मधु कोड़ा को तो कोस ही रहे हैं न, लगे हाथ कुदरत को भी कोसिये, कानून को भी और साथ में खुद को भी। कुदरत जहां जमीन के नीचे समृद्धि का हिरण्य (सोना) भर देती है वहां जमीन के ऊपर हमेशा हिंसा,अपराध और भ्रष्टाचार का महाअरण्य उग आता है। इसलिए ही तो महज एक दशक के राजनीतिक अतीत और तीस माह से भी कम के कार्यकाल में मधु कोड़ा भारत में राजनीतिक भ्रष्टाचार के महा खलनायक बन जाते हैं। चौंकिये मत, मधु कोड़ा दुनिया के उन असंख्य घृणित भ्रष्टाचार प्रसं"ों में एक नया संदर्भ हैं जो खनिजों से भरी धरती के ऊपर जन्मते रहे हैं। सीको मोबोतू, (जैरे के पूर्व शासक) सानी अबाचा (नाइजीरिया के पूर्व शासक) और युवारो मुसुवेनी (युगांडा के पूर्व शासक) आदि ने जिस तरह खनिज संपत्ति से भरपूर वसुधा पर भ्रष्टाचार के अप्रतिम भवन बनाये थे मधु कोड़ा ने भी ठीक उसी तरह झारखंड में भ्रष्टाचार के शिखर गढ़े हैं। प्राकृतिक समृद्धि अक्सर सत्ता तंत्र को बिगाड़ती है तभी तो दुनिया के सर्वकालिक दस महाभ्रष्ट नेताओं में से आधे से अधिक का रिश्ता किसी न किसी तरह से प्राकृतिक समृद्धि की जमीनों से है। इन्हें देखकर ही आर्थिक दुनिया को समृद्धि के अभिशाप या रिसोर्स कर्स का सिद्धांत गढ़ना पड़ा। खनिजों से भरपूर धरती के ऊपर अगर कानून ढीले और नेता लालची हों तो वहां डेमोक्रेसी या आटोक्रेसी नहीं बल्कि क्लेप्टोक्रेसी (लूट का शासन)राज करती है, जो सिर्फ लूटना और लुटाना जानती है। दीन हीन और दरिद्र अधिकांश अफ्रीका आज इसी समृद्धि से शापित और इस प्रणाली से शासित है। झारखंड भारत में इस अभिशाप और शासन की एक ताजी बानगी है।
गरीब बनाने वाली अमीरी
झारखंड को अगर कुछ देर के लिए हम एक स्वतंत्र देश में मान लें तो अफ्रीका में इसके कई समतुल्य मिल जाएंगे। यहां वह सब कुछ है जो एक रिसोर्स कर्स्ड यानी समृद्धि से शापित किसी मुल्क में होता है। जाम्बिया, कांगो, नाइजीरिया, सिएरा लियोन, अंगोला, लाइबेरिया हो सकता है कि झारखंड से बदतर हों लेकिन समृद्धि के अभिशाप के मामले में झारखंड उनके ही जैसा है। अफ्रीका के इन सभी अजीबोगरीब बदकिस्मत में मुल्कों में गृह युद्ध, हथियार बंद गिरोह, मौत, बीमारी, गरीबी का साम्राज्य वर्षो से है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां इन देशों को निचोड़ती हैं और भ्रष्ट राजनेता व नौकरशाह सभी सुख भोगते हैं। रक्तपात, भ्रष्टाचार, रिश्वत देने वाली कंपनियां, दरिद्र जनता और कमजोर विकास दर, समृद्धि से अभिशप्त किसी भी क्षेत्र की पहचान हैं और झारखंड में यह सब पूरी ठसक के साथ मौजूद है। यहां सिएरा लिओन जैसा गृह युद्ध भले न हो मगर नक्सलवाद है तो जो संगठित पुलिस व सुरक्षा बल पर हमला करता है। गरीबी की रेखा नीचे एक बड़ी आबादी है, तरह तरह से छले जाते आदिवासी है और इन सब के ऊपर मधु कोड़ाओं का भ्रष्ट तंत्र है। समृद्धि के अभिशाप को फलीभूत होने के लिए और क्या चाहिए? इसलिए ही तो एक सीमित क्षेत्र में तेल, हीरे, सोने अन्य खनिजों की भरमार को दुनिया अर्थशास्त्री अवसर कम आफत ज्यादा मानते हैं। क्यों कि प्राकृतिक समृद्धि कुछ ऐसी पेचीदा आर्थिक विसंगतियां पैदा कर देती जिससे बहुत किस्मत वाले राष्ट्र निकल पाते हैं।
खोदो-खाओ-खिलाओ
