अगर हमें बताया जाए कि हमारे मुहल्ले, गांव या कस्बे में हर पांचवां व्यक्ति कोविड की चपेट में है, 40 फीसद की हालत गंभीर हो रही है तो क्या हम ज्यादा सुरक्षित होने की कोशिश नहीं करेंगे?
ऑक्सीजन की चीख-पुकार
और श्मश्मानों पर कतार के बीच लोग समझ नहीं पा रहे हैं कि उनकी तबाही सरकारी आंकड़ों में क्यों नहीं दिखती? सच
छिपाकर सरकार को क्या मिलता है?
महामारी का विज्ञान रहीम के दोहे जितना आसान है:
खैर, खून, खांसी, खुसी, बैर, प्रीति, मदपान/
रहिमन दाबे न दबै, जानत सकल जहान
(अच्छी सेहत, खून, खांसी, खुशी, दुश्मनी, प्रेम
और मदिरा का नशा छुपाए नहीं छुपता है).
यही वजह है कि अलग-अलग
देशों ने एक दूसरे की गलतियों से बहुत कुछ सीखा है लेकिन हम तो विश्व गुरु हैं, भाई! इसलिए हम बीमारी के बजाए आंकड़ों का इलाज कर रहे हैं.
कितने
बीमार?
महामारी की नाप-जोख
के दोनों ही पैमाने संदेह के कीचड़ में लिथड़े हैं. सरकार
के प्रचारक दस लाख की आबादी की पर सबसे कम बीमारों की संख्या पर लहालोट हैं लेकिन भारत में दस लाख की आबादी पर केवल 32,000 जांच हो रही हैं यानी 3 फीसद. देश की कुल आबादी की तुलना में यह मजाक ही है.
महामारी की पैमाइश दो लहरों के बीच तुलना से होती है. विभिन्न
राज्यों में संक्रमण (पहली
से दूसरी लहर के बीच) 15 से 223 गुना (मई
के दूसरे हफ्ते) तक
बढ़े जबकि जांच क्षमता पांच गुना भी नहीं बढ़ी. संक्रमणों
में 200 गुना
तक बढ़ोतरी वाले बड़े राज्यों में दस लाख की आबादी पर 1,000 जांच
भी मुश्किल है.
मुट्ठी भर जांच पर 100 में 23 (कई जिलों में 40 तक) बीमार मिल रहे हैं. यानी
संक्रमण भयानक है, फिर
भी छिपाने की कोशिशें!
कितने
दिवंगत?
आबादी के बड़े हिस्से पर महामारी के असर के बाद संक्रमण के अनुपात में मौतों का हिसाब (केस
फैटेलिटी रेशियो) अमल
में आता है क्योंकि जान बचाना सबसे जरूरी है.
भारत में सरकारें मौतें छिपाने के लिए कुख्यात हैं, जन्म
मृत्यु कानून 1969 का घटिया
क्रियान्वयन दस्तावेजी है. पांचवें
नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (2019-20) के मुताबिक, अधिकांश
भारत में केवल 60 फीसद
मौतें दर्ज होती हैं. इनमें
बिहार जैसे राज्यों में केवल 37 फीसद
हैं. ग्रामीण
इलाकों में पंजीकरण और भी कम है.
ग्लोबल सेंटर फॉर हेल्थ रिसर्च ने रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया के साथ अपनी मिलियन डेथ स्टडी (1998-2014) में पाया कि केवल 21 फीसद
मौतें चिकित्सकीय प्रमाणन यानी सही कारण के साथ दर्ज होती हैं.
भारत अब दुनिया की सबसे बड़ी संक्रमित आबादी वाला देश है, सच छिपाने की कवायद के बावजूद भारत में केस फैटेलिटी रेशियो अलग-अलग राज्यों में 1 से 2 फीसद के बीच है, जो कोविड से सबसे ज्यादा प्रभावित और बेहतर सेहत इंतजाम वाले देशों के बराबर ही है.
