आर्थिक नीतियों की अनिश्चितता सबसे बड़ी मुसीबत है. यह पूंजी और कारोबार की लागत बढ़ाती है. खराब व उलझन भरे कानून, रोज-रोज के बदलाव, मनचाही रियायतें, नियमों की असंगत व्याख्याएं और कानूनी विवाद...इसके बाद नया निवेश तो क्या आएगा, मौजूदा निवेश ही फंस जाता है.
अगर आपको लगता है कि यह सरकार से नाराज किसी उद्यमी का दर्द है या किसी दिलजले अर्थशास्त्री की नसीहत है तो संभलिए...ऊपर लिखे शब्द ताजा आर्थिक समीक्षा (2018-19) में छपे हैं जो भारत को पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने का ख्वाब दिखाती है. समीक्षा भी उसी टकसाल का उत्पाद है जहां से इस साल का बजट निकला है.
आर्थिक समीक्षा फैसलों में अनिश्चितता के बुरे असर को तफसील से समझाती है तो फिर बजट ऐसा क्यों है जिसके बाद हर तरफ मंदी के झटके कुछ ज्यादा ही बढ़ गए हैं?
क्या यह कहा जाए कि सरकार के एक हाथ को दूसरे की खबर नहीं है, या इस पर संतोष किया जाए कि सरकार का एक हाथ कम से कम यह तो जानता है कि अजब-गजब फैसले और नीतियों की उठापटक से किस तरह की मुसीबतें आती हैं.
चंद उदाहरण पेश हैं:
ऑटोमोबाइल उद्योग जब अपने ताजा इतिहास की सबसे भयानक मंदी से उबरने के लिए मदद मांग रहा है तब सरकार ने पुर्जों के आयात पर भारी कस्टम ड्यूटी लगा दी. पेट्रोल-डीजल पर सेस बढ़ गया. पुरानी गाडि़यां बंद करने के नए नियम और प्रदूषण को लेकर नए मानक लागू हो गए. गाडि़यों के रजिस्ट्रेशन की फीस बढ़ाने का प्रस्ताव है और उन इलेक्ट्रिक वाहनों को टैक्स में रियायत दी गई जो अभी बनना भी नहीं शुरू हुए यानी पुर्जे-बैटरी चीन से आयात होंगे.
नीतियों में उठापटक उद्योग पर कुछ इस तरह भारी पड़ी कि गाड़ियां गोदामों में जमा हैं, डीलरशिप बंद हो रही हैं. ऑटोमोबाइल संगठित उद्योग क्षेत्र का करीब 40 फीसद है, जिससे वित्तीय सेवाएं (लोन), सहयोगी उद्योग (ऑटो कंपोनेंट) और सर्विस जैसे रोजगार गहन उद्योग जुड़े हैं. इस उद्योग में भारी बेकारी की शुरुआत हो चुकी है.
अब मकानों की तरफ चलते हैं
इस उद्योग को मंदी नोटबंदी से पहले ही घेर चुकी थी. मांग में कमी और कर्ज के बोझ से फंसा यह उद्योग, जैसे ही नोटबंदी के भूकंप से उबरा कि इसे रेरा (नए रियल एस्टेट कानून) से निबटना पड़ा. रेरा एक बड़ा सुधार था लेकिन इससे कई कंपनियां बंद हुईं, बैंकों का कर्ज और ग्राहकों की उम्मीदें डूबीं.
इस बीच भवन निर्माण के कच्चे माल और मकानों की बिक्री पर भारी जीएसटी लग गया, जिसे ठीक होने में दो साल लगे. जीएसटी के सुधरते ही कर्ज की पाइपलाइन सूखने (एनबीएफसी संकट) लगी और अब सरकार ने वह सुविधा भी वापस ले ली जिसके तहत बिल्डर, मकान की डिलीवरी तक ग्राहकों के बदले कर्ज पर ब्याज चुकाते थे. आम्रपाली पर सुप्रीम कोर्ट का आदेश (सरकारी कंपनी अधूरे मकान बनाएगी) पूरे उद्योग में नई उठापटक की शुरुआत करेगा.
निर्माण, खेती के बाद रोजगार का सबसे बड़ा स्रोत है. उद्योग में चरम मंदी है. 30 शहरों में करीब 13 लाख मकान बने खड़े हैं और लाखों अधूरे हैं. नीतियों की अनिश्चितता ने इस उद्योग को भी तोड़ दिया है.
नमूने और भी हैं. एक साल पहले तक सरकार सोने की खरीद को हतोत्साहित (गोल्ड मॉनेटाइजेशन-नकदीकरण) कर रही थी और इसमें काले धन के इस्तेमाल को रोक रही थी. अब अचानक बजट में सोने पर आयात शुल्क बढ़ा दिया गया, जिससे अवैध कारोबार और तस्करी बढ़ेगी. आभूषण निर्यात (रोजगार देने वाला एक प्रमुख उद्योग) प्रतिस्पर्धा से बाहर हो रहा है.
आम लोगों की बचत जब 20 साल और बैंक जमा दर दस साल के न्यूनतम स्तर पर है, तब बचत स्कीमों पर ब्याज दर घटा दी गई. बैंक डिपॅाजिट पर भी ब्याज दर घट गई. केवल एक शेयर बाजार था जो निवेशकों को रिटर्न दे रहा था. उस पर भी नियम व टैक्स थोप (बाइबैक पर टैक्स, नए पब्लिक शेयर होल्डिंग नियम) दिए गए. बजट के बाद से बाजार लगातार गिर रहा है और निवेशकों को 149 अरब डॉलर का नुक्सान हो चुका है.
आकस्मिक व लक्ष्य विहीन नोटबंदी, 300 से अधिक बदलावों वाले (असफल, बकौल सीएजी) जीएसटी और तीन साल के भीतर एक दर्जन से ज्यादा संशोधनों से गुजरने वाले दिवालियापन (आइबीसी) कानून 2016 को नहीं भूलना चाहिए और न ही टैक्सों के ताजे बोझ को जिसने मंदी से कराहती अर्थव्यवसथा को सकते में डाल दिया है.
अनिश्चितता का अपशकुनी गिद्ध (ब्लैक स्वान) भारत की अर्थव्यवस्था के सिर पर बैठ गया है. सरकार की आर्थिक समीक्षा ठीक कहती है कि ‘‘अप्रत्याशित फैसलों और नीतिगत उठापटक का वक्त गया. अगर निवेश चाहिए तो नीति बनाते समय उसकी निरंतरता की गारंटी देनी होगी.’’
3 comments:
So well written and rightly said sir ...now its time to implement things in right way...was waiting for your write up...thanks
👍
मान्यवर नमस्कार, आपने लिखा है आम लोगों की बचत 20 साल और बैंक जमा दर दस साल के न्यूनतम स्तर पर है। यानी बचत के लिये लोगों के पास पैसा बच नहीं रहा है, यानी खर्च हो रहा है। दूसरी ओर आप ये भी कह रहे हैं कि मकान, गाड़ियाँ बिक नहीं रही हैं।.... तो फिर सवाल ये उठता है कि जब मकान, गाड़ियाँ नहीं बिक रही हैं और लोगों का पैसा खर्च भी हो रहा है तो वो खर्च हो कहां रहा है?
आपका इस बारे में क्या कहना है?
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