सरकारें जीएसटी से सीएजी को क्यों दूर रखना चाहती हैं ?
जीएसटी यानी भारत
के सबसे बड़े कर सुधार पर संवैधानिक ऑडिटर नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) की
निगहबानी नहीं होगी!
यदि संसद ने दखल
न दिया तो सीएजी जीएसटी से केंद्र व राज्यों को होने वाले नुक्सान-फायदे पर सवाल
नहीं उठा पाएगा!
डॉ. आंबेडकर ने
कहा था कि सीएजी सुप्रीम कोर्ट से ज्यादा महत्वपूर्ण संस्था है. इसे केंद्र और
राज्यों के राजस्व को प्रमाणित करने का संवैधानिक अधिकार है मगर इसे जीएसटी में
राजस्व को लेकर सूचनाएं मांगने का अधिकार भी नहीं मिलने वाला. राज्य सरकारें भी कब
चाहती हैं कि कोई उनकी निगरानी करे.
क्या यह पिछली
सरकार में सीएजी की सक्रियता से उपजा डर है?
या फिर संवैधानिक
संस्थाओं की भूमिका सीमित करने का कोई बड़ा आयोजन?
जीएसटी सरकारों
(केंद्र व राज्य) के राजस्व से संबंधित है, जो ऑडिट के संवैधानिक
नियमों का हिस्सा हैं. इसी आधार पर सीएजी ने 2जी और कोयला
घोटालों की जांच की थी, क्योंकि उनसे मिला राजस्व सरकारी खजाने में आया था.
जीएसटी कानून के
प्रारंभिक प्रारूप की धारा 65 के तहत सीएजी को यह अधिकार था कि वह जीएसटी काउंसिल से
सूचनाएं तलब कर सकता है.
पिछले साल
अक्तूबर में, केंद्र सरकार के
नेतृत्व में चुपचाप इस प्रावधान को हटाने की कवायद शुरू हुई. सीएजी ने पत्र लिखकर अनुरोध किया था कि धारा 65 को न हटाया जाए क्योंकि
संवैधानिक नियमों के टैक्स मामलों का ऑडिट सीएजी की जिंम्मेदारी है. अलबत्ता जीएसटी काउंसिल
की ताजा बैठक में केंद्र और राज्य सीएजी को जीएसटी से दूर रखने पर राजी हो
गए.
इस फैसले के बाद
केंद्र व राज्यों के राजस्व में संवैधानिक ऑडिटर की भूमिका बेहद सीमित हो
जाएगी.
सरकारें जीएसटी
से सीएजी को क्यों दूर रखना चाहती हैं, इस पर शक लाजिमी है. जबकि जिस फॉर्मूले के तहत
राज्यों को जीएसटी से होने वाले नुक्सान की भरपाई करेगी, उसके राजस्व के
आंकड़ों को प्रमाणित करने का अधिकार सीएजी के पास है.
विवाद जीएसटी
नेटवर्क को लेकर भी है, सीएजी को जिसका ऑडिट करने की इजाजत नहीं मिल रही है.
- यह नेटवर्क एक निजी कंपनी (51 फीसदी हिस्सा बैंकों व वित्तीय कंपनियों का और 49 फीसदी सरकार का) के मातहत है जो केंद्र व राज्यों के टैक्स सिस्टम को जोडऩे वाला विशाल कंप्यूटर नेटवर्क बनाएगी व चलाएगी, कर जुटाएगी और राजस्व का बंटवारा करेगी.
- इस कंपनी में केंद्र व राज्य सरकारें 4000 करोड़ रु. लगा चुकी हैं. वित्त मंत्रालय का व्यय विभाग इस पर सवाल उठा रहा है. जीएसटी का नेटवर्क बना रही एक कंपनी पर सर्विस टैक्स चोरी का मामला भी बना है, अलबत्ता वित्त मंत्रालय इस नेटवर्क के सीएजी ऑडिट को तैयार नहीं है.
हैरत नहीं कि
सीएजी को जीएसटी से दूर रखने का ऐलान करते हुए वित्त मंत्री ने आयकर कानून का
जिक्र किया, जहां सीएजी को
विशेष अधिकार नहीं मिले हैं. इनकम टैक्स को लेकर तो सीएजी और सरकार के बीच एक जंग
सी छिड़ी है जो सुर्खियों का हिस्सा नहीं बनती.
सीएजी के
गलियारों में सीएजी नब्बे के दशक के अंतिम
वर्षों किस्से याद किए
जा रहे हैं जब सरकार स्वैच्छिक आय घोषणा योजना (वीडीआइएस) लेकर आई थी और वित्त मंत्रालय ने
उसके ऑडिट की छूट नहीं दी थी. तब बाकायदा ऑडिटर ने आयकर अधिकारियों के खिलाफ पुलिस
में शिकायत की थी. इस समय भी हालात कुछ ऐसे ही हैं.
सीएजी ताजा इनकम
डिस्क्लोजर स्कीम का ऑडिट करना चाहता है लेकिन वित्त मंत्रालय तैयार नहीं है. आयकर
कानून में सीएजी के अधिकार सीमित होने के कारण वित्त मंत्रालय इनकम टैक्स के आंकड़े
नहीं देता जिस पर हर साल खींचतान होती है.
यकीनन, पिछले दो साल में
सीएजी ने कोई बड़ा चैंकाने वाला ऑडिट नहीं किया (करने नहीं दिया गया) है लेकिन इसके
बाद भी तीन मौकों पर सीएजी ने सरकार को असहज किया हैः
पहला, जब सीएजी ने
एलपीजी सिलेंडर छोडऩे की योजना से 22,000 करोड़ रु. की बचत के दावे को खोखला साबित किया
था.
दूसरा, जब सीएजी ने
कोयला ब्लॉक नीलामी में छेद पाए थे.
तीसरा, केजी बेसिन में
गुजरात सरकार (2005)
के निवेश पर सवाल
उठाए थे.
आंबेडकर सीएजी को
संघीय वित्तीय अनुशासन रीढ़ बनाने जा रहे थे इसलिए संविधान सभा ने लंबी बहस के बाद
राज्यों के लिए अलग-अलग सीएजी बनाने का प्रस्ताव नहीं माना. वे तो चाहते थे कि
सीएजी का स्टाफ नियुक्त करने का अधिकार भी सरकार के पास नहीं होना चाहिए लेकिन अब
पारदर्शिता के स्थापित संवैधानिक पैमाने भी सरकारों को डराने लगे हैं, खास तौर पर वे
लोग कुछ ज्यादा ही डरे हैं जो साफ-सुथरी और ईमानदार राजनीति का बिगुल बजाते हुए
सत्ता में आए थे.
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