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Saturday, April 13, 2019

उम्मीदों का तकाजा


ह जुलाई, 2016 थी, कैबिनेट में फेरबदल से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था, ‘‘मेरे लिए सफलता का अर्थ यह है कि लोग बदलाव महसूस करें. यदि उपलब्धियों का दावा करना पड़े तो मैं इसे सफलता नहीं मानूंगा.’’

उम्मीदों के उफान पर बैठकर सत्ता में पहुंचे मोदी का यह आत्मविश्वास नितांत स्वाभाविक था.

फिर अचानक क्या हुआ?

दो दर्जन से अधिक नई और बड़ी स्कीमों के जरिए भारत में युगांतर की अलख जगाने के बाद मरियल, हताश और बिखरे विपक्ष से मुकाबिल एक सशक्त सरकार तर्क और नतीजों पर नहीं बल्कि राष्ट्रवाद उबाल कर वोट मांग रही है. क्यों सरकार के मूल्यांकन केंद्र में बदलाव महसूस कराने वाली स्कीमें या कार्यक्रम पर नहीं बल्कि एक नाकारा और बदहाल पड़ोसी (पाकिस्तान) से आर-पार करने के नारे हैं?

चुनाव के नतीजों के परे हमें इस बात की फिक्र होनी चाहिए कि 2014 से देश में बहुत कुछ ऐसा हुआ था जो अभूतपूर्व था जैसे

·       केंद्र में पूर्ण बहुमत की सरकार और लोकप्रिय नेतृत्व

·       महंगाई में निरंतर कमी

·       कच्चे तेल की न्यूनतम कीमत यानी कि विदेशी मुद्रा मोर्चे पर आसानी

·       ताजा मंदी से पहले तक विश्वसनीय अर्थव्यवस्था में बेहतर विकास दर

और सबसे महत्वपूर्ण

आर्थिक उदारीकरण के बाद पहली बार पांच सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं यानी क्लब फाइव (महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, गुजरात और कर्नाटक) में तीन राज्यों में उसी दल का शासन था जो केंद्र में भी राज कर रहा है. उभरते हुए तीन राज्य (राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश) भी 2018 तक टीम मोदी का हिस्सा थे.

भारत के 11 बड़े राज्य (महाराष्ट्र, गुजरात, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, राजस्थान, केरल, बिहार, ओडिशा और संयुक्त आंध्र प्रदेश) 2020 तक देश की जीडीपी में 76 फीसदी के हिस्सेदार होंगे, उनमें सात (मार्च 2018 तक आंध्र प्रदेश) में भाजपा का शासन है. तीन प्रमुख छोटी अर्थव्यवस्थाएं यानी झारखंड, हरियाणा और असम भी भाजपा के नियंत्रण में हैं.

यह ऐसा अवसर था, जिसके लिए पिछली सरकारें तरसती रहीं. उदारीकरण के बाद सुधारों के कई प्रयोग इसी वजह से जमीन नहीं पकड़ सके क्योंकि बड़े और संसाधन संपन्न राज्यों से केंद्र के राजनैतिक रिश्तों में गर्मजोशी नहीं थी.

2017 के बाद राज्यों के चुनाव नतीजे ही सिर्फ इस आशंका को मजबूत नहीं करते बल्कि कुछ और तथ्य भी इसकी पुष्टि करते हैं कि क्यों एक ताकतवर सरकार को अपने कामकाज के बजाए भावनाओं की हवा बांधनी पड़ रही है.

         क्रिसिल की ताजा रिपोर्ट बताती है कि 2018 में सभी प्रमुख राज्यों की विकास दर उनके पांच साल के औसत से नीचे आ गई. प्रमुख कृषि प्रधान राज्यों में भी खेती विकास दर नरम पड़ी.

         2013 से 18 के बीच तेज विकास दर वाले सभी राज्यों की रोजगार गहन क्षेत्रों (कपड़ा, मैन्युफैक्चरिंग भवन निर्माण) में रोजगारों की वृद्धि दर घट गई. केवल गुजरात और हरियाणा कुछ ठीक-ठाक थे. गुजरात में ऑटोमोबाइल मैन्युफैक्चरिंग में रोजगार बढ़े लेकिन इस क्षेत्र में बिक्री की मंदी के ठोस संकेत मिल रहे हैं.

