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Saturday, January 23, 2021

बात निकलेगी तो.....


 

बी‌ती सदियों में दुनिया की प्रेरणा रहा अमेरिका 21वीं सदी में नसीहतों का अनोखी पाठशाला बन गया है. बीते दशक में उसने दुनिया को वित्तीय सबक दिए थे तो इस बार वह लोकतंत्र और गवर्नेंस के सबक की सबसे कीमती किताब बन गया है.

गवर्नेंस और लोकतांत्रिक संस्थाओं पर बात करते हुए भले ही हमें उबासी आती हो लेकिन असफल राजव्यवस्था (फेल्ड स्टेट) और अफरातफरी के बीच थोड़ा वक्त गुजारते ही सरकारी संस्थाओं से उम्मीद और भरोसे का मतलब समझ में आ जाता है. कोविड की महामारी और अमेरिकी चुनाव नतीजों ने पूरी दुनिया की संस्थाओं से अपेक्षा और उन पर विश्वास के नए अर्थ दिए हैं.

बाइडन के शपथ ग्रहण पर हमें अमेरिका के दो चेहरे नजर आए. एक तरफ महामारी के सामने बिखर जाने वाला दुनिया का सबसे समृद्ध और ताकतवर मुल्क और दूसरी तरफ ऐसा देश जिसकी संस्थाओं ने सिरफिरे राष्ट्रपति की सभी कुटिल कोशि‍शों के बावजूद लोकतंत्र को बिखरने बचा लिया.

तकनीक संपन्न अमेरिका का कोरोना के सामने बिखर जाना आश्चर्यजनक था जबकि जर्मनी, फिनलैंड, आइसलैंड, डेनमार्क, नॉर्वे, न्यूजीलैंड, ताइवान (सभी में महिला नेतृत्व) ने महामारी का सामना बेहतर तरीके से किया. लैटिन अमेरिका में ब्राजील और मेक्सि‍को का बुरा हाल हुआ लेकिन उरुग्वे व कोस्टारिका जैसे देश संभले रहे.

वर्ल्ड गवर्नेंस इंडिकेटर (विश्व बैंक) बताता है कि पारदर्शिता और सरकारी व्यवस्था के उत्तरदायि‍त्व के पैमानों पर, बीते दशकों में अमेरिका की रैंकिंग (29वें और भ्रष्टाचार में 25वीं) लगातार गिरी है, जबकि जर्मनी और नॉर्डिक देश बेहतर रैंकिंग हासिल करते रहे.

अमेरिका में सरकारी संस्थाओं का क्षरण तो तेज रहा लेकिन ट्रंप के भरसक विध्वंस के बावजूद अमेरिका की लोकतांत्रिक संस्थाएं टिकी रहीं और संक्रमण को संभाल लेंगे गईं.

वायरस के सामने कुछ देश मजबूत और आधुनिक नए प्रयोगों से लैस नजर आए और कुछ पूरी तरह बिखरते हुए. जैसे कि कनाडा ने महामारी के दौरान अपने अस्सी साल पुराने स्कि‍ल डेवलपमेंट कार्यक्रम (1940) को पूरी तरह बदल दिया. इटली ने करीब पांच लाख परिवारों को चाइल्डकेयर की सुविधा उपलब्ध कराई. डेनमार्क ने नौकरियां गंवाने की कगार पर खड़े 90 फीसद लोगों को वेतन दिया. ब्रिटेन निजी कर्मचारियों के 80 फीसद औसत वेतन सरकारी मदद से संरक्षि‍त किए.

इनके विपरीत भारत को दुनिया का सबसे लंबा लॉकडाउन लगाकर 1952 के बाद सबसे बुरी आर्थि‍क चोट इसलिए आमंत्रि‍त करनी पड़ी क्योंकि हमारी व्यवस्थाएं महामारी में टिकने या खुद को तेजी से बदलने की क्षमता नहीं रखती थीं. भारत में सरकार ने प्लेग काल (1897) के महामारी कानून के सहारे ताकत तो समेट ली लेकिन तरीके नहीं बदले इसलिए मंदी के मारों को नीतिगत और आर्थि‍क मदद प्रभावी नहीं हो सकी.

