अगर कांग्रेस को यह लगता है कि वह मध्य प्रदेश में किसान
कर्ज माफी के वादे पर जीती है तो फिर यह करिश्मा राजस्थान में क्यों नहीं हुआ, जहां इस फरवरी
में 8,500 करोड़ रु. के कर्ज
माफ करने का ऐलान किया गया था !
अगर छत्तीसगढ़
में कांग्रेस कर्ज माफी के वादे पर जीती तो इसी पर कर्नाटक में भाजपा को बहुमत
क्यों नहीं मिला. उत्तर प्रदेश में भाजपा सरकार ने कर्ज माफी की थी फिर भी लोगों
को भरोसा नहीं हुआ !
कर्नाटक में
कांग्रेस ने 2017 में सहकारी
बैंकों के 8,500 करोड़ रु. के
कर्ज माफ किए थे. लेकिन राज्य के लोग जद (एस) के कर्ज माफी वादे पर भी पूरी तरह
बिछ नहीं गए.
बस एक बड़ी
चुनावी हार या किस्मत से मिली एक जीत के असर से राजनीति बदहवास हो जाती है. देश
में पिछले साल दिसंबर से अब तक सात राज्यों (पंजाब और महाराष्ट्र-जून 2017, उत्तर
प्रदेश-अप्रैल 2017, राजस्थान-फरवरी 2018, कर्नाटक-जुलाई 2018, छत्तीसगढ़ और
मध्य प्रदेश-दिसंबर 2018)
में 1,72,146 करोड़ रु. किसान
कर्ज माफ करने का ऐलान हुआ.
क्या इनसे
चुनावों के नतीजे बदले?
क्या भाजपा और
कांग्रेस की सरकारों की कर्ज माफी बाद में हुए चुनावों में उनके काम आई?
किसानों के कर्ज
भारतीय राजनीति की सर्वदलीय ग्रंथि बन गए हैं. कर्ज माफी जरूरतमंद किसानों तक नहीं
पहुंचती, इसे जानने के लिए
वैज्ञानिक होने की जरूरत नहीं है लेकिन इससे वित्तीय तंत्र में बन रहे दुष्चक्र
बताते हैं कि सियासत किस हद तक गैर-जिम्मेदार हो चली है.
· मध्य प्रदेश, कर्नाटक, राजस्थान, पंजाब, महाराष्ट्र और
उत्तर प्रदेश में किसान कर्ज माफी के बाद अब देश अधिकांश कृषि आधारित राज्य इस
होड़ की चपेट में हैं. बिहार, बंगाल और कुछ अन्य राज्यों में इसे दोहराया जाएगा. मध्य
प्रदेश और राजस्थान की कर्ज माफी बैंकों व सरकार के लिए दर्दनाक होने वाली है.
बकौल रिजर्व बैंक, मध्य प्रदेश में
कुल बैंक कर्ज में खेती के लिए मिलने वाले कर्ज का हिस्सा 29 फीसदी और राजस्थान में 35 फीसदी है. जो अन्य राज्यों की तुलना में काफी
ऊंचा है. मध्य प्रदेश में खेती में फंसे हुए कर्ज 11 फीसदी हैं. यह स्तर राष्ट्रीय औसत से काफी
ऊंचा है.
· लोन माफी पर दस्तखत
करते हुए मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री ने यह भी नहीं बताया कि 35,000 करोड़ रु. का यह
बिल कौन भरेगा? कर्नाटक के कुल
बैंक कर्ज में खेती के कर्ज 15 फीसदी है. इनकी माफी का आधा बोझ बैंकों और आधा राज्य के
बजट पर होगा. यह फॉर्मूला अभी तक बन नहीं पाया है इसलिए कर्ज माफी लागू करने में
देरी हो रही है.
· उत्तर प्रदेश (36,359 करोड़ रु.) और
महाराष्ट्र (34,022 करोड़ रु.) ने
पूरी कर्ज माफी बजट पर ले ली. महाराष्ट्र को खर्च चलाने के लिए शिरडी मंदिर से
कर्ज लेना पड़ा और उत्तर प्रदेश को पूंजी खर्च (निर्माण व विकास) खर्च में 33 फीसदी की कटौती
करनी पड़ी. कर्ज माफी करने वाले सभी राज्यों की रेटिंग गिरी है यानी उन्हें महंगे
कर्ज लेने होंगे.