मोदी ने राज्यों को संसाधन देने में कोई कमी नहीं की. वित्त आयोग की सिफारिशों से लेकर जीएसटी के नुक्सान की भरपाई तक केंद्र ने राज्यों को खूब दिया. यहां तक कि योजना आयोग खत्म होने के बाद राज्यों से आवंटन और खर्च का हिसाब मांगने की व्यवस्था भी बंद हो गई.

आंकड़े बताते हैं कि देश का करीब 56-60 फीसदी विकास खर्च (पूंजी खर्च जिससे निर्माण होता है, रोजगार आते हैं) अब राज्यों के हाथ में है. सभी राज्यों के कुल पूंजी खर्च का 90 फीसदी हिस्सा‍ 17 प्रमुख राज्यों के नियंत्रण में है. इनमें दस राज्यों में 2018 तक मोदी की सेना के सूबेदार थे.
क्या अपनीटीम इंडियाकी वजह से मोदी कुछ ऐसा करके नहीं दिखा सके जिससे लोग बदलाव महसूस कर सकें

राष्ट्रवाद तो भाजपा की पारंपरिक राजनैतिक पूंजी है लेकिन 2014 के चुनाव में नरेंद्र मोदी 12 फीसदी नया वोट लेकर आए. यह मोदी का वोटर था जो परिवर्तन के अलख और उम्मीदों के उफान के साथ भाजपा के पास आया और पिछड़े-गरीब पश्चिमोत्तर भारत में रिकॉर्ड सफलता का आधार बना.

वह विकासवाद का वोट था जिसे रोके रखने के लिए मौका, माहौल, मौसम तीनों मोदी के माफिक थे. इन्हें जोड़े रखने का जिम्मा मोदी के सूबेदारों पर था, जो चूक गए हैं. चुनाव नतीजे कुछ भी हों लेकिन केंद्र व अधिकांश राज्यों में राजनैतिक संगति का संयोग अब मुश्किल से बनेगा.

2019 में भाजपा की जीत का दारोमदार दरअसलमोदी के वोटरोंपर है जिनके चलते 2014 में भाजपा अपने दम पर बहुमत ले आई. राष्ट्रवाद से इत्तिफाक रखने वाले भाजपा छोड़ कर कहां जा रहे हैं!

Sunday, December 16, 2018

उन्नीस का पहाड़


अगर लोगों ने कर्नाटक में कांग्रेस को पलट दिया तो क्या गारंटी कि वे मध्य प्रदेशराजस्थानछत्तीसगढ़ में भाजपा को नहीं पलटेंगे. अगर लोग सरकारें बदलना चाहते हैं तो कहीं भी बदलेंगे. गुजरात में गोली कान के पास से निकल गई. (अर्थात्इंडिया टुडे16 मई2018)

यही हुआ न! कर्नाटक में लोगों ने कांग्रेस को नकार दिया और मध्य प्रदेशराजस्थानछत्तीसगढ़ में भाजपा को. कर्नाटक में कांग्रेस सत्ता विरोधी वोट पर जीते जद (एस) की पूंछ पकड़ कर वापस लौटी है.

कुछ सवाल उभर रहे हैं

- विपक्ष में रहते हुए कांग्रेस ने ऐसा क्या कर दिया कि वह हिंदी पट्टी की नूरे-नजर बन गईयही राज्य तो हैंकेंद्र में दस साल तक शासन के बाद जहां (मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़) वह जीत के लिए तरस गई और जीता हुआ गढ़ (राजस्थान) गंवा बैठी थी.

- भाजपा का सूर्य तप रहा है लेकिन मोदी और उनके सूबेदार मिलकर एक और एक ग्यारह क्यों नहीं हो सकेपार्टी उन राज्यों में भी हार गई जहां उसकी सरकारें भाजपा के बुरे दिनों में भी चमकती रही थीं और उनका कामकाज भी कमोबेश ठीक ही था.

