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Monday, August 5, 2013

1991 बनाम 2013


2013 की चुनौतियां इक्‍यानवे की तुलना में ज्‍यादा कठिन और भारी हैं। 1991 का घाव तो तुरंत के इलाज से भर गया था, 2013 की टीस लंबी चलेगी।

र्थिक चुनौतियों की फितरत बदल चुकी है। मुसीबतों की नई पीढ़ी यकायक संकट बन कर फट नहीं पड़ती बल्कि धीरे धीरे उपजती है और जिद्दी दुष्‍चक्र बनकर चिपक जाती है। भारत के लिए 1991 व 2013 के बीच ठीक वही फर्क है जो अंतर संकट और दुष्‍चक्र के बीच होता है। संकट कुछ कीमत वसूल कर गुजर जाता है मगर दुष्‍चक्र लंबी यंत्रणा के बाद पीछा छोड़ता है।  भारत में 1991 के तर्ज पर विदेशी मुद्रा संकट दोहराये जाने का डर नहीं है लेकिन उससे ज्‍यादा विकट दुष्‍चक्र की शुरुआत हो चुकी है। रुपये को बचाने के लिए ग्रोथ, रोजगार, लोगों की बचत व क्रय शक्ति की कुर्बानी शुरु हो गई है। तीन माह में आठ रुपये महंगा पेट्रोल तो बानगी भर है दरअसल रुपये में मजबूती लौटने की कोई गुंजायश नहीं है इसलिए पेट्रो उत्‍पाद, खाद्य तेल, कोयला से इलेक्‍ट्रानिक्‍स तक जरुरी चीजों लिए आयात पर निर्भरता, अब रह रह कर घायल करेगी।
डॉलरों की कमी भारत पुराना व सबसे बड़ा खौफ है इसलिए विदेशी मुद्रा मोर्चे पर आपातकाल का ऐलान हो गया है। तीन माह में 12 फीसदी गिर चुके रुपये को बचाने के लिए दर्दनाक असर वाले सीधे उपायों की