कोवि‍ड ने बताया कि जिन देशों में लोकतांत्रिक संस्थाओं का ढांचा मजबूत व पारदर्शी था, संस्थाओं व समुदाय के बीच गहरा तालमेल था, सरकारें सच का सामना कर रही थीं, वहां कोविड से लडऩे में सफलता मिली और मुश्कि‍लों से निबटने के नए तरीके ईजाद हुए. सरकारी कर्ज और घाटे सभी जगह बढ़े लेकिन कुछ सरकारों ने संसाधनों को सेहत और जीविका बचाने पर केंद्रित किया और नतीजे हासिल किए.

इतिहास कहता है कि बड़े बदलाव बड़ी राजनैतिक अफरातफरी से निकलते हैं. रूस में जार युग के पतन के बाद (इटली-जर्मनी तक) ने बदलावों का एक दौर चला जो विश्व युद्ध के बाद लोकतंत्रों की वापसी और विश्व सहमति की स्थापना के बाद ही खत्म हुआ. महमारियां भी कम बड़े बदलाव नहीं लातीं. टायफायड न फैला होता स्पार्टा को एथेंस पर जीत (30 बीसी) न मिलती. रोमन लड़कर नहीं मरे. उनका पतन प्लेग (तीसरी सदी) से हुआ था. छोटी चेचक माया और इंका सभ्यताओं को निगल गई और 14वीं सदी के प्लेग ने यूरोप की सामंती प्रणाली को ध्वस्त कर औद्योगीकरण की राह खोली.

फिर क्या अचरज कि बाइडन की जीत से दुनिया में लोकतांत्रिक संस्थाओं की मजबूती के नए राजनैतिक अभि‍यान की शुरुआत हो और महामारी के सबक विश्व में सरकारों के कामकाज के तरीके बदल दें.

सत्तर वर्षीय गणतंत्र वाले भारतीय अगर अमेरिका की उथल-पुथल और महामारी से कुछ सीखना चाहें तो उन्हें क्या करना होगा? उन्हें पलट कर यह देखना होगा जब भारत अपने इतिहास की सबसे बड़ी आपदा से जूझ रहा था तब उसके गणतंत्र की संस्थाएं क्या कर रही थीं? सड़कों पर भटकते मजदूरों को देखकर संसद-विधानसभाओं में सरकार से कितने सवाल किए गए? सबसे बड़ी अदालत किसे न्याय दे रही थी? क्या नियामक यह जांच रहे थे कि राहतों का काम पारदर्शी ढंग से हो रहा है?

बीते एक साल ने हमें सि‍खाया है कि ताकतवर नेतृत्व, अकूत संसाधन, भीमकाय व्यवस्थाएं कुछ नहीं हैं. जिन देशों की संस्थाएं मजबूत व पारदर्शी थीं उन्होंने लोगों की जिंदगी और लोकतंत्र दोनों की रक्षा की है. यह वक्त है जब हम अपनी संवैधानिक संस्थाओं जैसे संसद, विधानसभाओं, अदालतों, नियामकों, विकेंद्रीकरण के बारे में सोचें क्योंकि इनकी परीक्षा का मौका कभी भी आ सकता है.

Thursday, November 12, 2020

जागत नींद न कीजै

 


कभी-कभी जीत से कुछ भी साबित नहीं होता और शायद हार से भी नहीं. फैसला करने वाले भी खुद यह नहीं समझ पाते कि बिहार जैसे जनादेश से वे हासिल क्या करना चाहते थे? जातीय समीकरणों के पुराने तराजू हमें यह नहीं बता पाते कि नए जनादेश और ज्यादा विभाजित क्यों कर देते हैं?

मसलन, किसी को यह उम्मीद नहीं है कि जो बाइडन की जीत से अमेरिका में सब कुछ सामान्य हो जाएगा या नई सरकार के नेतृत्व में बिहार नए सिरे से एकजुट हो जाएगा क्योंकि राजनैतिक विभाजन लोगों के मनोविज्ञान के भीतर पैठ कर लोकतांत्रिक संस्थाओं के लिए खतरा बन रहे हैं.

