अथार्थ
कितने बेचारे हैं हमारे हाकिम!.. एक मंत्री कहते हैं बाबा माफ करो, हमसे नहीं थमती महंगाई।.. बोरा भर कानून और भीमकाय अफसरी ढांचे वाली सरकार की यह मरियल विकल्पहीनता तरस के नहीं शर्मिंदगी के काबिल है। तो एक दूसरे हाकिम महंगाई से कुचली जनता को निचोड़ने के लिए तेल कंपनियों को खुला छोड़ देते है कोई चुनाव सामने जो नहीं है ! …. करोड़ो की सब्सिडी लुटाने वाली सरकार की यह अभूतपूर्व निर्ममता उपेक्षा के नहीं क्षोभ के काबिल है। एक तीसरे हाकिम को संवैधानिक संस्था (सीएजी) की वह रिपोर्ट ही फर्जी लगती है, जिस के आधार पर मंत्री, संतरी और कंपनियों तक को सजा दी जा चुकी है।... सरकार की यह बदहवासी हंसी के नहीं हैरत के काबिल है। सरकार के मंत्री अब काम नहीं करते बल्कि लड़ते हैं, कैबिनेट की बैठकों में उनके झगड़े निबटते हैं और जिम्मेदार महकमे अब एक दूसरे को उनकी सीमायें (औकात) दिखाते हैं सरकार में यह बिखराव आलोचना के नहीं दया के काबिल है। इतनी निरीह, निष्प्रभावी, बदहवास, बंटी, बिखरी और नपुंसक गवर्नेंस या सरकार आपने शायद पहले कभी नहीं देखी होगी। प्रधानमंत्री कार्यालय से लेकर सेना और सुप्रीम कोर्ट से लेकर सतर्कता आयोग तक देश की हर उच्च संस्था की साख इतना वीभत्स जुलूस भी पहली बार ही निकला है और इतना दिग्भ्रमित, निष्प्रयोज्य, नगण्य और बेअसर विपक्ष भी हमने पहली बार देखा है। ...यह अराजकता अद्भुत है। हम बेइंतिहा बदकिस्म्त हैं। हमारी सरकार कहीं खो गई है।
गलाघोंट गठबंधन
राजनीति में युवा उम्मीद (?) राहुल गांधी कहते हैं कि महंगाई रोकने में गठबंधन आड़े आता है। अभी तक तो हम गठबंधन की राजनीति का यशोगान सुन रहे थे। विद्वान बताते थे कि गठबंधन एक दलीय दबदबे को संतुलित करते हैं और क्षेत्रीय राजनीति को केंद्र में स्वर देते हैं। सुनते थे कि भारत ने गठबंधन की राजनीति का सुर साध लिया है और अब राज्यों की सरकारों को भी यह संतुलित रसायन उपलबध हो गया है। लेकिन महंगाई थामने में बुरी तरह हारी कांग्रेस को गठबंधन गले की फांस लगने लगा। गठबंधन की राजनीति के फायदों का तो पता नहीं अलबत्ता महंगाई और भ्रष्टाचार से क्षतविक्षत जनता से यह देख रही है कि राजनीतिक गठजोड़ अब लाभों के
बंटवारे की रिश्तेदारी है, क्षेत्रीय आकांक्षाओं को आवाज देने या विकास संतुलित करने की नहीं। यह बंटवारे तब तक सबको सुविधा देते हैं जब तक कि कोई किसी दूसरे के लाभ क्षेत्र में घुस कर भांजी नहीं मारने लगता। घटक दल की मंत्री होने के नाते ममता बनर्जी को देश सबसे बड़े परिवहन ढांचे अर्थात रेलवे की बुरी तरह अनदेखी करने की पूरी छूट है। सरकार को थामने वाला मराठी हाथ ( पवार एंड कंपनी) महंगाई बढ़ाने के उपाय करने को स्वनतंत्र है और डीएमके प्रधानमंत्री कार्यालय गठबंधन का अंगूठा दिखा कर स्पेपक्ट्रम बेच लेती है। अलबत्ता बात अब कुछ बदल गई है क्यों कि कांग्रेस के लिए लाभ का मतलब