहली बार निजीकरण के धुर समर्थक भी रिजर्व बैंक की एक समिति की इस सिफारिश से सहमत नहीं हो पा रहे हैं कि बड़े औद्योगिक घरानों को बैंक खोलने की छूट दी जानी चाहिए. देशी-विदेशी एजेंसियां (स्टैंडर्ड ऐंड पुअर) भी इस रिपोर्ट से असहमत और सुझावों पर आशंकित हैं.

निजी कॉर्पोरेट घरानों के बैंकिंग में उतरने पर डर क्या हैं? इनसे पहले यह समझना जरूरी है कि इस रिपोर्ट के जरिए नीति निर्माता सोच क्या रहे हैं.

भारत की बैंकिंग दुनिया के मुकाबले और देश के जीडीपी की तुलना में बहुत छोटी (70 फीसद, ग्लोबल औसत जीडीपी के बराबर या ज्यादा) है

निजी बैंकिंग सफल है, जमा और कर्ज में निजी बैंकों का हिस्सा 1995 से 2020 में तीन गुना (12.56 से 36 फीसद) बढ़ गया है

शेयर बाजार में निजी बैंकों के रिटर्न बेहतर हैं, इसलिए उन्होंने बीते पांच वर्षों में बाजार से 1.15 लाख करोड़ रु. जुटाए हैं जबकि सरकारी बैंक केवल 70,000 करोड़ रु. जुटा सके.

रिजर्व बैंक की समिति बैंकिंग बाजार में निजीकरण को तेज करने के हक में है लेकिन यह ज्यादा से ज्यादा बचतों को निजी बैंकों तक पहुंचाए बिना संभव नहीं है. इसलिए निजी क्षेत्र को नए बैंकिंग लाइसेंस की सिफारिश की गई है. बचत बाजार में सरकारी बैंक करीब 60 फीसद हिस्सा लिए बैठे हैं. चालू खाता और बचत खाता (कासा) बचतें बीते दस साल में क्रमश: 8.7 फीसद और 13.9 फीसद गति से बढ़ी हैं.

अलबत्ता बचतों का प्रस्तावित कंपनीकरण जोखिम भरा है. बैंकों में निजी क्षेत्र की सक्रियता और दूसरे कारोबारों के निजीकरण में फर्क है. अचरज नहीं कि रिजर्व बैंक की जिस समिति ने यह सिफारिश की है, उसमें चार में तीन सदस्य इस सुझाव के पूरी तरह खिलाफ थे.

बड़ी कंपनियां कारोबार के लिए बैंकों से कर्ज लेती हैं. इसलिए उन्हें सीधे बैंकिंग में उतरने से रोका जाता है. रघुराम राजन और विरल आचार्य (रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर व डिप्टी गवर्नर) मानते हैं, बेहद सतर्क नियामक भी कॉर्पोरेट बैंकों को इस बात से नहीं रोक सकते कि वे बचत का इस्तेमाल अपनी कंपनियों को कर्ज देने में नहीं करेंगे. इसी वजह से 2013 में लाइसेंस नियम उदार होने के बावजूद किसी बड़े कॉर्पोरेट को बैंकिंग लाइसेंस नहीं मिला. केवल दो लाइसेंस (बंधन और आइडीएफसी) मंजूर हुए.

येस बैंक ने जिस तरह आंख बंद कर कर्ज बांटे और डुबाए या लक्ष्मी विलास बैंक के लिए उबारने के सिंगापुर के डीबीएस को बेचना पड़ा, उसके बाद तो मौजूदा निजी बैंकों के कामकाज और रिजर्व बैंक की निगरानी ही सवालों के घेरे में है.

देश में कॉर्पोरेट गवर्नेंस बदहाल है तो उन्हें बैंकिंग में प्रवेश क्यों?

यह कवायद सरकारी बैंकों के निजीकरण की भूमिका हो सकती है जिन्हें खरीदने के लिए बाजार में नए निजी बैंक चाहिए क्योंकि मौजूदा प्राइवेट बैंक इतने सक्षम नहीं हैं. विदेशी बैंकों को बुलाने पर स्वदेशी गुब्बारा फूट जाएगा. यही वजह है कि बड़े औद्योगिक घरानों और गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) को बैंकिंग लाइसेंस देने, वर्तमान निजी बैंकों पर प्रवर्तकों का नियंत्रण बढ़ाने और पेमेंट बैंक को समग्र बैंक में बदलने की सिफारिश की गई है.

