स्पाइस जेट के विमान में ताजा ट्रेंड पर इंस्टारील
बना रही एयरहोस्टेस को पता ही नहीं होगा कि उसकी कंपनी के वित्तीय खातों में
धांधली के सवाल क्यों उठ रहे हैं. क्यों ब्लैकरॉक , जो दुनिया की सबसे बडी एसेट मैनेजर ने कंपनी है उसने स्पाइस जेट में वित्तीय
अपारदर्शिता के सवाल उठाये हैं. सवाल ही नहीं उसने तो कंपनी की ऑडिट कमेटी में
चेयरमैन के खास प्रतिनिधि नियुक्त करने के प्रस्ताव पर भी वीटो ठोंक दिया है
पता तो जेट एयरवेज के 20,000 से अधिक कर्मचारियों को भी नहीं चला था कि उनकी कंपनी के मालिक या बोर्ड
ने ऐसा क्या कर दिया जिससे कंपनी के साथ उनकी जिंदगी का सब कुछ डूब गया.
भारत में अब दो तरह की कंपनियां हैं एक जिनके फ्रॉड
और तमाम धतकरम हमें पता हैं दूसरी वह कंपनियां जिनके भीतर घोटाले तो हैं लेकिन
हमे जानकारी नहीं है.
देश का सबसे ख्यात आधुनिक स्टॉक एक्सचेंज भी तो
एक कंपनी ही है जिसने खास ब्रोकरों को आम निवेशकों से पहले बाजार में कारोबार करने
की तकनीकी सुविधा देकर देश की साख मिट्टी में मिला थी. पारदर्शिता जिस एक्सचेंज
की बुनियादी जरुरत है उसे कोई रहस्यमय गुरु चला रहा था !
यह सूरते हाल उतनी ही निराश करती है जितनी कि हताश
करती है भारत की राजनीति! यानी कि सत्यम के
घोटाले यानी 2009 के बाद भारत में कुछ भी नहीं बदला.
सत्यम ही क्यों ? क्यों कि इसे भारत का एनरॉन मूमेंट कहा गया था.
एबीजी शिपयार्ड जैसों की खबरें पढ़ने के बाद किसी
को कागज़ी कंपनियां, खातों में हेराफेरी,
कर्ज को छिपाने जैसे धतकरम सामान्य नज़र आएंगे. एनरॉन ने भी यही
किया था लेकिन वाल स्ट्रीट की डार्लिंग
एनरॉन के सन 2000 अमेरिका के इतिहास के सबसे बड़े फर्जीवाड़े
में पकडे जाने के बाद सरकार थरथरा गई. अमेरिका ने
एनरॉन जैसा घोटाला नहीं देखा था नियामक शार्मिंदा हुए. राष्ट्रपति जॉर्ज बुश की बड़ी किरकिरी हुई.
अमेरिका में कंपनियों के लिए बेहद सख्त सरबेंस ऑक्सले
एक्ट आया. पारदर्शिता के कठोर नियम तय किये गए. अकाउंटिंग की प्रणाली बदली गई.
इसके बाद कारपोरेट दुनिया में बहुत कुछ बदल गया. ठीक इसी तरह लेहमैन ब्रदर्स
डूबा तो डॉड फ्रैंक कानून लाया गया था.
पूरी दुनिया में कंपनी फ्रॉड, भ्रष्टाचार, फर्जीवाड़े को लेकर सक्रियता बढी,
कानून बदले और सख्ती बढ़ी. इसके बाद से कम से कम यह अर्थात लिखे
जाने तक तो अमेरिका में एनरॉन या लेहमैन नहीं दोहराया गया ..
भारत में भी सत्यम घोटाले के बाद बहुत कुछ बदला था. तत्कालीन कैबिनेट सचिव नरेश चंद्रा की अध्यक्षता
में एक समिति की सिफारिश पर कारपोरेट गवर्नेंस की नई व्यवस्था आई थी. नैसकॉम की समिति ने ऑडिट, शेयरधारकों के अधिकार घोटाले की सूचना देने वाले (व्हिसल ब्लोअर) के
संरंक्षण के नियम सुझाये गए.