सरकार में लौटना और बने रहना है। साख और लोकप्रियता इस लाभ की बुनियादी शर्त है। महंगाई और घटक दलों की मनमानी अब कांग्रेस के इसी लाभ में भांजी मारने लगी हैं तो राहुल गांधी गठबंधन को कोस रहे हैं। वैसे जनता को इससे कोई मतलब नहीं कि कृषि या खाद्य मंत्री कांग्रेसी है अथवा घटक दल का, उसे तो बस यह मालूम है बहाना हो नीतिगत या अनीतिगत व्यापारियों से लेकर तेल कंपनियां तक हर कोई उन्हें नोचने को आजाद है क्यों कि सरकार अकर्मण्यव और बेबस है।
बंटवारे की रिश्तेदारी है, क्षेत्रीय आकांक्षाओं को आवाज देने या विकास संतुलित करने की नहीं। यह बंटवारे तब तक सबको सुविधा देते हैं जब तक कि कोई किसी दूसरे के लाभ क्षेत्र में घुस कर भांजी नहीं मारने लगता। घटक दल की मंत्री होने के नाते ममता बनर्जी को देश सबसे बड़े परिवहन ढांचे अर्थात रेलवे की बुरी तरह अनदेखी करने की पूरी छूट है। सरकार को थामने वाला मराठी हाथ ( पवार एंड कंपनी) महंगाई बढ़ाने के उपाय करने को स्वनतंत्र है और डीएमके प्रधानमंत्री कार्यालय गठबंधन का अंगूठा दिखा कर स्पेपक्ट्रम बेच लेती है। अलबत्ता बात अब कुछ बदल गई है क्यों कि कांग्रेस के लिए लाभ का मतलब सरकार में लौटना और बने रहना है। साख और लोकप्रियता इस लाभ की बुनियादी शर्त है। महंगाई और घटक दलों की मनमानी अब कांग्रेस के इसी लाभ में भांजी मारने लगी हैं तो राहुल गांधी गठबंधन को कोस रहे हैं। वैसे जनता को इससे कोई मतलब नहीं कि कृषि या खाद्य मंत्री कांग्रेसी है अथवा घटक दल का, उसे तो बस यह मालूम है बहाना हो नीतिगत या अनीतिगत व्यापारियों से लेकर तेल कंपनियां तक हर कोई उन्हें नोचने को आजाद है क्यों कि सरकार अकर्मण्यव और बेबस है।
साख नहीं शर्मिंदगी
भारतीय सेना आने वाले कुछ वर्षों में अपने शौर्य के लिए नहीं बल्कि चौर्य ( घोटालों) के लिए जानी जाएगी। बेचारे रक्षा मंत्री को पता हीं नहीं उनका कौन सा बहादुर सिपहसालार कब कहां जमीन बेचे ले रहा है। नतीजतन उन्हें सेना की जमीनों का रिकार्ड सबके सामने रखने की तैयारी करनी पड़ रही है। जानकार कहते हैं कि भारतीय सेना के भीतर घोटालों की सेना है। भारत की सबसे अनुशासित संस्था का यह क्षरण दयनीय है। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यांयाधीश को खुद नहीं पता कि कहां किस अदालत में किस वकील का चाचा मामा (अंकल जज) जज की कुर्सी पर बैठकर इंसाफ को फांसी पर चढ़ा रहा है। न्याय की आखिरी उम्मीद का इतना दागदार होना घातक है। हम आजादी के बाद के पहली बार देश की सभी अहम संस्थाओं साख में इतनी भयानक गिरावट देख रहे हैं। पिछले एक अर्से में देश ने पैसा लेकर सवाल पूछते सांसदों, निरीह प्रधानमंत्री कार्यालय ( 2जी घोटाला), सच छिपाने वाली सबसे बड़ी अदालत ( चेन्नोई हाई कोर्ट के जज रघुपति को धमकाने और पूर्व मुख्यश न्यायाधीश बालाकृष्णपन के उस पर पर्दा डालने), दागी नेतृत्व वाले सतर्कता आयोग ( के जी थॉमस) और कई भ्रष्टतम मुख्यमंत्रियों को देखा है। लोकतंत्र की नाक हमेशा इसलिए ऊंची रहती है क्यों कि इसकी संस्थायें आगे आकर मसीहा बन जाती है। लेकिन यहां तो एक के बाद एक सभी प्रतिमान ढह रहे हैं।