- छत्तीसगढ़ में मोबाइल फोन मुफ्त बंट रहे थे राजस्थानमध्य प्रदेश बिजली के बिल माफ कर रहे थे लेकिन कुछ भी काम क्यों नहीं आया?

- क्या एक नई सत्ता विरोधी लहर शुरू हो रही है जो किसी को नहीं बख्शेगी?

मोदी-शाह को भी नहीं!

2014 के बाद से देश अलग ढंग से वोट देने लगा है. पिछले दशकों तक मतदाता राज्यों में सरकारों को लगातार दो या तीन तक मौके दे देते थे लेकिन केंद्र में हर पांच साल पर सरकारें पलटती रहीं. 25 वर्षों में केवल यूपीए की पहली सरकार ऐसी थी जिसे लगातार दूसरा मौका मिलाजिसके कारण राजनैतिक की जगह आर्थिक थे. 1991 के बाद भारत में शायद पहली ऐसी सरकार थी जिसके पूरे पांच साल आर्थिक पैमाने पर सामन्यतः निरापद थे. 2009 की जीत में शहरी और ग्रामीण अर्थव्यवस्था की शानदार ग्रोथ बड़ी वजह थी.

अब लोगों पर सरकार बदलने का जुनून तारी है. अपवाद नियम नहीं होते इसलिए बिहारबंगालतेलंगाना (सीमित संदर्भों में गुजरात भी) के जनादेश अस्वाभाविक हैं. इनके अलावापिछले पांच साल में केंद्रराज्यों और यहां तक कि पंचायत- नगरपालिकाओं में भी लोगों ने सत्ता पलट दी.

भाजपा ने इस जुनून पर सवारी की और लगभग हर प्रमुख चुनाव में राष्ट्रीय व क्षेत्रीय दलों को रौंद दिया. वह कर्नाटक में भी कांग्रेस को हार तक धकेलने में सफल रही. लेकिन सरकार पलटने वाली दूसरी लहर बनते ही गुजरात में लोहा दांत के नीचे आ गया और मध्य व पश्चिम के गढ़वह कांग्रेस ले उड़ी जो कल तक किसी गिनती में नहीं थी.

अगर सत्ता विरोधी मत ही पिछले चार साल का राजनैतिक स्थायी भाव है तो फिर मोदी-शाह भाजपा भारत के ताजा इतिहास की सबसे बड़ी सत्ता विरोधी लहर से मुकाबिल हो रहे हैं.

मोदी-शाह के लिए सरकारों से नाराजगी किसी पिरामिड या पहाड़ की तरह हैजिसके चार स्तर हैं.

देश का मिजाज भांपने वाले तमाम सर्वेक्षणों से इसका अंदाज होता है. इस पिरामिड के शिखर पर बैठे नरेंद्र मोदी सबसे सुरक्षित हैं. 100 में 49 लोग (इंडिया टुडे-देश का मिज़ाजजुलाई 2018 ) उनको प्रधानमंत्री पद के लिए सर्वश्रेष्ठ मानते हैं लेकिन केंद्र में उनकी सरकार से खुश नहीं हैं. सरकार की स्वीकार्यता उनकी अपनी लोकप्रियता की एक-तिहाई है. भाजपा की राज्य सरकारों की स्वीकार्यता तो नगण्य है और पिरामिड की तली पर यानी सबसे नीचेजहां सांसद और विधायक आते हैं वहां तो गुस्सा खदबदा रहा है.

केंद्र व 20 राज्यों और करीब 60 फीसदी जीडीपी पर शासन कर रही भाजपा के लिए सरकार विरोधी लहर एक दुष्चक्र बनाती दिख रही है. लोकसभा चुनाव से पहले मुख्यमंत्रियों व चुनावी नुमाइंदों को बदलने से भितरघात के खतरे हैं. सरकार की साख बनाए रखने के लिए कर्ज माफी जैसे खजाना लुटाऊ दांवजीत की गारंटी हरगिज नहीं हैंअलबत्ता अर्थव्यवस्था की तबाही जरूर तय है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी साख झोंक कर भीसत्ता विरोधी लहर से अपनी सरकारों की हिफाजत नहीं कर पाए हैं. सरकारें पलटते मतदाता केवल 2019 के बड़े चुनाव में ही नहीं बल्कि 2022 तक हर प्रमुख चुनाव में भाजपा से बार-बार यह पूछेंगे कि उसे ही दोबारा क्यों चुना जाएभाजपा के लिए उन्नीस का पहाड़ अब और ऊंचा हो गया है.