चतुर नेताओं ने लोगों के दिमाग में व्यवहार और विश्वास के बीच एक स्थायी युद्ध छेड़ दिया है. लोग अक्सर ऐसे फैसलों का समर्थन करने लगे हैं जो व्यावहारिक तौर पर उनके लिए नुक्सानदेह हैं. मिसाल के तौर पर उत्तर भारत में हवा दमघोंटू है, इसमें पटाखे चलाने से और ज्यादा बुरा हाल होगा, फिर भी पटाखों पर प्रतिबंध का विरोध सिर्फ इसलिए है क्योंकि लोगों को लगता कि यह पाबंदी एक समुदाय विशेष को प्रभावित करती है.

निष्पक्ष चिंतक इस बात से परेशान हैं कि सरकारों और लोकतांत्रिक संस्थाओं को इस विभाजक माहौल में ईमानदार व भरोसमंद कैसे रखा जाए? सरकारें एक किस्म की सेवा हैं, जिनकी गुणवत्ता और जवाबदेही सुनिश्चत होना अनिवार्य है. मिशिगन यूनिवर्सिटी ने 1960 के बाद अपने तरह के पहले अध्ययन में यह पाया कि लोग तीन वजहों से सरकारों पर भरोसा करते हैं एकसरकार ने अपनी जिम्मेदारी कैसे निभाई? दोसंकट में सरकार कितनी संवेदनशील साबित हुई है? तीनवह अपने वादों और नतीजों में कितनी ईमानदार है?

ताजा अध्ययन बताते हैं कि व्यवहार और विश्वास के बीच विभाजन के कारण लोग सरकारों का सही मूल्यांकन नहीं कर पा रहे हैं. जैसे ब्रेग्जिट या नोटबंदी से होने वाले नुक्सान को लोग समझ नहीं सके. उनके राजनैतिक विश्वास इतने प्रभावी थे कि उन्होंने व्यावहारिक अनुभवों को नकार दिया. 

कारनेगी एंडाउमेंट ऑफ ग्लोबल पीस ने (रिपोर्ट 2019) कई प्रमुख देशों (पोलैंड, तुर्की, ब्राजील, भारत, अमेरिका) में लोकतंत्र की संस्थाओं और समाज पर राजनैतिक ध्रुवीकरण के असर को समझने की कोशिश की है. इन देशों में राजनैतिक विभाजन ने न्यायपालिका, मीडिया, वित्तीय तंत्र, सरकारी विभागों और स्वयंसेवी संस्थाओं तक को बांट दिया है. गरीबों को राहत के बंटवारे भी राजनैतिक आग्रह से प्रभावित हैं. संस्थाएं इस हद तक टूट रही हैं कि इन देशों में अब सियासी दल चुनाव में हार को भी स्वीकार नहीं करते, जैसा कि अमेरिका में हुआ है.

तुर्की का समाज इतना विभाजित है कि दस में आठ लोग उन परिवारों में अपने बच्चे का विवाह या उनके साथ कारोबार नहीं करना चाहते जो उस पार्टी को वोट देते हैं जिसे वे पसंद नहीं करते. भारत में भी ये दिन दूर नहीं हैं.

इस तरह विभाजित मनोदशा में मिथकीय वैज्ञानिक फाउस्ट की झलक मिलती है. जर्मन महाकवि गेटे के महाकाव्य का केंद्रीय चरित्र मानवीय दुविधा का सबसे प्रभावी मिथक है. फाउस्ट ने अपनी आत्मा लूसिफर (शैतान) के हवाले कर दी थी. इस समझौते (फाउस्टियन पैक्ट) ने फाउस्ट के सामान्य विवेक को खत्म कर उसे स्थायी अंतरविरोध से भर दिया, जिससे वह सही फैसले नहीं कर पाता. 

सत्ता का साथ मिलने पर राजनैतिक विभाजन बहुत तेजी से फैलता है क्योंकि इसमें लाभों का एक सूक्ष्म लेन-देन शामिल होता है. राजनैतिक विभाजन को भरना बहुत मुश्किल है फिर भी बहुत बड़े नुक्सान को रोकने के लिए उपाय शुरू हो गए हैं. केन्या ने 2010 में नए संविधान के जरिए निचली सरकारों की ताकत बढ़ाई ताकि केंद्र की सत्ता पर काबिज होने के लिए विभाजन की राजनीति पर रोक लगाई जा सके.

