सियासत अगर
इतिहास को नकारे नहीं तो नेताओं पर कौन भरोसा करेगा? सियासत यह
दुहाई देकर ही आगे बढ़ती है कि इतिहास हमेशा खुद को नहीं दोहराता लेकिन बाजार
इतिहास का हलफनामा लेकर टहलता है, उम्मीदों
पर दांव लगाने के लिए वह अतीत से राय जरूर लेता है.
जैसे गांवों या खेती को ही
लें.
इस महीने
की शुरुआत में जब किसान दिल्ली की दहलीज पर जुटे थे तब सरकार को इसमें सियासत नजर
आ रही थी लेकिन आर्थिक दुनिया कुछ दूसरी उधेड़बुन में थी. निवेशकों को 2004 और 2014 याद आ रहे
थे जब आमतौर पर अर्थव्यवस्था का माहौल इतना खराब नहीं था लेकिन सूखा, ग्रामीण मंदी व आय में कमी के कारण सरकारें भू लोट हो गईं.
चुनावों के
मौके पर भारतीय राजनीति की भारत माता पूरी तरह ग्रामवासिनी हो जाती है.
अर्थव्यवस्था और राजनीति के रिश्ते विदेशी निवेश या शहरी उपभोग की रोशनी में नहीं
बल्कि लोकसभा की उन 452 ग्रामीण
सीटों की रोशनी में पढ़े जाते हैं जहां से सरकार बनती या मिट जाती है.
समर्थन
मूल्य में बढ़ोतरी और कर्ज माफी के बावजूद गांवों में इतनी निराशा या गुस्सा क्यों
है?
पानी रे
पानी: 2015 से 2018 तक भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था गहरी मंदी से जूझती रही है.
पहले दो साल (2015 और 2016) सूखा, फिर बाद के
दो वर्षों में सामान्य से कम बारिश रही और इस साल तो मॉनसून में सामान्य से करीब 9 फीसदी कम बरसात हुई जो 2014 के बाद
सबसे खराब मॉनसून है. हरियाणा, पंजाब, गुजरात, उत्तर
प्रदेश, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र (प्रमुख खाद्यान्न उत्पादक राज्य)
में 2015 से 2019 के बीच
मॉनूसन ने बार-बार धोखा दिया है. इन राज्यों के आर्थिक उत्पादन में खेती का हिस्सा
17 से 37 फीसदी तक
है.
यह वह मंदी
नहीं: दिल्ली के हाकिमों की निगाह अनाजों के पार नहीं जाती. उन्हें
लगता है कि अनाज का समर्थन मूल्य बढ़ाने से गांवों में हीरे-मोती बिछ जाएंगे.
लेकिन मंदी तो कहीं और है. दूध और फल सब्जी का उत्पादन बढऩे की रफ्तार अनाज की
तुलना में चार से आठ गुना ज्यादा है. छोटे मझोले किसानों की कमाई में इनका हिस्सा 20 से 30 फीसदी है.
पिछले तीन साल में इन दोनों उत्पाद वर्गों को मंदी ने चपेटा है. बुनियादी ढांचे की
कमी और सीमित प्रसंस्करण सुविधाओं के कारण दोनों में उत्पादन की भरमार है और
कीमतें कम. इसलिए दूध की कीमत को लेकर आंदोलन हो रहे हैं. उपभोक्ता महंगाई के
आंकड़े इस मंदी की ताकीद करते हैं.
गांवों में
गुस्सा यूं ही नहीं खदबदा रहा है. शहरी मंदी, गांवों की
मुसीबत बढ़ा रही है. पिछले दो साल में बड़े पैमाने पर शहरों से गांवों की ओर
श्रमिकों का पलायन हुआ है. गांव में अब काम कम और उसे मांगने वाले हाथ ज्यादा हैं
तो मजदूरी कैसे बढ़ेगी?
कमाई कहां
है ?: गांवों
में मजदूरी की दर पिछले छह माह में गिरते हुए तीन फीसदी पर आ गई जो पिछले दस साल
का सबसे निचला स्तर है. एक ताजा रिपोर्ट (जेएम फाइनेंशियल-रूरल सफारी) बताती है कि
सूखे के पिछले दौर में भवन निर्माण, बालू खनन, बुनियादी ढांचा निर्माण, डेयरी, पोल्ट्री आदि से गैर कृषि आय ने गांवों की मदद की थी. लेकिन
नोटबंदी जीएसटी के बाद इस पर भी असर पड़ा है. गैर कृषि आय कम होने का सबसे ज्यादा
असर पूर्वी भारत के राज्यों में दिखता है. इस बीच गांवों में जमीन की कीमतों में
भी 2015 के बाद से लगातार गिरावट आई है.
महंगाई के
पंजे: अनाज से समर्थन मूल्य में जितनी बढ़त हुई है उसका एक बड़ा
हिस्सा तो रबी की खेती की बढ़ी हुई लागत चाट जाएगी. कच्चे तेल की आग उर्वरकों के
कच्चे माल तक फैलने के बाद उवर्रकों की कीमत 5 से 28 फीसदी तक बढऩे वाली है. डीएपी की कीमत तो बढ़ ही गई है, महंगा डीजल रबी की सिंसचाई महंगी करेगा.
मॉनसून के
असर, ग्रामीण आय में कमी और गांवों में मंदी को अब आर्थिक के बजाए
राजनैतिक आंकड़ों की रोशनी में देखने का मौका आ गया है. याद रहे कि गुजरात के
चुनावों में गांवों के गुस्से ने भाजपा को हार की दहलीज तक पहुंचा दिया था. मध्य
प्रदेश जनादेश देने की कतार में है.
हरियाणा, पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तर
प्रदेश और मध्य प्रदेश ऐसे राज्य हैं जहां 2015 से 2019 के बीच दो से लेकर पांच साल तक मॉनसून खराब रहा है; ग्रामीण आय बढऩे की रफ्तार में ये राज्य सबसे पीछे और किसान
आत्महत्या में सबसे आगे हैं.
सनद रहे कि
ग्रामीण मंदी से प्रभावित इन राज्यों में लोकसभा की 204 सीटे हैं. और इतिहास बताता है कि भारत के गांव चुनावी उम्मीदों
के सबसे अप्रत्याशित दुश्मन हैं.