Monday, April 9, 2018

सूबेदारों पर दारोमदार



एक राजा था. उसके सिपहसालार धुरंधर थे. वे राजा के लिए जीत पर जीत लाते रहते थे. राजा नए सूबेदारों को जीते हुए सूबे सौंप कर अगली जंग में जुट जाता था.

फिर शुरू हुई सबसे बड़ी जंग की तैयारी. कवच बंधने लगे. सिपहसालारों ने जीते हुए मोर्चों का दौरा किया और थके से वापस लौट आए. राजा ने पूछा कि माजरा क्या है? एक पके हुए सलाहकार ने कहा कि हुजूर, यह जंग अब सिपहसालारों की नहीं रही. लोग अब सूबेदारों से जवाब मांग रहे हैं.

इस कहानी के पात्र रहस्यमय नहीं हैं. सरकारी पार्टी में यह किस्सा अलग-अलग संदर्भों के साथ बार-बार कहा-सुना जा रहा है. गुजरात से गोरखपुर तक वाया राजस्थान, मध्य प्रदेश सत्ता विरोधी तापमान बढऩे लगा है. पेशानी पर पसीना सवालों की इबारत में छलक रहा है. सूबेदार दिल्ली तलब होने लगे हैं.

तो सरकार से नाराजगी ने दिग्विजयी भाजपा को भी घेर लिया! 

लोकसभा चुनाव की भव्य जीत लेकर गुजरात तक, जीत पर जीत (बिहार व दिल्ली को छोड़कर) में झूमती भाजपा में किसी ने नहीं सोचा था कि लोग उनकी सरकारों से भी नाराज हो सकते हैं. गुजरात की हार जैसी जीत और उपचुनावों में बेजोड़ हार के बाद सरकार में ऐसे सवाल घुमड़ रहे हैं जिनका सामना हाल के वर्षों में किसी पार्टी ने नहीं किया. जाहिर है, इस तरह की निरंतर चुनावी विजय भी तो दुर्लभ थीं.

आर्थिक उदारीकरण के बाद पहली बार देश ने यह देखा कि पांच सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं यानी कि क्लब फाइव (महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, गुजरात और कर्नाटक) में तीन और उभरते हुए तीनों प्रमुख राज्यों (राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश) पर उस पार्टी का शासन है जो केंद्र में भी राज कर रही है. भारत के जो 11 राज्य (महाराष्ट्र, गुजरात, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, राजस्थान, केरल, बिहार, ओडिशा और संयुक्त आंध्र) 2020 तक देश की जीडीपी में 76 फीसदी के हिस्सेदार होंगे, उनमें सात (आंध्र प्रदेश अभी तक एनडीए में था) पर भाजपा का शासन है. इसके बाद तीन प्रमुख छोटी अर्थव्यवस्थाएं झारखंड, हरियाणा और असम भी भाजपा के नियंत्रण में हैं.

यह ऐसा अवसर था, जिसके लिए यूपीए सरकार दस साल तक तरसती रही. सुधारों के कई अहम प्रयोग इसी वजह से जमीन नहीं पकड़ सके क्योंकि बड़े और संसाधन संपन्न राज्यों से केंद्र के राजनैतिक रिश्तों में गर्मजोशी नहीं थी.

लेकिन क्या केंद्र व राज्यों में राजनैतिक रिश्तों के रसायन से मोदी सरकार के मिशन परवान चढ़ सके? मोदी सरकार पिछले एक दशक की पहली ऐसी सरकार है जिसने 'स्वच्छता' से 'उड़ान' यानी जमीन से लेकर आसमान तक कार्यक्रमों और मिशनों की झड़ी लगा दी, फिर भी सरकारों से नाराजगी ने घेर ही लिया! 

