भारतीय शहरों की दहलीज पर खड़ी हजारों भुतहा इमारतों में मंदी की मशीनें लगी हैं. हर एक अधबना-अनबिका मकान एक छोटी मंदी है. करीब 6.29 लाख मंदियां (ग्राहकों का इंतजार करते मकान) अर्थव्यवस्था के पैरों में पत्थर की तरह बंधी हैं. भारत के अचल संपत्ति बाजार पर प्रापर्टी कंसल्टेंट एनरॉक की ताजा रिपोर्ट पढ़ते हुए, अर्थविद् एड लीमर नजर आने लगे. लीमर कहते थे कि समग्र अर्थव्यवस्था के सिद्धांतों में अचल संपत्ति के असर को कभी गंभीरता से नहीं लिया गया जबकि बीती 11 मंदियों में आठ का जन्म प्रॉपर्टी बाजार में ही हुआ था.
जिनको लगता है कि महामारी के बाद बाजार खुल जाने से मंदी गायब हो जाएगी या सरकारी स्कीमों की बारात में झांझ-मंजीरे बजने से मांग और रोजगार के नृत्य शुरू हो जाएंगे उन्हें इन भुतही इमारतों का मारक अर्थशास्त्र समझना चाहिए, जहां मंदी के कारखाने, कोविड की आमद से साल भर पहले ही शुरू हो चुके थे.
तकरीबन डूब चुका रियल एस्टेट (अचल संपत्ति) कारोबार मंदी के प्रेत की सबसे बड़ी ताकत है. ऐसा लग रहा है कि यह संकट एक दूसरे संकट की मदद से ही दूर हो सकेगा.
मंदी की नींव
यह मंदी इतनी जिद्दी इसलिए है क्योंकि 2018 तक कारखाने नहीं बल्कि बनते-बिकते-बसते लाखों मकान ही अर्थव्यवस्था का टरबाइन थे. बहुत बड़ी आबादी के पास अपना मकान खरीदने की कुव्वत भले ही न हो लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था में कंस्ट्रक्शन का हिस्सा 15 फीसद (2019) है जो दुनिया में दूसरा सबसे बड़ा (पहला इंडोनेशिया) स्तर है जो अमेरिका, कनाडा, फ्रांस ऑस्ट्रेलिया जैसे 21 बड़े देशों (चीन शामिल नहीं) से भी ज्यादा है. मोतीलाल ओसवाल रिसर्च का विस्तृत अध्ययन बताता है कि 2012 में 19.7 फीसद के साथ निर्माण में निवेश अपने शिखर पर था, तब केवल इंडोनेशिया और स्पेन भारत से आगे थे
मंदी और निवेश टूटने के बावजूद इस वक्त भी भारत में मकान निर्माण में निवेश (जीडीपी का 7.8 % ) दुनिया में सबसे ऊंचा है.
2000 के दशक के दौरान कुल निवेश में कंस्ट्रक्शन का हिस्सा 60 फीसद था. बीते एक दशक में यह घटकर 52-53 फीसद रह गया जो दो दशक का न्यूनतम है. इसके साथ ही लंबी मंदी की नींव रख दी गई.
बीते एक दशक में घर बनाने में निवेश गिरने (2012 में 13 फीसद से 2017 में 7.8 फीसद) लगा जबकि गैर-आवासीय निर्माण में निवेश ( 2012 में 6.9 फीसद से 2017 में 7.6 फीसद) बढ़ा. इस तरह पहले मकानों का कारोबार डूबा फिर दुकान और वाणिज्यिक निर्माण का.
कोविड की दस्तक से पहले ही भारतीय अर्थव्यवस्था की यह सबसे बड़ी टरबाइन बंद हो चुकी थी. मंदी सीमेंट-स्टील की मांग से लेकर सरकार के खजानों तक फैल गई थी. भवन निर्माण में गिरावट से राज्यों में स्टांप ड्यूटी का संग्रह बढ़ने की गति 2019-20 में 19 फीसद से घटकर 7 फीसद रह गई.
खेती के बाद रोजगारों का दूसरा बड़ा स्रोत भवन निर्माण है. 2012 में यहां 5 करोड़ लोगों (2000 में 1.7 करोड़) को काम मिला जो कुल कामगारों का करीब 10.6 फीसद (1983 में 3.2 फीसद) है. 2016 के बाद से यहां रोजगार गिरना शुरू हुए. नतीजन 2017-18 में बेकारी की दर 6.1 फीसद यानी 45 साल के सबसे ऊंचे स्तर पर पहुंच गई.