सेबी की अकाउंटिंग व डिस्क्लोजर कमेटी ने शेयरों
को बाजार में सूचीबद्ध कराने के लिए नियमों (आर्टिकिल 49) बदलाव किये.
कंपनी कानून में बदलाव कर कारपोरेट फ्रॉड को आपराधिक
मामलों में शामिल किया गया. धोखाधड़ी रोकने के लिए निदेशकों नई जिम्मेदारी तय की
गई. चार्टर्ड अकाउंटेंट इंस्टीट्यूट ने फ्रॉड की रिपोर्टिंग के नया नियम बनाये
और यहां तक कि और वित्तीय मामलों की जांच का सीबीआई यानी सीरियस फ्रॉड ऑफिस
बनाया गया ...
सबसे बड़ा बदलाव ऑडिट को लेकर हुआ था. कहते हैं अगर
आंकड़ों से पूछताछ की जाए तो वह सच उगल देते हैं. इसलिए भारत में फोरेंसिक ऑडिट
की शुरुआत हुई. पंजाब नेशनल बैंक के साथ
नीरव मोदी का फ्रॉड हो या आईएलएफस के खातों में हेरफेर या कि एबीजी शिपयार्ड की
फर्जी कंपनियां यह सब पता चला जब ऑडिटर्स और रेटिंग एजेंसियों की चोरी व धोखाधड़ी
पकड़ने के लिए फोरेंसिक ऑडिट शुरु हुए.
यहां तक कि नेशनल स्टॉक एक्सचेंज का वह रहस्यमय गुरु भी इसी ऑडिट के सहारे
दस्तावेजों की गुफा से बाहर निकला है.
ऑडिट की यह किस्म खातों में आपराधिक हेरफेर, पैसे के अवैध लेन देन और फ्रॉड के प्रमाणों को अदालत तक ले जाने पर आधारित
है. रिजर्व बैंक 2016 तक इस ऑडिट के नियम दुरुस्त कर दिये थे. फंसे हुए कर्ज के
बड़े मामलों की फोरेंसिक जांच जरुरी बना दी गई. सेबी ने लगातार नियमों को चुस्त
किया. 2020 के सबसे ताजे आदेश में कंपनियों पर फ्रॉड रोकने के नए नियम बनाने और
अकाउंटिंग में बदलाव की शर्तें लगाईं गईं.
यहां तक आते आते आपको बेचैनी महसूस होने लगी होगी क्यों
कि अगर नसीहतें ली गईं थी, कानून बदले गए थे. यदि कॉर्पोरेट
गवर्नेंस यानी कंपनी को चलाने के नियम इतने चुस्त हैं तो फिर कंपनियां डुबाने हेाड़ क्यों लगी है ?
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बायोटेक, भूषण स्टील, कैफे कॉफी
डे, एबीजी शिपयार्ड
..... एसा लगता हैं कि भारत के
निजी प्रवर्तक तो आत्मघाती हो गए हैं.
घोटाले के केवल सुर्खियों में ही नहीं आंकड़ों में
भी दिखते हैं. रिजर्व बैंक के दस्तावेज बताते हैं कि कुल बैंक फ्रॉड में सबसे
बड़ा हिस्सा कर्ज से जुड़े मामलों का था और 2017-18 से 2018-19 के बीच तीन गुना
बढ़ गए. यानी 2.52 लाख करोड़ रुपये से बढ़कर 6.45 लाख
करोड़.