भारत की 40 फीसदी खनिज संपदा अपने गर्भ में संजोये झारखंड की विकास दर आखिर राष्ट्रीय आर्थिक विकास दर या कई अन्य रा'यों से कम क्यों है? क्यों सालाना करीब 6000 करोड़ रुपये के खनिज उत्पादन वाले इस राज्य में 75 फीसदी लो"ों के पेट में दाना खेती से ही पड़ता है? दुनिया भर अर्थशास्त्री यह गुत्थी नहीं सुलझा पाते आखिर प्रकृति से उपकृत देश या राज्य विकास में उन देशों या राज्यों से पीछे क्यों होते हैं जहां प्राकृतिक संसाधनो की इतनी भरमार नहीं है। दरअसल प्राकृतिक समृद्धि जल्दी पैसा कमाने का मौका देती है। खनिज निकालने के लिए उद्योग बिठाने की जरुरत नहीं होती। इसलिए जो देश अकूत खनिजों के धनी हैं वहां औद्योगिकीकरण कम होता है और कमाई कुछ लोगों के हाथ केंद्रित है। अफ्रीकी देश गैबन प्रतिदिन तीन लाख बैरल तेल निकालता है, लेकिन यहां सब कुछ आयात होता है। नाइजीरिया में दुनिया का सबसे दसवां सबसे बड़ा तेल भंडार है लेकिन नाइजर डेल्टा के लोग पत्थर युग में जी रहे है। कांगो की कहानी दुनिया जानती है और लाइबेरिया की लकड़ी बेचकर हथियारबंद गुरिल्ला गिरोह एक दूसरे को मारते हैं। खनन उद्योग वह सरकारों को अच्छे राजस्व और राजनेताओं को शीघ्र धन लाभ के नायाब सूत्र देता है और खनन के अधिकार हासिल कर संगठित मैन्युफैक्चरिंग उद्योग पनपने की संभावनायें समाप्त कर देता है। समृद्धि के अभिशाप का एक पहलू यह भी है कि एक जगह एक खनिज का बड़ा भंडार मिलने के बाद अन्य स्थानों पर इसे तलाशने की कोशिशें धीमी पड़ जाती हैं। खनिज अपनी खनन लागत से ज्यादा रिटर्न देते हैं इसलिए यह चोखा धंधा है और खनन उद्योग भ्रष्टाचार के लिए दुनिया में बदनाम है।
कानून की कठपुतलियां
ढाई साल में तो कोई मुख्यमंत्री सत्ता व प्रशासन की बारीकी समझ पाता है और वह भी जब उसे पहली बार यह कुर्सी मिली हो लेकिन कोड़ा ने ढाई साल में सब कुछ कर लिया। खनिजों से भरपूर क्षेत्रों में ऐसा होना आम बात है। दरअसल प्राकृतिक समृद्धि, रिश्वत देने वाली कंपनियां और लालची नेता मिलकर एक दुष्चक्र बना देते हैं जिनके बीच फंसकर कानून कठपुतलियों की तरह नाचते हैं। खनन उद्योग सबसे जल्दी कमाई कराता है इसलिए यहां राजनेता आनन फानन मे कानून बदलते हैं। खनन उद्यो" से जुड़े लोग अक्सर चुटकी लेते हैं कि इस कारोबार में फाइलें सबसे तेज चलती हैं। कमजोर संस्थायें और व्यवस्था तथा निवेश करने वाले भ्रष्ट मगर बड़े नामों का प्रचार तंत्र राजनेताओं पूरी मदद देता है। इसलिए खनिज से धनी देशों में भ्रष्टाचार पूरी तरह संगठित है। बल्कि अब दुनिया की कंपनियां तो इस बात पर बहस करती हैं कि राजनीतिक भ्रष्टाचार का सुहार्तो मॉडल उचित है या भारतीय मॉडल। कोरिया या इंडोनेशिया में लेनहार एक ही था मगर भारत में कई हैं। अगर कानून कमजोर हों तो लोकतंत्र में भ्रष्टाचार किसी अन्य शासन प्रणाली से ज्यादा होता है और सरकारें अस्थिर व कमजोर हों तो फिर क्या कहने? यही वजह है मैनकर ओल्सन(लॉबीइंग या इंटरेस्ट ग्रुप सिद्धांत के प्रणेता) ने शायद भ्रष्टाचार के संदर्भ में कहीं लिखा था कि घुमंतू लुटेरों से तो स्थायी लुटेरे ठीक हैं। अर्थात भ्रष्ट सरकारें स्थिर हों तो भी राहत है कम से कम कुछ तो तय होता है।