क्यों नहीं उम्मीदों पर खरी उतरी मोदी की टीम इंडिया?

1. राज्यों में पहले से ही मुख्यमंत्रियों के पास खासी ताकत थी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पीएमओ केंद्रित राजनैतिक गवर्नेंस राज्यों का आदर्श बन गई. सत्ता का विकेंद्रीकरण न होने से जमीनी क्रियान्वयन और संवाद जड़ नहीं पकड़ सका जबकि दूसरी तरफ घोषणाओं का अंबार लगा दिया गया. अब बारी मोहभंग की है. उदाहरण के लिए गोरखपुर.

2. राज्यों का प्रशासनिक ढांचा थक चुका है. इसे कहीं ज्यादा कठोर और नए सुधारों की जरूरत है. लेकिन पिछले चार साल में किसी राज्य में कोई नया बड़ा क्रांतिकारी सुधार या प्रयोग नजर नहीं आया. योजना आयोग को समाप्त करने से फायदा नहीं हुआ. राज्यों के आर्थिक फैसलों में आजादी मिलने की बजाए नया स्कीम राज मिला जिसे पुराने ढांचे पर लाद दिया गया.

3. पिछले तीन साल में राज्यों की वित्तीय स्थिति बिगड़ी है. बिजली घाटों की भरपाई, कर्ज माफी और राजस्व में कमी के कारण राज्यों का समेकित घाटा बारह साल और बाजार कर्ज दस साल के सर्वोच्च स्तर पर है. यह हालत चौदहवें वित्त आयोग से अधिक संसाधन मिलने के बाद है. जीएसटी की असफलता ने राज्यों के खजाने की हालत और बिगाड़ दी है.

केंद्र व 20 राज्यों और करीब 60 फीसदी जीडीपी पर शासन के बाद भी भाजपा को अगर अपनी सरकारों से नाराजगी का डर है और कुछ राज्यों में सूबेदारों की तब्दीली के जरिए नाराजगी को कम करने की नौबत आन पड़ी है तो मानना चाहिए कि लोकतंत्र मजबूत हो रहा है. सरकारों से नाराजगी लोकतंत्र की परिपक्वता का प्रमाण है. 

गुजरात से गोरखपुर तक मतदाता यह एहसास कराने लगे हैं कि प्रत्येक चुनावी जीत अगली जीत की गारंटी नहीं है. क्या लोग सियासत और सरकार का फर्क समझने लगे हैं अगर ऐसा है तो फिर याद रखना होगा कि इन लाखों अनाम लोगों की एक उंगली में बला की ताकत है. 


Sunday, December 24, 2017

हार की जीत

लोकतंत्र में परम प्रतापी मतदाता ऐसा भी जनादेश दे सकते हैं जो हारने वाले को खुश कर दे और जीतने वाले को डरा दे! गुजरात के लोग हमारी राजनै‍तिक समझ से कहीं ज्यादा समझदार निकले. सरकार से नाराज लोगों ने ठीक वैसे ही वोट दिया है जैसे किसी विपक्ष विहीन राज्य में दिया जाता है. गुजरात के मतदाताओं ने भाजपा को झिंझोड़ दिया है और कांग्रेस को गर्त से निकाल कर मैदान में खड़ा कर दिया है.

गुजरात ने हमें बताया है कि

- सत्ता विरोधी उबाल केवल गैर-भाजपा सरकारों तक सीमित नहीं है.
- लोकतंत्र में कोई अपराजेय नहीं है. दिग्गज अपने गढ़ों में भी लडख़ड़ा सकते हैं.
- भावनाओं के उबाल पर, रोजी, कमाई की आर्थिक चिंताएं भारी पड़ सकती हैं.
- लोग विपक्ष मुक्त राजनीति के पक्ष में हरगिज नहीं हैं.