इन सिफारिशों का संकेत है कि सरकारी बैंकों की संख्या घटेगी. लेकिन सरकार आम बचत को बैंकों के जरिए कंपनियां में पहुंचाने और आर्थिक ताकत को कुछ हाथों में केंद्रित क्यों करना चाहती है? सरकारी बैंकों के शेयर जनता को बेचे जाएं और उन्हें पेशेवर ढंग से चलाया जाए, इसमें क्या हर्ज है?

अर्थव्यवस्थाओं का इतिहास बताता है कि यदि अतीत और वर्तमान को सही ढंग से न समझा जाए तो अच्छे से अच्छा सुधार या प्रयोग भविष्य को तबाह कर देता है. सोना आज भी संकट में चमकता है, विश्व के बैंक आज भी सोने के भंडार रखते हैं लेकिन अब कोई विंस्टन चर्चिल वाली गलती नहीं करता. विश्व युद्ध के बाद 1925 में वित्त मंत्री के तौर पर चर्चिल ने पाउंड को सोने से बदलने की छूट (गोल्ड स्टैंडर्ड) दे दी. ब्रिटेन का सोना फ्रांस जाने लगा. इस बीच 1929 की महामंदी आई और ब्रिटेन की रीढ़ टूट गई. 1931 में यह फैसला वापस लिया गया.

बाबा तुलसी सिखा गए हैं कि ग्रह, दवा, पानी, कपड़ा और वायु संयोग और दुर्योग के आधार पर अच्छे या बुरे बनते हैं. भारतीय बैंकिंग का ताजा अतीत तिजोरीभर नसीहतों के साथ इशारा कर रहा है कि बड़े धोखे हैं इस राह में.

Saturday, December 28, 2019

अवसरों का अंतिम दशक


हमारे फैसलों के नतीजे अक्सर बेहद जटिल और बहुआयामी होते हैं...इसलिए भविष्य को जान पाना बहुत कठिन हो जाता है.’’ जे.के. राउलिंग (हैरी पॉटर ऐंड प्रिजनर ऑफ अज्कबान) ने ठीक पकड़ा था भविष्य को. हम भी तो अपने कदमों के नतीजे कहां समझ पाए और...2020 गया.

2020 यानी भारत के लिए अवसरों के आखिरी दशक की शुरुआत हो रही है.

2020 की मंजिल वैज्ञानिक और पूर्व राष्ट्रपति डॉ. .पी.जे. अब्दुल कलाम ने तय की थी जिससे प्रेरणा लेकर तब के योजना आयोग ने पांच साला योजनाओं से परे 2002 में भविष्य का रोडमैप (विजन 2020) बनाया था, जिसमें एक दशक की उपलब्धियों के आधार पर अगले दो दशकों की चुनौतियों को मापा गया था. सरकारी लक्ष्यों में राजनैतिक सुविधा के हिसाब से बदलावों के बीच, विजन 2020 उम्मीदों की एक सुहानी मंजिल की तरह टंगा रहा है क्योंकि आर्थिक उदारीकरण के बाद के वर्षों में शायद यह इकलौता दस्तावेज है जिसमें तर्कसंगत आकलन के साथ दूरगामी लक्ष्य तय किए गए थे.

दस्तावेज पुराना है लेकिन अवसरों के आखिरी दशक पर निगाह डालने के लिए 2002 में तय की गई कई मंजिलों के संदर्भ बेहद कारगर हैं. बाद के दशकों में, यही लक्ष्य अलग संख्याओं और व्याख्याओं में बंधकर हमारे पास आते रहे हैं.

मसलन, 2020 तक गरीबी दूर करने के लिए 2002 के बाद हर साल 8-9 फीसद की विकास दर का लक्ष्य तय किया गया था. हम यह विकास दर नहीं हासिल कर सके. 2020 तक बेकारी को पूरी तरह समाप्त करने का लक्ष्य था क्योंकि तब तक जीवन प्रत्याशा दर 69 वर्ष तक पहुंच जानी थी. बुढ़ापे के मामले में हम लगभग इसी मुकाम पर हैं. 

इन सुहाने सपनों और चुभती सचाइयों के बीच भारत अपने सबसे मूल्यवान आखिरी दशक की राह में तीन बहुत बड़ी चुनौतियों से मुकाबिल है.