आखिर वजह क्या है कि इतने सब कानूनी उपायों के
बावजूद प्रत्येक उद्योग में घोटालों की झड़ी लगी है. सत्यम से लेकर एबीजी शिपयार्ड
और नेशनल स्टॉक एक्सचेंज तक अगर सभी घोटालों को करीब से देखा जाए तो सबमें एक ही
जैसे तरीके,कारगुजारी और फर्जीवाड़ा दिखता है
1. बैंकों से कर्ज लेकर फर्जी कंपनियों में घुमा देना और
कुछ का कुछ कारोबार करना
2. कर्ज को छिपा कर नया कर्ज लेते रहना
3. कभी कमाई तो कभी खर्च को बढाचढ़ाकर दिखाना
4. कंपनी के खातों में तरह तरह से हेरफेर
5. नियामकों को सही सूचना देने बचना
6. ऑडिटर्स बेइमानी जो कि दरसअल सच बताने के लिए लगाये
जाते हैं
ऊपर के छह बिंदुओं में एक भी एसा नहीं जिसके लिए
नियमों में लोचा हो. अगर कंपनी के मालिक प्रबंधक चाहें तो यह सब रुक सकता है लेकिन
फर्जीवाड़ा कंपनियों के प्रवर्तक खुद कर रहे हैं. राजनीतिक रसूख, नियामकों से लेनदेन और बैंकरों की मिलीभगत इसमें सबसे ज्यादा लूट बैंकों
के पैसे की होती है, प्रवर्तक तो अपनी पूंजी जोखिम में
डालता ही नहीं.
इंडिगो या फोर्टिस में विवाद के बाद कंपनियों में
कॉर्पोरेट गवर्नेंस की कलई खुली. वीडियोकॉन को गलत ढंग से
कर्ज देने के बाद भी चंदा कोचर आइसीआइसीआइ में बनी रहीं. येस बैंक के एमडी सीईओ राणा कपूर को हटाना पड़ा या कि आइएलऐंडएफएस ने कई सब्सिडियरी
के जरिए पैसा घुमाया और बैंक का बोर्ड सोता रहा.
भारतीय कंपनियों के प्रमोटर, पैसे और बैंक कर्ज के गलत इस्तेमाल के लिए कुख्यात हो रहे हैं. आम्रपाली के फोरेंसिक ऑडिट से ही यह पता चला कि मालिकों ने चपरासी और
निचले कर्मचारियों के नाम से 27 से ज्यादा
कंपनियां बनाई, जिनका इस्तेमाल हेराफेरी के लिए होता था.
ताकतवर प्रमोटर, बैंक, रेटिंग एजेंसियों और ऑडिट के साथ मिलकर
एक कार्टेल बनाते हैं प्रवर्तकों के कब्जे के कारण स्वतंत्र निदेशक नाकारा हो जाते
हैं, नियामक ऊंघते रहते हैं, किसी की जवाबदेही नहीं तय हो पाती और अचानक एक दिन कंपनी इतिहास बन जाती
है.
इसलिए बीते एक दशक में भारत में खराब कॉर्पोरेट
गवर्नेंस से जितनी बड़ी कंपनियां डूबी हैं, या समृद्धि का विनाश (वेल्थ डिस्ट्रक्शन) हुआ है वह मंदी से होने वाले नुक्सान की तुलना में कमतर नहीं है.
दरअसल, यह तिहरा विनाश है.
एक—शेयर निवेशक अपनी पूंजी गंवाते हैं. जैसे, कई दिग्गज कंपनियों के शेयर अब पेनी स्टॉक बन गए हैं
दो—इनमें बैंकों की पूंजी डूबती है जो दरअसल आम
लोगों की बचत है और
तीसरा—अचानक फटने वाली बेकारी जैसे जेट एयरवेज, .
कंपनियों में खराब गवर्नेंस पर सरकारें
फिक्रमंद नहीं होतीं. उन्हें तो इनसे मिलने वाले टैक्स या चुनावी चंदे से मतलब है. प्रवर्तकों का कुछ भी दांव पर होता ही नहीं. डूबते तो हैं रोजगार और बैंकों का कर्ज. मरती
है बाजार में प्रतिस्पर्धा. जाहिर है कि इससे किसी नेता
की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता.
सनद रहे कि कंपनियों का बुरा प्रबंधन, खराब सरकार से ज्यादा सरकार को तो फिर भी बदला जा सकता है लेकिन कंपनियों
का खराब प्रबंधन उन्हें डुबा ही देता है.
भारत पूंजीवाद की साख बुरी तरह दागी हो रही है, अगर कंपनियों ने कामकाज को पारदर्शी नहीं किया तो सुधारों और मुक्त
बाजार से लोगों की चिढ़ और बढ़ती जाएगी.