2019 की तरफ बढ़ते हुए भारत का बदला हुआ सियासी परिदृश्य सत्ता पक्ष और विपक्ष के लिए रोमांचक होने वाला है. गुजरात ने हमें भारतीय राजनीति में नए बदलावों से मुखातिब किया है.

अतीत बनाम भविष्य
जातीय व धार्मिक पहचानें और उनकी राजनीति कहीं जाने वाली नहीं है लेकिन भारत का सबसे बड़ा औद्योगिक राज्य गुजरात दिखाता है कि सामाजिक-आर्थिक वर्गों में नया विभाजन आकार ले रहा हैमुख्यतः भविष्योन्मुख और अतीतोन्मुख वर्ग. इसे उम्मीदों और संतोष की प्रतिस्पर्धा भी कह सकते हैं. इसमें एक तरफ युवा हैं और दूसरी तरफ प्रौढ़. 2014 में दोनों ने मिलकर कांग्रेस को हराया था.
गुजरात में प्रौढ़ महानगरीय मध्य वर्ग ने भाजपा को चुना है. आर्थिक रूप से कमोबेश सुरक्षित प्रौढ़ मध्य वर्ग सांस्कृतिक, धार्मिक, भावनात्मक पहचान वाली भाजपा की राजनीति से संतुष्ट है लेकिन अपने आर्थिक भविष्य (रोजगार) को लेकर सशंकित युवा भाजपा के अर्थशास्त्र से असहज हो रहे हैं.
लगभग इसी तरह का बंटवारा ग्रामीण व नगरीय अर्थव्यवस्थाओं में है. ग्रामीण भारत में पिछले तीन साल के दौरान आर्थिक भविष्य को लेकर असुरक्षा बुरी तरह बढ़ी है. दूसरी ओर, नगरीय आर्थिक तंत्र अपनी  एकजुटता से नीतियों को बदलने में कामयाब रहा है. गुजरात बचाने के लिए जीएसटी की कुर्बानी इसका उदाहरण है. लेकिन किसान अपनी फसल की कीमत देने के लिए सरकार को उस तरह नहीं झुका सके. अपेक्षाओं का यह अंतरविरोध भाजपा की सबसे बड़ी चुनौती होने वाला है.

बीस सरकारों की जवाबदेही
भाजपा भारत के 75 फीसदी भूगोल, 68 फीसदी आबादी और 54 फीसदी अर्थव्यवस्था पर राज कर रही है. पिछले 25 वर्षों में ऐसा कभी नहीं हुआ. नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने पिछले तीन साल में जिस तरह की चुनावी राजनी‍ति गढ़ी है, उसमें भाजपा के हर अभियान के केंद्र में सिर्फ मोदी रहे हैं. 2019 में उन्हें केंद्र के साथ 19 राज्य सरकारों के कामकाज पर भी जवाब देने होंगे.
क्या भाजपा की राज्य सरकारें मोदी की सबसे कमजोर कड़ी हैं? पिछले तीन साल में मोदी के ज्या‍दातर मिशन जमीन पर बड़ा असर नहीं दिखा सके तो इसके लिए उनकी राज्य सरकारें जिम्मेदार हैं. गुजरात इसकी बानगी है, जहां प्रधानमंत्री मोदी के मिशन विधानसभा चुनाव में भाजपा के झंडाबरदार नहीं थे. '19 की लड़ाई से पहले इन 19 सरकारों को बड़े करिश्मे कर दिखाने होंगे. गुजरात ने बताया है कि लोग माफ नहीं करते बल्कि बेहद कठोर इम्तिहान लेते हैं.

