Saturday, October 6, 2018

रुपए के राहु-केतु



कोई कला नहीं चली सरकार की!

रुपया इस बार गिरा तो गिरता चला गया,

डॉलर के मुकाबले रुपया74 के करीब है. 75 रुपए वाले डॉलर की मंजिल दूर नहीं दिखती.

कमजोरी शायद भीतरी है! 

कमजोरी!

सात फीसदी की विकास दररिकॉर्ड विदेशी निवेश (दावों के मुताबिक)शेयर बाजार में भरपूर विदेशी पूंजीमूडीज की बेहतर रेटिंगमजबूत सरकार के बाद भी
कहां गए सारे विटामिन?

रुपया जनवरी से अब तक 14 फीसदी टूट चुका है. ताजा दशकों मेंएक साल में ऐसी गिरावट केवल दो बार नजर आई. पहला—1998 के पूर्वी एशिया मुद्रा संकट के दौरान रुपया एक साल में 13.63 फीसदी टूटा था. दूसरा—2012 में तेल के 100 डॉलर प्रति बैरल पर पहुंचने पर रुपया 14.51 फीसदी गिरा था.

अमेरिका और चीन के बीच व्यापार युद्ध एक चुनौती है लेकिन माहौल 1998 के मुद्रा संकट या 2008 के बैंकिंग संकट जैसा हरगिज नहीं है.

तो फिर?

डॉलर मजबूत हुआ है!

लेकिन डॉलर तो 2012 में अमेरिकी फेड रिजर्व की ब्याज दरें बढ़ाने के संकेत के बाद से मजबूत हो रहा है! 

दरअसलरुपए की जड़ और तना कमजोर हो गया है. पिछले चार वर्षों के 'अच्छे दिनों' के दौरान चालू खाते का घाटा (विदेश से संसाधनों की आमद और निकासी के बीच अंतर) बढ़ता गया है. चालू खाते (करंट अकाउंट) के घाटे में रुपए की जान बसती है.

जून की तिमाही में यह घाटा जीडीपी के अनुपात में 2.4 फीसदी पर पहुंच गया जो कि 15.8 अरब डॉलर (पिछले साल इसी दौरान 15 अरब डॉलर) है. घाटे की यह आगतेल की कीमतों में तेजी से पहले ही लग चुकी थी.
घाटा बढऩे की वजहें हरगिज बाहरी नही हैं.

पहली वजहः मेक इन इंडिया के झंडाबरदारों को खबर हो कि भारत का उत्पादन प्रतिस्पर्धा की होड़ में पिछड़ रहा है. बिजलीईंधनजमीनकर्ज की महंगाई और श्रमिकों की उत्पादकता में गिरावट के कारण अर्थव्यवस्था ठीक उस समय पिछड़ रही है जब नई तकनीकों (ऑटोमेशन) के कारण प्रतिस्पर्धात्मकता के मायने बदल रहे हैं. भारत में मैन्युफैक्चरिंग का जीडीपी में हिस्सा 16-17 फीसदी पर अटका है. चीनकोरिया या थाईलैंड की तरह 25-29 फीसदी करने के लिए जबरदस्त प्रतिस्पार्धात्मक होना होगा.

रुपया डॉलर के मुकाबले हर साल तीन से चार फीसदी टूटता है ताकि भारतीय उत्पाद बाजार में टिक सकें. जिस साल ऐसा नहीं हुआउस वर्ष भारतीय निर्यात औंधे मुंह गिरा है.

दूसरी वजहः मोदी सरकार के कूटनीतिक अभियान चाहे जितने आक्रामक रहे हों लेकिन भारत के निर्यात को सांप (या ड्रैगन) सूंघ गया है. 2013 से पहले दो वर्षों में 40 और 22 फीसदी की रफ्तार से बढऩे वाला निर्यात बाद के पांच वर्षों में नकारात्मक से लेकर पांच फीसदी ग्रोथ के बीच झूलता रहा. 
पिछले दो वर्षों में दुनिया की आर्थिक और व्यापार वृद्धि दर तेज रही है. 

लगभग एक दशक बाद विश्व व्यापार तीन फीसदी की औसत विकास दर को पार कर (2016 में 2.4 फीसदी) 2017 में 4.7 फीसदी पर पहुंच गया लेकिन भारत विश्व व्यापार में तेजी का कोई लाभ नहीं ले सका. निर्यात की निरंतर गिरावट ने इस घाटे की आग में पेट्रोल डाल दिया है.

तीसरी वजहः चालू खाते का घाटाबुनियादी तौर पर देश में निवेश योग्य संसाधनों की कमी यानी विदेशी संसाधनों पर निर्भरता बढऩे का पैमाना भी है. भारत में इस समय जीडीपी के अनुपात में जमा बचत का अंतर 4.2 फीसदी के स्तर पर है जो 2013 के बाद सबसे ऊंचा है. रिजर्व बैंक के मुताबिक2018 में भारत में आम लोगों की बचत के अनुपात में उनकी वित्तीय देनदारियों में बढ़ोतरी 2012 के बाद रिकॉर्ड ऊंचाई पर है. सरकारों की बचत शून्य है और घाटे नया रिकॉर्ड बना रहे हैं.

रुपया अब दुष्चक्र में फंसा दीखता है. अमेरिका में मंदी खत्म होने के ऐलान के साथ डॉलर की मजबूती बढ़ती जानी है. कच्चा तेल 100 डॉलर के ऊपर निकलने के लिए बेताब है. रुपए को थामने के लिए सरकार ने आयात को महंगा कर महंगाई की आग में एक तरह से बारूद डाल दी. अब ब्याज दरें बढ़ेंगी और निवेशक बिदकेंगे.



कमजोर रुपया, महंगा तेल, महंगाई और घाटे... भारतीय अर्थव्यवस्था की सभी बुनियादों में अचानक दरारें उभर आई हैं. प्रचार के अलावा, इन क्षेत्रों में पिछले चार साल में कोई बड़े ढांचागत सुधार नहीं हुए. चुनाव तो आते-जाते रहेंगे, लेकिन अगली छमाही देश की अर्थव्यवस्था के लिए बेहद संवेदनशील होने वाली है.

1 comment:

dabizuban said...

शानदार विश्लेषण। पूरी तरह आंखें खोल देने वाला। हर दृष्टि से परफेक्ट।