कानून का कुराज
दुनिया की हर विकसित होती अर्थव्यवस्था सबसे तेजी से अपने कानून बदलती है क्यों कि विकास के नए आयामों को नए कानूनों का संरंक्षण चाहिए। अनुशासन के पैमाने भी बदलाव मांगते हैं ताकि वक्तो की तेज दौड़ में कानून की व्यवस्था पिछड़ न जाए। भारत में वक्त इतनी तेज दौड़ा कि कानून हांफने लगे। अपराधों का चिंदी चोर वाला चेहरा अंतरराष्ट्रीय संगठित अपराधों में बदल गया। कुछ करोड़ का वित्तीय बाजार लाखों करोड़ के जटिल वित्तीय सौदों में खेलने लगा। तकनीक सुविधा के साथ चालाक अपराध भी लाई। सरकार ने सेवाओं और उद्योग से रिटायरमेंट ले लिया और निजी क्षेत्र देश चलाने लगा लेकिन इन बदलावों बीच कानूनों की झुर्रियां बढ़ती चली गईं। अमेरिका ने वर्षों पूर्व अपने पहले बड़े वित्तीय घोटाले (वर्ल्ड कॉम) के बाद अपने अकाउंटिंग कानून बदल दिये थे और ताजे संकट के बाद वहां सबसे सख्त बैंकिंग कानून लागू हो गए हैं मगर हम कई घोटालों के बाद भी लगभग हर क्षेत्र में पुरानी व्यवस्था ढो रहे हैं। पिछले एक दशक में दुनिया की कई सरकारों ने भ्रष्टाचार को लेकर अपने कानून नए सिरे से लिखे हैं, मगर हमारे हाकिम भ्रष्टाचार के दुर्लभ खुलासों को ही गलत ( सिब्बल बनाम सीएजी) ठहरा देते हैं।
हम खुश हैं कि विकास,आय व सुविधायें बढ़ी हैं लेकिन शर्मिंदा हैं कि हमारी लोकतांत्रिक संस्थायें ढही और दागी हुई हैं। नपुंसक सरकारों से बड़ा अभिशाप और कुछ नहीं है। अगर किसी व्यवस्था में यह धारणा बैठ जाए कि शिखर से लेकर तलहटी तक कानून का राज नहीं है और कुछ लोग, कुछ भी करने को स्वातंत्र हैं तो फिर बेलगाम महंगाई क्या कोई भी संकट छोटा है। जरा गौर से इर्द गिर्द देखिये, घोटालों व महंगाई पर सरकारी निष्क्रियता और बोदे विपक्ष के ताजे प्रसंगों को को याद कीजिये और फिर अपनी संवेदनशीलता को पिन चुभाइये। आपको महसूस होगा कि हम गवर्नेंस के ध्वस्त होने यानी अराजकता के गंभीर संकट की तरफ बढ़ रहे हैं। ...गुस्सा होना आपका हक बनता है।
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3 comments:
गुस्सा करके भी क्या होगा, जब हाकिम यह कहते हों कि कर लो जो करना है,
तुम आखिर हमारा क्या उखाड़ लोगे?
Dear Sir, Ekdum sach likha hai....lekin kya karein....
Log Marte rahein to accha hai,
Apni to Lakdi ki taal hai sahib..
Atul Kushwaha
Lekin ham karen kys???
Ek se badhkar ek neta gan hain is duniya mein...
yahan kuan udhar khai...
khali kudhne se kuch hoga nahin!!!
We need to look at not just the
problems but possible solutions...
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