भाजपा जैसा विपक्ष
वोटर का इंसाफ लासानी है. अगर सत्ता से सवाल पूछता, लोगों की बात सुनता और गंभीरता से सड़क पर लड़ता विपक्ष दिखे तो लोग मोदी के गुजरात में भी राहुल गांधी के पीछे खड़े हो सकते हैं. वे राहुल जो उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, कहीं कुछ भी नहीं कर सके, उन्हें मोदी-शाह के गढ़ में लोगों ने सिर आंखों पर बिठा लिया. भाजपा जैसा प्रभावी, प्रखर और निर्णायक प्रतिपक्ष देश को कभी नहीं मिला. विपक्ष को बस वही करना होगा जो भाजपा विपक्ष में रहते हुए करती थी. गुजरात ने बताया है कि लोग यह भली प्रकार समझते हैं कि अच्छी सरकारें सौभाग्य हैं लेकिन ताकतवर विपक्ष हजार नियामत है.
चुनाव के संदर्भ में डेविड-गोलिएथ के मिथक को याद रखना जरूरी है. लोकतंत्र में शक्ति के संचय के साथ सत्तास्वाभाविक रूप से गोलिएथ (बलवान) होती जाती है. वह वैसी ही भूलें भी करती है जो महाकाय गोलिएथ ने की थीं. लोकतंत्र हमेशा डेविड को ताकत देता है ताकि संतुलन बना रह सके.
गुजरात ने गोलिएथ को उसकी सीमाएं दिखा दी हैं और डेविड को उसकी संभावनाएं.
मुकाबला तो अब शुरू हुआ है. 


Monday, March 20, 2017

न्यू इंडिया, न्यू डेमोक्रेसी!


नए और भव्‍य जनादेश संसदीय लोकतंत्र के बुनियादी रसायन बदलाव का संकेत देते लग रहे हैं

सोच के खोल आसानी से नहीं टूटते. उन्हें तोडऩे के लिए बदलावों का बहुत बड़ा होना जरूरी है. उत्तर प्रदेश का जनादेश भारतीय लोकतंत्र की पारंपरिक सोच के धुर्रे बिखेर रहा है.

याद कीजिएपहले कब ऐसा हुआ था जब मणिपुरीबुंदेलीमुंबईकरओडिय़ाकोंकणीपुरबियापर्वतीयमैदानी सभी एक ही राजनैतिक दिशा में सोचने लगे हों.

इतिहास में उतरना बेकार हैक्योंकि आजादी के बाद किसी भी काल खंड में इस तरह का दौर नहीं मिलेगा जिसमें भारत की जटिल क्षेत्रीय पहचानें और राजनैतिक अस्मिताएं किसी एक नेता में इस कदर घनीभूत हो गई होंजैसा कि नरेंद्र मोदी के साथ हुआ है. मोदी से जुड़ी उम्मीदों के अभूतपूर्व उछाह ने पंचायत से लेकर विधानसभाओं तक फैली वैविध्यपपूर्ण भारतीय राजनीति को गजब का एकरंगी कर दिया है.

जनता के यह नए आग्रह संसदीय लोकतंत्र के बुनियादी रसायन को तब्दील कर रहे है. भारी जनादेशों और अपेक्षाओं से भरे समाज की ताकत लेकर नरेंद्र मोदीसंसदीय लोकशाही के भीतर अध्यक्षीय लोकतंत्र गढ़ते नजर आने लगे हैं.

अध्यक्षीय लोकतंत्र की अपनी खूबियां हैंसंसदीय लोकतंत्र जैसी. 2014 के चुनाव के बाद से ही भारत में लोकतंत्र के इस स्वरूप की आमद के संकेत मिलने लगे थे जो ताजा चुनावों के बाद स्पष्ट हो चले हैं.

एकअध्यक्षीय लोकतंत्र राजनैतिक दलों को अपने सर्वश्रेष्ठ प्रत्याशी को चुनाव मैदान में उतारने को बाध्य करता है. राष्ट्रव्यापी लोकप्रियता जिसकी पहली शर्त है.

चुनावी समर में नरेंद्र मोदी की सिलसिलेवार जीत न केवल भौगोलिक रूप से पर्याप्त विस्तृत है बल्कि जातीय पहचानों के व्यापक आयाम समेटती है. इन भव्य चुनावी विजयों के साथ उन्होंने यह तय कर दिया है कि विपक्ष को अब उनके जितना लोकप्रिय और अखिल भारतीय नेतृत्व सामने लाना होगा. इससे कम पर उन्हें चुनौती देना नामुमकिन है.