· बार बार कर्ज
माफी के कारण सरकारी बैंक किसानों को कर्ज देने में हिचकते हैं. कृषि कर्ज में
स्टेट बैंक का हिस्सा काफी तेजी से गिरा है जबकि निजी बैंक ज्यादा बड़ा हिस्सा ले
रहे हैं, जिनसे कर्ज माफ
कराना मुश्किल है. कर्नाटक में माइक्रोफाइनेंस कंपनियों को नोटबंदी व कर्ज माफी के
बाद गहरी चोट लगी.
· क्या हमारे
राजनेता जानना चाहेंगे कि भारत के बैंक खेती को छूने से डरने लगे हैं? 2007 से 2017 के बीच खेती को
कर्ज की वृद्धि दर 33 फीसदी से घटकर 8.2 फीसदी पर आ गई.
आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और
तमिलनाडु में पिछले तीन साल में कर्ज माफी के बाद खेती को कर्ज की आपूर्ति बुरी तरह
गिरी है.
बात कर्ज माफी से
आगे बढ़कर बिजली बिल माफी तक पहुंच गई है. कल होम लोन माफ करने की भी राजनीति
होगी.
अंतत: हम उस तरफ
बढ़ रहे हैं जहां या तो किसानों को कर्ज मिलना मुश्किल हो जाएगा या फिर कर्ज माफी
के बाद हर तरह का टैक्स बढ़ेगा या विकास सिकुड़ जाएगा.
अगर भारत के
राज्य कोई कंपनी होते जो कमलनाथ, वसुंधरा राजे या योगी आदित्यनाथ के अपने पैसे से बनी होती
तो क्या असर और फायदे जाने बगैर वे कर्ज माफी के दांव लगाते रहते? यह पूरा ड्रामा
करदाताओं या जमाकर्ताओं के पैसे पर होता है और हमें बार-बार छला
जाता है. कर्ज माफ हो रहा है, अब कीमत चुकाने को तैयार रहिए.
3 comments:
किसे समझ आ रहा है दीर्घकालिक नुकसान
कर्जमाफी की राजनीति का सटीक विश्लेषण। अब तो कर्जमाफी मुफ्तखोरी की संस्कृति को बढ़ावा देने लगी है। गांवों में एक ऐसा वर्ग पैदा हो चुका है जो कर्जमाफी को ध्यान में रखकर कर्ज लेता है। किसानों की कर्जमाफी को देखते हुए ग्रामीण क्षेत्रों में गैर कृषि ऋणों को जानबूझकर न चुकाने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। बैंकों को अब यह डर भी सताने लगा है कि कहीं नेता ऑटो लोन और होम लोन माफ करने का वादा न करने लगें।
बार-बार कर्जमाफी के बावजूद किसान ऋणग्रस्त हो रहे हैं तो इसकी असली वजह यह है कि आज खेती घाटे के सौदे में तब्दील हो चुकी है। बढ़ती लागत, कुदरती आपदाओं में इजाफा, खुले बाजार के कारण आयातित उत्पादों से कड़ी प्रतिस्पर्धा जैसे कारणों से किसानों को लागत निकालना कठिन हो गया है। दूसरे, भारतीय खेती अब अनाज उत्पादन से आगे बढ़ चुकी है। ज्यादा मुनाफा के लिए किसान बागवानी फसलों को प्राथमिकता दे रहे हैं। आज की तारीख में कुल उत्पादन में खाद्यान्नों का हिस्सा आधे से भी कम रह गया है। लेकिन हमारी कृषि नीतियां और भंडारण-विपणन सुविधाएं अभी भी खाद्यान्न केंद्रित बनी हुई हैं। यही कारण है कि बागवानी फसलों की कीमतों में तेजी से उतार-चढ़ाव आता है। इसी का नतीजा है कि कभी आलू-प्याज सड़कों पर फेंकना पड़ता है तो कभी इनकी महंगाई तख्त-ओ-ताज बदल देती है।
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