‘‘‘मतदाता को क्या मतलब कि राजनैतिक दल चंदा से कहां जुटाते हैं. उनका मतलब केवल प्रत्याशी से है’’ —सुप्रीम कोर्ट को सरकार का जवाब (अप्रैल 2019)
अपराधियों को चुनाव से दूर रखने के लिए संसद को कानून बनाना चाहिए —सुप्रीम कोर्ट की सलाह (सितंबर 2018) पर सरकार ने कानों में रुई ठूंस ली
''आपराधिक रिकार्ड वाले प्रत्याशियों का ब्योरा प्रमुख अखबारों में छपना चाहिए.'' चुनाव आयोग को सुप्रीम कोर्ट के आदेश (सितंबर 2018) पर कोई कार्रवाई नहीं
उंगली पर स्याही लगाकर दीवाने हुए जाते आम लोग ही लोकशाही की जिम्मेदारी उठाने के लिए बने हैं? चंदों की गंदगी, अपराधी नेताओं और अनंत चुनावी झूठ से उनको कोई फर्क नहीं पड़ता जिनको चुनने के लिए हमें ‘पहले मतदान फिर जलपान’ का ज्ञान दिया जाता है! और उनका क्या जो राजनीति को अपराध मुक्त करने की कसम उठाकर सत्ता में आए थे!
यह 2014 का अप्रैल था. वाराणसी से कांग्रेस के प्रत्याशी का नाम हथियारों के सौदे में आया था. हरदोई की रैली में नरेंद्र मोदी ने वादा किया कि ‘‘सत्ता में आने के बाद सरकार एक कमेटी बनाएगी जो चुनाव आयोग को मिले हलफनामों के आधार पर सांसदों के आपराधिक रिकार्ड की जांच कर सुप्रीम कोर्ट से मुकदमा चलाने के लिए कहेगी. इन्हें जेल भेजा जाएगा. चाहे इनमें भाजपा या एनडीए के सांसद ही क्यों न हों."
नरेंद्र मोदी जीत गए और राजनीति को अपराध मुक्त करने का वादा हरदोई के मैदान में ही पड़ा रह गया. अलबत्ता थे कुछ जिद्दी लोग जो सियासत और जरायम के गठजोड़ को खत्म करने की मुहिम लेकर सबसे बड़ी अदालत पहुंच गए. सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने पिछले साल सरकार से कहा कि अपराधी प्रत्याशी कैंसर हैं, चुनाव जिताऊ प्रत्याशी के तर्क से लोकतंत्र का गला घोंटना बंद किया जाए. यह संसद की जिम्मेदारी है कि वह कानून बनाकर अपराधियों को हमेशा के लिए चुनावों से दूर करे. इस आदेश के बाद भी प्रधानमंत्री को हरदोई वाला वादा याद नहीं आया!
चुनाव आयोग और सरकार सुप्रीम कोर्ट के आदेश का इतना अमल भी सुनिश्चित नहीं करा सके कि कम से कम अपराधी प्रत्याशियों के बारे में कायदे से प्रचार किया जाए ताकि लोग यह जान सकें कि वे किसे अपना चौकीदार बनाने जा रहे हैं. अब सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को अवमानना का नोटिस भेजा है.
सनद रहे कि इस लोकसभा चुनाव के पहले दो चरणों में 464 प्रत्याशी ‘अपराधी’ हैं. इनमें 46 चौकीदारों (भाजपा) और 58 न्यायकारों (कांग्रेस) के हलफनामों में जरायम दर्ज है. अन्य प्रमुख दलों के करीब 61 अपराधी प्रत्याशी (एडीआर रिपोर्ट) हमें हमारी लोकतांत्रिक जिम्मेदारी सिखा रहे हैं.
गलत सोचते थे हम कि जब बहुमत की सरकार होगी, ताकतवर नेता होगा, देश के अधिकांश हिस्से में एक दल का राज होगा तो हमें ऐसे सुधार मिलेंगे जिनकी छाया में हम अपने लोकतंत्र पर गर्व कर सकेंगे. लेकिन अब तो
· जरा-सी बात पर तुनक कर कार्रवाई करने वाला सुप्रीम कोर्ट, इलेक्टोरल बांड से चंदे का ब्योरा सार्वजनिक करने का आदेश दे सकता था लेकिन उसने सूचनाओं को फाइलों में दबाकर अगली तारीख लगा दी.
· जजों की नियुक्ति पर सरकार से जूझने वाली सबसे बड़ी अदालत अपराधी नेताओं के लिए कानून बनाने पर सरकार को बाध्य कर सकती थी लेकिन उसने उपदेश देकर बात खत्म कर दी.
· अपराधी प्रत्याशी के ब्योरे का पर्याप्त प्रचार न होने पर पर्चे खारिज करने का आदेश देने में क्या हर्ज था?
इस बार चुनाव में वोटरों की लाइनें नोटबंदी की कतारों जैसी लग रहीं हैं. मतदाता धूप में तप कर अपनी लोकतांत्रिक जिम्मेदारी पर बिछे जा रहे हैं. लेकिन जैसे नोटबंदी के दौरान सियासी दल, कंपनियां और बैंक पिछले दरवाजे से लोगों के विश्वास का सौदा कर रहे थे ठीक उसी तरह संवैधानिक संस्थाएं वह सब धतकरम होने देना चाहती हैं जिनके बाद लोकतंत्र के इस संस्करण पर भरोसा मुश्किल से बचेगा.
दुनिया में कई जगह लोकतंत्र है, लोग वोट भी देते हैं लेकिन वहां पालतू संसद चुनी जाती है, संविधानों को उमेठ दिया जाता है, आजादियों को न्यूनतम रखा जाता है. सत्ता के फायदों को अपने तरीके से बांटा जाता है. हम ऐसा लोकतंत्र हरगिज नहीं चाहते जिसमें वोटर अपनी जिम्मेदारी निभाएं लेकिन वोट लेने वाले पूरी बेशर्मी के साथ कुछ भी करते चले जाएं !
मतदाता और रैली में जुटी किराये की भीड़ में फर्क बनाए रखना होगा. मतदान हमेशा स्वीकार ही नहीं होता, इसे सवाल या इनकार भी बनाया जा सकता है. वोट देना हमारी मजबूती है, मजबूरी नहीं.