अमेरिका के राज्य मेन ने 2016 में नई वोटिंग प्रणाली के जरिए नकारात्मक प्रचार रोकने और मध्यमार्गी प्रत्याशी चुनने का विकल्प दिया है. इक्वाडोर के राष्ट्रपति लेनिन मॉरेनो ने अपने पूर्ववर्ती राष्ट्रपति के विभाजक राजनैतिक फैसलों को वापस लेकर लोकतंत्र की मरम्मत करने कोशिश की है.

जीएसटी और कृषिकानूनों पर केंद्र और राज्य के बीच सीधा व संवैधानिक टकराव सबूत है कि भारत में यह विभाजन बुरी तरह गहरा चुका है. बिहार चुनाव के बाद यह आग और भड़कने वाली है. भारत को जिस वक्त मंदी से निजात और रोजगार के लिए असंख्य फैसलों पर व्यापक राजनैतिक सर्वानुमति की दरकार है तब यह राजनैतिक टकराव लोकतंत्र की संस्थाओं में पैठकर न्याय, समानता, पारदर्शिता, संवेदनशीलता जैसे बुनियादी दायित्वों को प्रभावित करने वाला है. इसके चलते सरकारों से मोहभंग को ताकत मिलेगी.

उपाय क्या है? आग लगाने वालों से इसे बुझाने की उम्मीद निरर्थक है. हमें खुद को बदलना होगा. प्लेटो कहते थे, अगर हम अपनी सरकार के कामकाज से बेफिक्र हैं तो नासमझ हमेशा हम पर शासन करते रहेंगे.

 

Friday, July 31, 2020

देखत जग बौराना



त्थू हलवाई और डोनाल्ड ट्रंप दोनों एक ही भ्रम में थे कि हमें कोरोना कैसे हो सकता है? ट्रंप ने शुरुआत में (अब तक 1.5 लाख मौतें) वायरस को झूठा खौफ कहा था और वे भारत में (अब तक 15 लाख संक्रमण) तालियां बटोरने गांधीनगर गए. दूसरी तरफ मास्क पूछने पर गाली बकने वाले नत्थू समोसे बेचते हुए खुद अस्पताल पहुंच गए और बहुतों को कोविड बांट दिया.

मास्क पहनने वाले, जूम वीडियो की जगह जूम टेक्नो का शेयर खरीद लेने वाले और भारत-चीन के मुखिया की बीते छह बरस में 18 मुलाकातों पर लहालोट होने वालों में अनोखी समानता है. सभी आशावादी पूर्वाग्रह शिकार हैं, जिससे अभिभूत असंख्य भारतीय मानते हैं कि आत्मनिर्भर पैकेज से मंदी यूं गई समझो या बैंकों में रखी उनकी बचत पूरी तरह सुरक्षि है.

मनोविज्ञानियों ने आशावादी पूर्वाग्रह (ऑप्टिमिज्म बायस) की खोज 1980 में ही कर ली थी लेकिन हेल्थ और वेल्थ यानी सेहत और निवेश-बचत पर इसके नुक्सानदेह असर के बारे में हाल में ही पता लगा. मानवीय व्यवहारों के नए अध्ययन बताते हैं कि दुनिया के 80 फीसद लोग इसके शिकार हैं. वे अपने ही दिमाग की चालबाजी समझ नहीं पाते. तथ्यहीन आशाओं के कारण इस पूर्वाग्रह के मरीजों को हमेशा लगता है कि मुसीबत उन पर नहीं पड़ोसी पर आएगी. नतीजतन वे गलत फैसले कर बैठते हैं.

संतुलित आशावाद रोगों से लड़ने में मदद करता है लेकिन आज अगर दुनिया में छह लाख लोगों ने कोविड से (1.65 करोड़ बीमार) जान गंवाई हैं तो इसकी वजह यही दंभयुक्त भ्रम है कि कोरोना हमें नहीं हो सकता. यूरोप-अमेरिका में भी बहुतों ने शारीरिक दूरी और मास्क की अहमियत समझने में लंबा वक्त जाया कर दिया.

मनोभ्रमों की दुनिया पुरानी है. आर्थि या शारीरिक (सेहत) जीवन पर इसके असर की पैमाइश अभी शुरू हुई है. इक्कीसवीं सदी की दो आपदाओं ने यह साबित किया कि आशावादी पूर्वाग्रह के कारण तकनीक और ज्ञान से लैस देश भी आपदाओं का आकलन करने में चूक गए.

