भारत में सरकार महंगाई बढ़ाती ही नहीं
बल्कि बढ़ाने वालों को बढ़ावा भी देती हैं! सरकारों को समझदारी का मानसरोवर मानने
वालेे एक उत्साही , यह सुनकर
भनभना उठेे. क्या कह रहे हो? सरकार
ऐसा क्यों करेगी? जवाब आया कि रेत से सिर निकालिए. प्रसिद्ध
अर्थविद् मिल्टन फ्रीडमन के जमाने से लेकर आज तक दुनिया का प्रत्येक अर्थशास्त्री
यह जानता रहा है कि महंगाई ऐसा टैक्स है जो सरकारें बगैर कानून के लगाती हैं.
पेट्रोल-डीजल पर भारी टैक्स और बेकारी व
गरीबी के बीच, मांग के बिना असंख्य उत्पादों की कीमतों
में बढ़ोतरी मौसमी उठा-पटक की देन नहीं है. भारत की आर्थिक नीतियां अब फ्रीडमन को
नहीं, ऑस्ट्रियन अर्थविद् फ्रेडरिक वान हायेक को
भी सही साबित कर रही हैं, जो कहते
थे, अधिकांश महंगाई सरकारें खुद पैदा करती
हैं, अपने फायदे के लिए.
यानी कि सरकारों की प्रत्यक्ष नीतियों से
निकलने वाली महंगाई, जो सिद्धांतों का हिस्सा थीं, वह भारत में हकीकत बन गई है.
महंगाई को बहुत से कद्रदान जरूरी शय बताते
हैं लेकिन यह इस पर निर्भर है कि महंगाई का कौन सा संस्करण है. अच्छी महंगाई में
मांग और खपत के साथ कीमतें बढ़ती हैं (डिमांड पुल इन्फ्लेशन). यानी मूल्यों के साथ
कमाई (वेज पुश) भी बढ़ती है लेकिन भारत में सरकार ने महंगाई परिवार की सबसे
दुर्गुणी औलाद को गोद ले लिया है, जिसमें
मांग नहीं बल्कि उत्पादन और खपत की लागत बढ़ती है. यह कॉस्ट पुश इन्फ्लेशन है जो
अब अपने विकराल रूप में उतर आई है.
महंगाई का यही अवतार अमीरों को अमीर और
गरीबों को और ज्यादा निर्धन बनाता है. लागत बढ़ाने वाली महंगाई अक्सर टैक्स की
ऊंची दरों या ईंधन कीमतों से निकलती है. सबसे ताजा वाकया 2008 के ब्रिटेन का है, जब दुनिया में बैंकिंग संकट के बाद गहरी मंदी के बीच वहां महंगाई बढ़ी, जिसकी वजह से मांग नहीं बल्कि टैक्स और देश की मुद्रा पाउंड स्टर्लिंग
के अवमूल्यन के कारण आयातों की महंगाई थी.
भारत का पूरा खपत टैक्स ढांचा सिर्फ
महंगाई बढ़ाने की नीति पर केंद्रित है. जीएसटी, उत्पाद या सेवा की कीमत पर लगता है, यानी कीमत बढऩे से टैक्स की उगाही बढ़ती है. खपत पर सभी टैक्स देते
हैं और इसलिए सरकार खपत को हर तरह से निचोड़ती है. केंद्र और राज्यों में एक ही
उत्पाद और सेवा पर दोहरे-तिहरे टैक्स हैं, टैक्स पर टैक्स यानी सेस की भरमार है. आत्मनिर्भरता के नाम पर महंगी
इंपोर्ट ड्यूटी है, यही महंगाई बनकर फूट रहा है.
भारत सस्ते उत्पादन के बावजूद महंगी
कीमतों वाला मुल्क है. पेट्रोल-डीजल सस्ते उत्पादन के बावजूद टैक्स के कारण
जानलेवा बने हुए हैं. दक्षिण एशिया के 12 प्रमुख
देशों की तुलना में भारत में बिजली की उत्पादन लागत सबसे कम है (वुड मैकेंजी
रिपोर्ट) लेकिन हम लागत की तीन गुनी कीमत भरते हैं. टैक्स वाली महंगाई भूमि, धातुओं, ऊर्जा, परिवहन को लगातार महंगा कर रही है जिसके कारण अन्य उत्पाद व सेवाएं
महंगी होती हैं. ताजा महंगाई के आंकड़े बता रहे हैं कि अर्थव्यवस्था अब मौसमी नहीं
बल्कि बुनियादी महंगाई (कोर इन्फ्लेशन) की शिकार है, जो मांग न होने के बावजूद इसलिए बढ़ रही है क्योंकि लागत बढ़ रही
है.
महंगाई अब सरकार, मैन्युफैक्चरिंग और सर्विसेज कंपनियों का साझा उपक्रम है. टैक्स पर
टैक्स थोपकर सरकारें उत्पादकों को कीमतें बढ़ाने की खुली छूट दे देती हैं.
अप्रत्यक्ष टैक्स उत्पादक नहीं देते, यह तो
उपभोक्ता की जेब से निकलता है, इसलिए
कंपनियां खुशी-खुशी कीमत बढ़ाती हैं. मसलन, बीते साल अगस्त से दिसंबर के बीच स्टील की कीमत 37 फीसद बढ़ गई और असंख्य उत्पाद महंगे हो गए.
मंदी के बीच इस तरह की महंगाई, एक के बाद दूसरी लागत बढऩे का दुष्चक्र रचती है, जिसमें हम बुरी तरह फंस रहे हैं. अगर आपको लगता है कि यह मुसीबतों के
बीच मुनाफाखोरी है तो सही पकड़े हैं. जीएसटी के तहत जो टैक्स दरें घटीं उन्हें
कंपनियों ने उपभोक्ताओं से नहीं बांटा यानी कीमतें नहीं घटाईं. जीएसटी की ऐंटी
प्रॉफिटियरिंग अथॉरिटी ने एचयूएल, नेस्ले
से लेकर पतंजलि तक कई बड़े नामों को 1,700 करोड़
रुपए की मुनाफाखोरी करते पकड़ा. लेकिन इस फैसले के खिलाफ कंपनियां हाइकोर्ट में
मुकदमा लड़ रही हैं और मुनाफाखोरी रोकने वाले प्रावधान को जीएसटी से हटाने की
लामबंदी कर रही हैं.
अक्षम नीतियों और भारी टैक्स के कारण ईंधन, ऊर्जा और अन्य जरूरी सेवाओं की कीमत उनकी लागत से बहुत ज्यादा है.
मंदी में मांग तो बढऩी नहीं है इसलिए जो बिक रहा है महंगा हो रहा है. कंपनियों ने
बढ़ते टैक्स की ओट में, बढ़ी हुई
लागत को उपभोक्ताओं पर थोप कर मुनाफा संजोना शुरू कर दिया है. वे एक तरह से सरकार
की टैक्स वसूली सेवा का हिस्सा बन रही हैं. कंपनियां सारे खर्च निकालने के बाद
बचे मुनाफे पर टैक्स देती हैं और उसमें भी 2018 में सरकार ने उन्हें बड़ी रियायत
(कॉर्पोरेट टैक्स) दी है.
तो क्या भारत ‘क्रोनी इन्फ्लेशन’ का आविष्कार
कर रहा है?