नोटबंदी की सबसे बड़ी नसीहत क्या है? यही कि सुधारों के ऊंट अब किसी भी करवट बैठ सकते हैं. सुधारों के पूरी तरह सोख लिए जाने तक उनसे सिर्फ चौंकाने वाले नतीजों की उम्मीद की जानी चाहिए, जो अच्छे या बुरे या फिर दोनों हो सकते हैं. नोटबंदी काला धन दूर करने के लिए उतरी थी लेकिन बैंकों को कालिख में सराबोर कर गई और ग्रोथ व रोजगार ले डूबी.
जीएसटी टैक्स प्रशासन में इंस्पेक्टर राज खत्म करने के लिए उतरा है लेकिन अपने डिजाइन और तौर-तरीकों में जीएसटी रोमांचक और अप्रत्याशित है. इंस्पेक्टरों की ताकत के मामले में तो यह चौंकाने वाली संभावनाओं से लैस है.
शुरुआत जीएसटी के नंबर यानी 15 डिजिट के जीएसटीएन से करते हैं जो अपने आप में अनोखा प्रयोग है. इस संख्या में पहले दो नंबर राज्य के हैं जहां कारोबारी पंजीकृत होगा. अगले 10 नंबर कारोबारी का पैन नंबर, बाद का एक नंबर उसकी पंजीकरण संख्या है और शेष दो नंबर तकनीकी जरूरत के लिए हैं.
जीएसटी नंबर के पैन आधारित होने के साथ भारत में आयकर प्रशासन और कारोबारी करों को आपस में जोड़ दिया गया है. मतलब यह कि जीएसटी में दर्ज प्रत्येक कारोबारी की गतिविधि पर जीएसटी के साथ आयकर विभाग की निगाहें भी रहेंगी. टैक्स अफसर उसके कारोबार के आधार पर कमाई और कमाई के आधार पर धंधे की कैफियत पूछ सकते हैं.
पैन आधारित जीएसटीएन, टैक्स चोरी रोकने की अचूक कोशिश नजर आता है लेकिन दोहरे इंस्पेक्टर राज का खतरा भी है. भारत का टैक्स प्रशासन कितना साफ-सुथरा है, यह जानने के लिए नजदीकी टैक्स ऑफिस की एक यात्रा काफी होगी.
जीएसटी और इंस्पेक्टर राज का रिश्ता दिलचस्प है. इंस्पेक्टर राज बनाए रखने के लिए ही इसे पेचीदा बनाया गया! करदाताओं के बही-खाते जांचने के अधिकार पर केंद्र और राज्यों के बीच रजामंदी मुश्किल से बनी. अंततः तय हुआ कि बेचारे करदाता केंद्र और राज्य दोनों के टैक्स इंस्पेक्टरों की सेवा करेंगे.
जीएसटी के बुनियादी प्रारूप में यह दोहरा नियंत्रण कहीं नहीं था लेकिन उसे हकीकत बनाने के लिए जो फॉर्मूला तय हुआ, उसके तहत 1.5 करोड़ रु. से कम के सालाना कारोबार वाले कारोबारियों की जांच व ऑडिट राज्य सरकारें करेंगी. इससे ऊपर वालों पर केंद्र का नियंत्रण होगा.
दोहरे नियंत्रण का फॉर्मूला सहज लगता है लेकिन जिनके कारोबार हर साल इस सीमा से ऊपर नीचे होते रहते हैं, उनके 'साहब' हर साल बदल जाएंगे. यह दोहरा नियंत्रण केंद्र व राज्य की कर अथॉरिटी के बीच अधिकार क्षेत्रों का टकराव पैदा करेगा जिसमें कारोबारियों के फुटबॉल बनने का खतरा है.
जीएसटी के भीतर उतरने पर सात दरों और दर्जनों वर्गीकरण वाला एक जटिल ढांचा डराने आ जाता है जिसमें एक्साइज और वैट की सभी खौफनाक खामियां खूबसूरती के साथ सहेजी गई हैं. अलग-अलग राज्यों में पंजीकरण, एक ही कंपनी के सभी प्रतिष्ठानों के अलग-अलग रजिस्ट्रेशन के साथ यह शर्त भी है कि पूरे देश में सर्विस देने वालों को अब हर राज्य में जीएसटी के तहत रजिस्टर होना होगा. एक उत्पाद के लिए कई टैक्स रेट की प्रणाली उन उद्योगों को इंस्पेक्टर शरण में जाने के लिए मजबूर करेगी जो तेजी से अपने प्रोडक्ट में बदलाव करना चाहते हैं और इस मौके पर उनका डिजिटल या ऑनलाइन होना काम नहीं आएगा.
जीएसटी लागू होते ही उपभोक्ता मंत्रालय ने कहा कि जो कारोबारी सही ढंग से खुदरा मूल्य नहीं बताएंगे, जुर्माना या जेल उनका इंतजार कर रही है. सतर्कता को सलाम लेकिन जीएसटी में मुनाफाखोरी रोकने वाले नियम इंस्पेक्टरों को नई ताकत बख्शते हैं. जीएसटी के साथ मुनाफाखोरी रोकने वाली एक नई मशीनरी जन्म ले रही है. डायरेक्टर ऑफ सेफगाड्र्स, केंद्र व राज्यों में विशेष समितियां, जांच अपील व सुनवाई का विशाल तंत्र उपभोक्ताओं को आश्वस्त करने से पहले कारोबारियों को डराने लगा है.
जीएसटी कारोबारी सुविधा या टैक्स कम करने के लिए नहीं बल्कि सरकारों के राजस्व को हर हाल में सुरक्षित रखने के लिए बना है इसलिए टैक्स विवाद निस्तारण से जुड़े नियम डरावने हैं. उन्हें चुनौती देने से पहले 10 से 25 फीसदी टैक्स जमा करने की शर्त है.
भले ही 17 टैक्स और 23 सेस जीएसटी में शामिल हो गए हों लेकिन बहुत से राज्य स्तरीय और स्थानीय टैक्स मुंह चिढ़ा रहे हैं. कई कारोबारों का एक हिस्सा किसी दूसरे टैक्स के दायरे में है जबकि दूसरे हिस्से पर जीएसटी लगा है. मसलन, वाहनों पर राज्यों का ट्रांसपोर्ट टैक्स लागू है. निर्माण सामग्री और सेवाओं पर जीएसटी है लेकिन जमीन का पंजीकरण जीएसटी से बाहर है. जीएसटी की जटिलताएं और दोहरे-तिहरे नियंत्रण इंस्पेक्टर राज पर असमंजस बढ़ाते हैं.
नतीजे आने तक नोटबंदी के जले को जीएसटी का छाछ फूंक-फूंक कर पीना चाहिए.
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