ऐसा नहीं है कि खनिजों से मालामाल दुनिया के सभी देश अभिशप्त हैं। अफ्रीका में बोत्सवाना, यूरोप में नार्वे, उत्तर अमेरिका में कनाडा, ओशेनिया में ऑस्ट्रेलिया ऐसे देश हैं जिन्होंने समृद्धि के अभिशाप को बेअसर किया है। हीरे जैसे अभिशप्त खनिज से भरपूर बोत्सवाना के ईमानदार राजनेताओं व मजबूत संस्थाओं उसे अंगोला या नाइजीरिया नहीं बनने दिया और अपने मुल्क को दुनिया की सबसे तेज विकास वाली अर्थव्यवस्थाओं में शामिल किया। दुनिया का तीसरे सबसे बड़े तेल निर्यातक नार्वे ने भी अपनी प्राकृतिक समृद्धि को कायदे से संभाला है। भारत में झारखंड प्राकृतिक समृद्धि से आने वाली बीमारियों का बनता हुआ नमूना है। भारत के कुछ अन्य राज्य भी इससे नसीहत ले सकते है क्यों कि भ्रष्टाचार व हिंसा के रुप में समृद्धि का अभिशाप इस राज्य पर असर करता दिखने लगा है। अगर कोई सबक ले तो संभावनामय झारखंड बोत्सवाना बन सकता है नहीं तो इसकी हिरण्यगर्भा धरती इसे हथियार बंद गिरोहों और भ्रष्ट नेताओं का अभयारण्य बनाने लगी है। anshumantiwari@del.jagran.com
गरीब बनाने वाली अमीरी
झारखंड को अगर कुछ देर के लिए हम एक स्वतंत्र देश में मान लें तो अफ्रीका में इसके कई समतुल्य मिल जाएंगे। यहां वह सब कुछ है जो एक रिसोर्स कर्स्ड यानी समृद्धि से शापित किसी मुल्क में होता है। जाम्बिया, कांगो, नाइजीरिया, सिएरा लियोन, अंगोला, लाइबेरिया हो सकता है कि झारखंड से बदतर हों लेकिन समृद्धि के अभिशाप के मामले में झारखंड उनके ही जैसा है। अफ्रीका के इन सभी अजीबोगरीब बदकिस्मत में मुल्कों में गृह युद्ध, हथियार बंद गिरोह, मौत, बीमारी, गरीबी का साम्राज्य वर्षो से है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां इन देशों को निचोड़ती हैं और भ्रष्ट राजनेता व नौकरशाह सभी सुख भोगते हैं। रक्तपात, भ्रष्टाचार, रिश्वत देने वाली कंपनियां, दरिद्र जनता और कमजोर विकास दर, समृद्धि से अभिशप्त किसी भी क्षेत्र की पहचान हैं और झारखंड में यह सब पूरी ठसक के साथ मौजूद है। यहां सिएरा लिओन जैसा गृह युद्ध भले न हो मगर नक्सलवाद है तो जो संगठित पुलिस व सुरक्षा बल पर हमला करता है। गरीबी की रेखा नीचे एक बड़ी आबादी है, तरह तरह से छले जाते आदिवासी है और इन सब के ऊपर मधु कोड़ाओं का भ्रष्ट तंत्र है। समृद्धि के अभिशाप को फलीभूत होने के लिए और क्या चाहिए? इसलिए ही तो एक सीमित क्षेत्र में तेल, हीरे, सोने अन्य खनिजों की भरमार को दुनिया अर्थशास्त्री अवसर कम आफत ज्यादा मानते हैं। क्यों कि प्राकृतिक समृद्धि कुछ ऐसी पेचीदा आर्थिक विसंगतियां पैदा कर देती जिससे बहुत किस्मत वाले राष्ट्र निकल पाते हैं।
खोदो-खाओ-खिलाओ
भारत की 40 फीसदी खनिज संपदा अपने गर्भ में संजोये झारखंड की विकास दर आखिर राष्ट्रीय आर्थिक विकास दर या कई अन्य रा'यों से कम क्यों है? क्यों सालाना करीब 6000 करोड़ रुपये के खनिज उत्पादन वाले इस राज्य में 75 फीसदी लो"ों के पेट में दाना खेती से ही पड़ता है? दुनिया भर अर्थशास्त्री यह गुत्थी नहीं सुलझा पाते आखिर प्रकृति से उपकृत देश या राज्य विकास में उन देशों या राज्यों से पीछे क्यों होते हैं जहां प्राकृतिक संसाधनो की इतनी भरमार नहीं है। दरअसल प्राकृतिक समृद्धि जल्दी पैसा कमाने का मौका देती है। खनिज निकालने के लिए उद्योग बिठाने की जरुरत नहीं होती। इसलिए जो देश अकूत खनिजों के धनी हैं वहां औद्योगिकीकरण कम होता है और कमाई कुछ लोगों के हाथ केंद्रित है। अफ्रीकी देश गैबन प्रतिदिन तीन लाख बैरल तेल निकालता है, लेकिन यहां सब कुछ आयात होता है। नाइजीरिया में दुनिया का सबसे दसवां सबसे बड़ा तेल