अगर 1999 या 2000 आज (2019) जैसा होता तो हम
कभी यह नहीं जान पाते कि करगिल के युद्ध में सरकार या सेना ने क्या गलती की थी? उस युद्ध में
जितनी बहादुरी सेना ने दिखाई थी उतनी ही वीरता से सामने आया था भारत का लोकतंत्र, सवाल जिसके प्राण
हैं.
करगिल के बाद
भारत में ऐसा कुछ अनोखा हुआ था जिस पर हमें बार-बार फख्र करना चाहिए. करिगल की
जांच के लिए तत्कालीन वाजपेयी सरकार ने एक समिति बनाई. यह समिति सरकारी नहीं थी
लेकिन कैबिनेट सचिव के आदेश से इसे अति गोपनीय रणनीतिक दस्तावेज भी दिखाए गए.
बहुआयामी अधिकारी
और रणनीति विशेषज्ञ के. सुब्रह्मण्यम के नेतृत्व में इस समिति ने न केवल सुरक्षा
अफसरों से बल्कि तत्कालीन और पूर्व प्रधानमंत्रियों, रक्षा मंत्रियों, विदेश मंत्रियों यहां तक कि पूर्व राष्ट्रपति
से भी पूछताछ की. करीब 15 खंड और 14 अध्यायों की
इसकी रिपोर्ट ने करगिल में भयानक भूलों को लेकर सुरक्षा, खुफिया तंत्र और
सैन्य तैयारियों की धज्जियां उड़ा दीं.
अगर 2017 भी आज जैसा होता
तो फिर हम यह कभी नहीं जान पाते कि भारत की फटेहाल फौज के पास दस दिन के युद्ध के
लायक भी गोला-बारूद नहीं है. सीएजी ने 2015 में ऐसी ही पड़ताल की थी. अगर 1989 भी आज की तरह
होता तो बोफोर्स पर एक मरियल-सी सीएजी रिपोर्ट (राफेल जैसी) सामने आ जाती.
सेना या सुरक्षा
बलों से रणनीति कहीं नहीं पूछी जाती. लेकिन लोकतंत्र में सेना सवालों से परे कैसे
हो सकती है? रणनीतिक फैसले
यूं ही कैबिनेट की सुरक्षा समिति नहीं करती है, जहां सेनानायक भी मौजूद होते हैं. इस समिति में वे सब लोग
होते हैं जो अपने प्रत्येक आचरण के लिए देश के प्रति जवाबदेह हैं.
लोकतंत्र के
संविधान सरकारों को सवालों में घेरते रहने का संस्थागत आयोजन हैं. संसद के प्रश्न
काल, संसदीय समितियां, ऑडिटर्स, उनकी रिपोर्ट पर
संसदीय जांच... सेना या सैन्य प्रतिष्ठान इस प्रश्न-व्यवस्था के बाहर नहीं होते.
लोकतंत्र में
वित्तीय जवाबदेही सबसे महत्वपूर्ण है. सैन्य तंत्र भी संसद से मंजूर बजट व्यवस्था
का हिस्सा है जो टैक्स या कर्ज (बैंकों में लोगों की बचत) पर आधारित है. इसलिए
सेना के खर्च का भी ऑडिट होता है, जिसमें कुछ संसद से साझा किया जाता है और कुछ गोपनीय होता
है.
पाकिस्तान में
नहीं पूछे जाते होंगे सेना से सवाल लेकिन भारत में सैन्य प्रतिष्ठान से पाई-पाई का
हिसाब लिया जाता है. गलतियों पर कैफियत तलब की जाती है. सेना में भी घोटाले होते
हैं. जांच होती है.
लोकतंत्र में
निर्णयों और उत्तरदायित्वों का ढांचा संस्थागत है, व्यक्तिगत नहीं. सियासत किसी एक व्यक्ति को
पूरी व्यवस्था बना देती है,
जिसमें गहरे
जोखिम हैं इसलिए समझदार राजनेता हमेशा संस्थाओं का सुरक्षा चक्र मजबूत करते हैं
ताकि संस्थाएं जिम्मेदारी लें और सुधार करें.
करगिल के बाद भी
राजनीति हुई थी. कई सवाल उठे थे, संसद में बहस भी हुई. सेना को कमजोर करने के आरोप लगे लेकिन
तब शायद लोकतंत्र ज्यादा गंभीर था इसलिए सरकार ने सेना और अपनी एजेंसियों पर
सवालों व जांच को आमंत्रित किया और स्वीकार किया कि करगिल की वजह भयानक भूलें थीं.
सुब्रह्मण्यम की रिपोर्ट पर कार्रवाई के लिए मंत्रिसमूह बना.
मई 2012 में तत्कालीन
यूपीए सरकार ने संसद को बताया था कि करगिल समीक्षा रिपोर्ट की 75 में 63 सिफारिशें लागू
की जा चुकी हैं. इन पर क्रियान्वयन के बाद भारत में सीमा प्रबंधन पूरी तरह बदल गया, ‘खुफिया तंत्र ठीक
हुआ’, नया साजो-सामान
जुटाया गया और सेना की कमान को समन्वित किया गया. करगिल पर उठे सवालों की वजह से
हम पहले से अधिक सुरक्षित हो गए.
जोश चाहे जितना
हो लेकिन उसमें लोकतंत्र का होश बने रहना जरूरी है. सवालों की तुर्शी और दायरा
बढऩा परिपक्व लोकतंत्र का प्रमाण है जबकि सत्ता हमेशा सवालों के दायरे
से बाहर रहने का उपक्रम करती है, जो गलतियों व जोखिम को सीधा न्योता है.
क्या हम नहीं
जानना चाहेंगे कि पुलवामा,
उड़ी और पठानकोट
हमलों में किसी एजेंसी की चूक थी? इनकी जांच का क्या हुआ? क्या सैन्य साजो-सामान जुटाने में देरी की वजह या अभियानों
की सफलता- विफलता की कैफियत नहीं पूछना चाहेंगे?
राजनेता कई
चक्रों वाली सुरक्षा में रहते हैं. खतरे तो आम लोगों की जिंदगी पर हैं. शहीद फौजी
होता है. लोकतंत्र में सरकार से सवाल पूछना सबसे बड़ी देशभक्ति है क्योंकि सवाल
ही हमारा सबसे बड़ा सुरक्षा कवच हैं.