2008 में किसी को भरोसा नहीं था कि लीमन ब्रदर्स जैसा विराट बैंक डूब जाएगा, जैसे कि 2018 में कौन मान रहा था कि भारत में जेट एयरवेज डूब सकती है. ताली-थाली बजाने वाले दिनों में कोरोना से डराने और स्वास्थ्य सेवा पर सवाल उठाने वाले दुरदुराए जा रहे थे. इसी तरह बहुत लोग आज यह नहीं मानेंगे कि कोविड बैंकों पर बहुत भारी पडे़गा या एलआइसी भी कभी डूब सकती है!

सब चंगा सीवाले भ्रमों-पूवाग्रहों का एक पूरा परिवार है जो गलत फैसले करने पर मजबूर करता है. जैसे सन्नाटों के सिलसिले (स्पाइरल ऑफ साइलेंस) नामक मनोभ्रम को ही लें. चीन कब संदिग्ध नहीं था पर छह साल में जब भारत-चीन समझौते या
चीनी कंपनियों के निवेश हो रहे थे तब सवाल पूछने की बजाए विदेश नीति की कामयाबी के ढोल बजाए जाने लगे. नतीजा
आज सामने आया.

वित्तीय बाजारों के शुक्राचार्य कभी मान ही नहीं सकते थे कि लाइबोर (दुनिया में ब्याज दर तय करने का अंतरराष्ट्रीय पैमाना) को चुराया जा सकता है. लेकिन उनके सामने बैंक डूबे और लाइबोर की फिक्सिंग हो गई. वे सब उपलब्ध तथ्यों के पार देखने को (अवेलेबिलिटी बायस) राजी नहीं थे. तभी तो ज्ञानी जानवरों के झुंड (हर्ड बिहेवियर) इस साल मार्च में जूम वीडियो की जगह जूम टेक्नो के शेयर खरीदने दौड़ पड़े थे.

जीएसटी की तैयारी अधूरी थी लेकिन आशावादी पूर्वाग्रह (ऐसा  मनोभ्रम जिसमें तथ्यों को ही नकार कर, पहले ही नतीजे तय कर दिए जाते हैं) पूरा था. सो, भारत की कथि आर्थिक क्रांति तीन माह में ही ध्वस्त हो गई.

आशावादी पूर्वाग्रहों से ग्रसित लोगों की भीड़, सामूहिक अज्ञान (प्लुरलिस्टिक इग्नोरेंस) में फंस जाती है. इस तरह के समाज तथ्यों और अतीत के अनुभवों को नकार कर पूर्वाग्रहों के आधार पर सूचनाओं की व्याख्या की आदत डाल लेते हैं और एक मनगढ़ंत सहमति (फॉल्स कन्सेंसस) जन्म लेती है. कुटिल राजनीति के लि यह सबसे बड़ी मन्नत पूरी होने जैसा है. जैसे कि बुनियादी अर्थशास्त्र समझने वाले किसी भी व्यक्ति को पता था कि नोटबंदी के दौरान 95 फीसद मुद्रा बाजार से खींच लेने के बाद अर्थव्यवस्था ध्वस्त हो जाएगी पर लोग सवाल उठाने की बजाए पालकी उठाने में लग गए.

मुश्कि यहां तक बढ़ चुकी है कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और मशीन लर्निंग के निर्माताओं के पूर्वाग्रह उनके प्रोग्राम में घुसकर नतीजों को प्रभावित कर रहे हैं.

माया को सत्य की छाया मानने वाला भारतीय दर्शन, संदेह (जैन दर्शन का स्यादवाद) को ज्ञान के केंद्र में रखता है. संशय यानी जागरूकता सेहत और संपत्तिदोनों के लि लाभदायक है. सरकारी दावों और सूचनाओं को नमक चाटकर निगलने वाले हमेशा फायदे में रहे हैं. सवाल उठाने वाले नकारात्मक नहीं हैं. वह उस सुरक्षा चक्र का हिस्सा हैं जो अंधी श्रद्धा को तर्कसंगत विश्वास में बदलता है.

जागते रहिए, कहीं कोई मसीहा नहीं है जो मौके पर प्रकट होकर आपका सब कुछ बिखरने से बचा लेगा.