टाइम बम की टिक-टिक
दुनिया का पता नहीं लेकिन अगर एड लीमर के अध्ययन की रोशनी में भारत में प्रॉपर्टी बाजार और अर्थव्यवस्था के आंकड़े करीब से पढ़े जाएं तो दिल बैठने लगेगा. लीमर कहते थे कि अन्य कारोबारों की तरह आवास निर्माण का भी एक बिजनेस साइकिल है जो शिखर से तलहटी की तरफ जाता ही है. इस पैमाने की रोशनी में महसूस होता है कि असली संकट तो अभी आया नहीं है क्योंकि मंदी के बावजूद भारत के रियल एस्टेट बाजार में कीमतें नहीं घटीं.
मोतीलाल ओसवाल रिसर्च ने बताया कि दुनिया के सभी देश जहां हाउसिंग की मांग टूटी और निवेश गिरा वहां कीमतों में कमी हुई है लेकिन भारत में आवास क्षेत्र में 2014 के बाद कीमतों में 2.7
फीसद की तेजी आई.
सबसे सस्ते होम लोन, रेरा कानून की मदद और केंद्र सरकार के पैकेज के बावजूद 6.29 लाख मकान (एनरॉक रिपोर्ट अगस्त 2021) इसलिए अधबने-अनबिके खड़े हैं क्योंकि मकानो की कीमतें नहीं गिरी हैं.
लेकिन ठहरिए और पेच समझिए.
अगर मकानों की कीमतें गिरीं तो उसके साथ बैंक भी गिरेंगे, जिनके कर्ज की दम पर इन सन्नाटा भरी इमारतों में पांच लाख करोड़ का निवेश फंसा है.
अर्थव्यवस्था को कंस्ट्रक्शन और हाउसिंग में मांग-निवेश की संजीवनी चाहिए लेकिन इसे लाने के लिए आग के दरिया में डूब कर जाना होगा. कीमतें टूटेंगी, बिल्डर डूबेंगे, बैंकों के कर्ज का सत्यानाश होगा तब जाकर बाजार में ग्राहक लौटेंगे. यह दर्दनाक सर्जरी कब होगी, यह सरकार को तय करना है लेकिन इस बलिदान के बिना मंदी का प्रेत वापस नहीं जाएगा.
3 comments:
Thank you sir, I read the blog and one of my queries was answered why property prices are not going down and why people are not buying. But is it possible that without going through turmoil, this industry can survive and rotate positively?
बड़े शहरों का तो नही पता परन्तु C टाइप टाउन जहां से मैं लिख रहा हूँ, यहां अनबिके किन्तु अधूरे मकानों की भरमार है। निर्माण की लागत पिछले 2 वर्षों में 30 फीसद तक बढ़ गयी है। नई अनुमतियाँ कठिन होती जा रही हैं। रेरा के आने से परियोजना में न्यूनतम आवश्यक निवेश भी 20 से बढ़कर 50-60 फीसद हो गया है। कम लाभ में इस व्यापार को अब कोई नहीं करेगा। इसलिए कीमत कम होना तो सम्भव नही लगता। हां, डेवलपर्स का दिवालिया होना अधिक सच्चाई लग रहा है। अगर बेचने वाले कम होंगे तो कीमत बढ़ेगी। सस्ते मकानों के सपना अब सपना ही रह जायेगा। पॉकेट में समाने के लिए अब मकानों के आकार और छोटे होंगे।
इसका मतलब तो ये है कि शेयर मार्किट की तरह यहाँ भी एक बबल क्रिएट हुआ है और शायद उसका फूटना तय है और यहाँ का निवेश भी केवल अंदाज़े पर निर्भर था, वास्तविकताओं पर नहीं । जब बेरोजगारों की संख्या बढ़ रही थी और अभी भी बढ़ रही है और रोजगार वाले लोग भी उतने नहीं थे जो अपने जमा पैसों से घर खरीद सके, तो उस समय इतने प्रोजेक्ट्स को हर तरफ से मंजूरी क्यों मिली? और इसका तो ये मतलब है की यहाँ भी वास्तविकता के साथ कोई सम्बन्ध नहीं था।
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