सनद रहे कि छह महानगरों में 14 अप्रैल से 12 मई के बीच चार सप्ताह में 17,000 मौतें दर्ज की गईं जहां रिकॉर्ड किए गए कोविड मरीजों का प्रतिशत देश में केवल 15 फीसद है. (जनरक्षा/पीएचएफआइ) तो गांवों का क्या हाल होगा.
मई के पहले 19 दिनोंं में भारत में कुल 75000 मौंतेंं हुईंं. मृत्यु की दैनिक गति के आधार पर यह आंकड़ा मई के अंत तक एक लाख हो सकता है. दुनिया के किसी भी कोविड प्रभावित देश में एक माह में यह में मौतों की सबसे बड़ी संख्या हो सकती है.
सबको पता है कि कोविड से हुई मौतें किस सुरंग में गुम हो रही हैं. जब
अस्पतालों में मौतों के कारण छिपाए जा रहे हैं तो होम आइसोलेशन में और ऑक्सीजन के बगैर जो मौतें हुई हैं उनकी गिनती कौन कर रहा है?
इटली में मौतों के आंकड़े चौंकाने वाले थे लेकिन अध्ययन बताते हैं वहां कोविड के कारण और कोविड के साथ अन्य बीमारी से मौत में फर्क नहीं किया गया जबकि कई अन्य देशों में मौतों को लेकर बड़ी गफलत रही.
लोग जब अस्पताल और श्मशान के बीच भटक रहे हों तो सच छिपाने से सरकारों की छवि संवरती नहीं बल्कि गुस्सा बढ़ता है. यहां
हाल ही अजीब है. प्रधानमंत्री
आंकड़े न छिपाने
के लिए कहते हैं और राज्य आंकड़े घटाकर जीत का ऐलान करते नजर आते हैं.
डब्ल्यूएचओ ने आगाह किया था कि कोविड को लेकर अनिश्चितताएं हैं और इन्हें स्वीकारने और पारदर्शिता लाने से लोग जागरूक होंगे. संचार
के अध्ययन बताते हैं कि एड्स को लेकर बढ़ा डर, इससे
बचने में खासा कारगर साबित हुआ. इतिहास
यह भी बताता है कि स्पैनिश फ्लू (1914) के दौरान तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने सूचनाएं छिपाकर गांवों को मरघट में बदल दिया था.
महाभारत के मौसल पर्व की तरह, कोविड
का काल हर घर को सूंघता हुआ घूम रहा है. इसके
बीच जीत के ऐलान घातक हैं. इस
भ्रम में फंसकर लोग जीविका बचाने निकल पड़ेंगे और जान से जाएंगे. अव्व्ल
तो वैक्सीन अभी दूर है और उसके बाद भी सुरक्षित होने की गारंटी नहीं है इसलिए अगर सरकार कहे भी कि संक्रमण घट रहा है, तो
कतई मत मानिएगा. याद
रखिए क्या आप उस डॉक्टर पर भरोसा करेंगे जो आपकी गंभीर बीमारी की रिपोर्ट छिपाकर आपको चलता कर दे?
5 comments:
अंशुमान सर
सरकारें ये मानती हैं कि अगर सही आंकड़े दिए तो पैनिक फैल जायगा और स्थिति को संभालना और मुश्किल हो जाएगा।
सरकार को सच बताना चाहिए ताकि पता लगे कि उन्होने कितनी बड़ी लड़ाई लड़ी है।
अभी तो ऐसा लगता है जैसे रोड ऐक्सिडेंट से कम नुकसान हुआ है।
इस समय देश भर की यथार्थ दशा तो यही है, लेकिन सत्ता वास्तविकता से दूर चालाकी से आंखे बन्द किए है। यह स्थिति निश्चित ही हम सब के लिए घातक है।
Sahi aakrda ka pradarshan hi ek maatra upaay hai..laparwah logo me sajagta lane me...sarkar aapni khana purti kar rh hai...hmara jivan humse hai...humme apne aaap ko...apne pariwar ko...apne mohalle ko...apne gawn ko....corona ke failaw se bachana hai..to basic route pe kaam karna hoga...
शानदार लेख।
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