भंडार है लेकिन नाइजर डेल्टा के लोग पत्थर युग में जी रहे है। कांगो की कहानी दुनिया जानती है और लाइबेरिया की लकड़ी बेचकर हथियारबंद गुरिल्ला गिरोह एक दूसरे को मारते हैं। खनन उद्योग वह सरकारों को अच्छे राजस्व और राजनेताओं को शीघ्र धन लाभ के नायाब सूत्र देता है और खनन के अधिकार हासिल कर संगठित मैन्युफैक्चरिंग उद्योग पनपने की संभावनायें समाप्त कर देता है। समृद्धि के अभिशाप का एक पहलू यह भी है कि एक जगह एक खनिज का बड़ा भंडार मिलने के बाद अन्य स्थानों पर इसे तलाशने की कोशिशें धीमी पड़ जाती हैं। खनिज अपनी खनन लागत से ज्यादा रिटर्न देते हैं इसलिए यह चोखा धंधा है और खनन उद्योग भ्रष्टाचार के लिए दुनिया में बदनाम है।
कानून की कठपुतलियां
ढाई साल में तो कोई मुख्यमंत्री सत्ता व प्रशासन की बारीकी समझ पाता है और वह भी जब उसे पहली बार यह कुर्सी मिली हो लेकिन कोड़ा ने ढाई साल में सब कुछ कर लिया। खनिजों से भरपूर क्षेत्रों में ऐसा होना आम बात है। दरअसल प्राकृतिक समृद्धि, रिश्वत देने वाली कंपनियां और लालची नेता मिलकर एक दुष्चक्र बना देते हैं जिनके बीच फंसकर कानून कठपुतलियों की तरह नाचते हैं। खनन उद्योग सबसे जल्दी कमाई कराता है इसलिए यहां राजनेता आनन फानन मे कानून बदलते हैं। खनन उद्यो" से जुड़े लोग अक्सर चुटकी लेते हैं कि इस कारोबार में फाइलें सबसे तेज चलती हैं। कमजोर संस्थायें और व्यवस्था तथा निवेश करने वाले भ्रष्ट मगर बड़े नामों का प्रचार तंत्र राजनेताओं पूरी मदद देता है। इसलिए खनिज से धनी देशों में भ्रष्टाचार पूरी तरह संगठित है। बल्कि अब दुनिया की कंपनियां तो इस बात पर बहस करती हैं कि राजनीतिक भ्रष्टाचार का सुहार्तो मॉडल उचित है या भारतीय मॉडल। कोरिया या इंडोनेशिया में लेनहार एक ही था मगर भारत में कई हैं। अगर कानून कमजोर हों तो लोकतंत्र में भ्रष्टाचार किसी अन्य शासन प्रणाली से ज्यादा होता है और सरकारें अस्थिर व कमजोर हों तो फिर क्या कहने? यही वजह है मैनकर ओल्सन(लॉबीइंग या इंटरेस्ट ग्रुप सिद्धांत के प्रणेता) ने शायद भ्रष्टाचार के संदर्भ में कहीं लिखा था कि घुमंतू लुटेरों से तो स्थायी लुटेरे ठीक हैं। अर्थात भ्रष्ट सरकारें स्थिर हों तो भी राहत है कम से कम कुछ तो तय होता है।
ऐसा नहीं है कि खनिजों से मालामाल दुनिया के सभी देश अभिशप्त हैं। अफ्रीका में बोत्सवाना, यूरोप में नार्वे, उत्तर अमेरिका में कनाडा, ओशेनिया में ऑस्ट्रेलिया ऐसे देश हैं जिन्होंने समृद्धि के अभिशाप को बेअसर किया है। हीरे जैसे अभिशप्त खनिज से भरपूर बोत्सवाना के ईमानदार राजनेताओं व मजबूत संस्थाओं उसे अंगोला या नाइजीरिया नहीं बनने दिया और अपने मुल्क को दुनिया की सबसे तेज विकास वाली अर्थव्यवस्थाओं में शामिल किया। दुनिया का तीसरे सबसे बड़े तेल निर्यातक नार्वे ने भी अपनी प्राकृतिक समृद्धि को कायदे से संभाला है। भारत में झारखंड प्राकृतिक समृद्धि से आने वाली बीमारियों का बनता हुआ नमूना है। भारत के कुछ अन्य राज्य भी इससे नसीहत ले सकते है क्यों कि भ्रष्टाचार व हिंसा के रुप में समृद्धि का अभिशाप इस राज्य पर असर करता दिखने लगा है। अगर कोई सबक ले तो संभावनामय झारखंड बोत्सवाना बन सकता है नहीं तो इसकी हिरण्यगर्भा धरती इसे हथियार बंद गिरोहों और भ्रष्ट नेताओं का अभयारण्य बनाने लगी है। anshumantiwari@del.jagran.com