·       आर्थिक विकास यानी प्रति व्यक्ति जीडीपी के मामले में 2020 की शुरुआत में हम ठीक वहीं खडे़ हैं जहां चीन 2003-04 में खड़ा था.  ग्लोबल निवेशकों से लेकर देशी कारोबारियों तक किसी को यह उम्मीद नहीं है कि भारत अगले दशक में दस फीसद यानी दहाई की विकास दर हासिल कर सकेगा.

बेहतर सुधारों की शर्त पर सात फीसद की विकास दर मुमकिन है लेकिन अब अगले वर्षों में दुनिया भारत को इसकी वास्तविक विकास दर (महंगाई रहित) की रोशनी में आंकेगी. अगर यह दर 5 फीसद के आसपास रही तो फिर एक-तिहाई आबादी कभी भी बेहतर खपत की तरफ नहीं बढ़ पाएगी. बेकारी, गरीबी को लेकर इस दशक के लक्ष्य भरोसेमंद नहीं रह पाएंगे. जरूरी सामान और अन्य चीजों की खपत में गिरावट होगी. और निवेशकों (शेयर बाजार, उद्येाग) के लिए लंबी अवधिमें बहुत उम्मीदें नहीं बचेंगी.

·       अगले एक दशक में आर्थि विकास दर की यह तस्वीर हमें दूसरे बड़े बदलाव की तरफ देखने पर मजबूर करती है. तेज विकास के लिए भारत का सबसे बड़ा संसाधन उसके युवा रहे हैं. लेकिन अब हम बुढ़ाते हुए समाज की तरफ यात्रा प्रारंभ कर रहे हैं. हिमाचल प्रदेश, पंजाब, पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र में युवा आबादी घटने लगी है. हमारे पास युवा आबादी का लाभ लेने का यह अंतिम दशक है. 2021 से 2031 के बीच भारत की कामगार आबादी हर साल 97 लाख लोगों की दर से बढ़ेगी. इस बीच बड़ी आबादी रिटायर होगी जिसे सेवाएं देने के लिए इस युवा आबादी को बचत और खपत (टैक्स) बढ़ानी होगी.

·       कमजोर ग्रोथ और बुढ़ाती आबादी के आगामी दशक के बीच गवर्नेंस उम्मीदें तोड़ रही है. निराशा केवल सरकार को लेकर ही नहीं, हर तरह की गवर्नेंस को लेकर है. 2020 की शुरुआत में भारत का राजनैतिक नक्शा केंद्र और राज्यों के बीच युद्ध के संभावित मैदान में तब्दील हो चुका है. सरकारें सक्षम होने के बजाए टैक्स पचाकर फूल रही हैं, भ्रष्ट हो रही हैं और लोगों की बचत (सरकारी खर्च) के बूते अपने सियासी संगठन पाल रही हैं. स्वतंत्र नियामकों का गठन और मौजूदा नियामकों को नई ताकत देने के एजेंडे पीछे छूट चुके हैं. गवर्नेंस का क्षरण राज्यों से होता हुआ स्थानीय संस्थाओं तक पहंच चुका है.

भारत की कॉर्पोरेट गवर्नेंस भी उतने ही बुरे दौर में है. कागजों पर सबसे अच्छे कानूनों के बावजूद पिछले एक दशक में कई बड़ी कंपनियों के निदेशकों ने हर तरह का धतकरम किया और निवेशकों कर्मचारियों के सपनों को आग लगाई है. इस गवर्नेंस का क्षरण और शून्य हमें कई क्षेत्रों में निजी एकाधिकार की तरफ ले जा रहा है. अगला एक दशक इस लिहाज से बेहद संवेदनशील होने वाला है. 

भविष्य कभी हमारे मन मुताबिक नहीं आता. सो, 2020 भी अफरातफरी और आर्थि संकट के बीच धप्प से कूद पड़ा. हमें इस समय सब कुछ बदलने वाले तेज रफ्तार सुधारों की जरूरत है. एक देश के तौर पर  हम समय के उस मोड़ पर हैं जहां वर्तमान कुछ नहीं होता. वक्त या तो तुरंत आने वाला भविष्य होता है अथवा अभी बीता हुआ कल (अमेरिकी कॉमेडियन जॉर्ज कार्लिन). 2020 का पहला सूरज हमारे लिए सबसे निर्णायक उलटी गिनती की शुरुआत लेकर आया है, क्योंकि अवसरों के भंडार में अब केवल दस साल बचे हैं...

केवल दस साल!