दोअध्यक्षीय लोकतंत्र में पूरा देश सीधे राष्ट्रपति को चुनता हैजिसकी सरकार स्थिर होती हैकामकाज पूरे देश की नजर में होता है.

मोदी केंद्र में स्थायी सरकार का नेतृत्व कर रहे हैं और राज्यों में स्थायी सरकारों का गठन कर रहे हैं. सहयोगी दलों पर निर्भरता न के बराबर है. मोदी के नेतृत्व में सरकार के प्रचार तंत्र को गौर से देखिएजो रह-रहकर पूरे देश को उनकी सरकार के कामों की याद दिलाता है. केंद्र सरकार के प्रचार अभियान इतने बड़ेव्यापक और राष्ट्रीय कभी नहीं रहे जैसे मोदी के नेतृत्व में दिखते हैं. मोदी जानते हैं कि पूरा देश उनके काम की हर पल समीक्षा कर रहा हैठीक अमेरिकी राष्ट्रपति की तरह. 

तीनअध्यक्षीय लोकतंत्र में संसद सिर्फ कानून बनाती है. राष्ट्रपति कार्यपालिका यानी सरकार का मुखिया होता है जो संसद से बहुत बंधा नहीं होता. इसलिए अमेरिका में मंत्री बनने के लिए चुनाव जीतना जरूरी नहीं है. अमेरिकी राष्ट्रपति प्रोफेशनल्स को अपने साथ रखते हैं और सीधे फैसले करते हैं.

अचरज नहीं कि मोदी संसद से बहुत मुखातिब नहीं होतेवे जनता से सीधा संवाद करते हैं. पिछली सरकारों की तुलना में मोदी की मंत्रिपरिषद अधिकार संपन्न नहीं है. प्रधानमंत्री कार्यालय ही बड़े निर्णय करता हैजिसमें नौकरशाहों की प्रमुख भूमिका है जैसे कि नोटबंदी.

चारअध्यक्षीय व्यवस्था में दलों की संख्या सीमित होती है और राष्ट्रपति पद के आम तौर पर दो ही प्रत्याशी होते हैं.

2014 के बाद राज्यों में क्षेत्रीय दलों की संख्या. घटती जा रही है. नरेंद्र मोदी केंद्र से लेकर राज्यों तक,  दो दलों या दो गठबंधनों के बीच चुनावी संघर्ष का मॉडल स्थापित करने में लगे हैंइसलिए वे राज्य के मुख्यमंत्री के स्तर तक जाकर प्रचार करते हैं. समझना मुश्किल नहीं है कि मोदी सरकार राज्यों और केंद्र के चुनाव एक साथ चाहती है.

अस्सी के दशक में कांग्रेस के क्षरण के साथ भारत का लोकतंत्र प्रखर बहुदलीय हो चला था. क्षेत्रीय दलों के उभार के साथ केंद्र कमजोर हुआ और राज्यों को अपने आप ही अधिक ताकत मिलने लगी. मोदी युग के प्रारंभ के साथ संघीय लोकतंत्र का यह मॉडल तब्दील हो रहा है. मोदी के राजनैतिक ढांचे में राज्यों को केंद्रीय नीतियों के क्रियान्वयक की भूमिका में रहना होगा. भाजपा में भी अब क्षेत्रीय नेतृत्व की ऊंची उड़ानों पर पाबंदी रहेगी.

प्रधानमंत्री मोदी यह समझ चुके हैं कि लोग राज्यों में बहुदलीय ढपली और परिवारों की सियासत से इस कदर ऊब चुके हैं कि उन्हें केंद्र में ताकतवर नेतृत्व और अध्यक्षीय लोकतंत्र जैसे तौर-तरीकों से फिलहाल दिक्कत नहीं है. मोदी की गवर्नेंस अब रह-रहकर संसदीय लोकतंत्र के पुराने मुहावरों से बगावत करेगी और लोग उनका समर्थन करेंगे.

विपक्ष को मोदी के नियमों के तहत चुनाव लडऩा होगा. 2019 का आम चुनाव अमेरिकी तर्ज पर होगाभारतीय मॉडल पर नहीं.

न्यू इंडिया यही चाहता है!