इस पैमाइश
का राजनीतिक अर्थशास्त्रीय फार्मूला तीन कारकों से बनता है
एक – उस देश के लोग कमाई अपनी कमाई और खर्च
के अनुपात में कुल कितना टैक्स (इनकम टैक्स, कस्टम ड्यूटी जीएसटी,
जमीन, बिजली आदि सब मिलाकर) चुकाते हैं. क्यों
इससे ही उस मुल्क में जिंदगी जीने की लागत तय होती है
दूसरा पैमाना – किसी सरकार के कार्यकाल में उस देशों की लोगों कमाई ज्यादा
बढ़ी या उनकी जिंदगी पर ज्यादा बढ़ा टैक्स
तीसरा – सरकार ने उनसे जो टैक्स वसूला उसके बदले उस देश को लोगों की
जिंदगी कितनी सस्ती या आसान हुई
चौंकिये मत ...
टैक्सों के संदर्भ में किसी सरकार की कामयाबी को मापने का यही फार्मूला है
जो टैक्सेशन के सबसे करीबी इतिहास पर आधारित है. जिसकी रोशनी में टैक्सों को
जायज माना जाता है और सरकारों से हिसाब मांगे जाते हैं
नई पुरानी बात
यूं तो टैक्सों का इतिहास जबर्दस्त रोमांच से भरा है. राजाओं ने युद्ध के
लिए टैक्स थोपे, उपनिवेशवादियों ने टैक्स से लूट की और सरकारों ने जंगी इंतजामों के लिए
लिए आम लोागों की कमाई को निचोड़ा. भरपूर बगावते हुईं टैक्स के खिलाफ, मारकाट खून खच्चर लंबे चले. 17वीं सदी में तो टैक्स के कारण एसी बगावत
भड़की कि गुस्साये लोगों ने ब्रिटेन के सम्राट किंग चार्ल्स की हत्या कर दी.
बहरहाल दूसरे विश्व युद्ध के बाद जब जंग और कत्लोगारत खत्म हुई तो यह
माना गया कि टैक्स एक एसा रास्ता है जिससे संपत्ति का पुनर्वितरण किया जा सकता
है. यानी अमीरों से टैक्स लेकर आम लोगों सुविधाओं के तौर पर लौटाया जा सकता है.
सरकारें इस काम को करने वाली एजेंसी मानी गईं. इस सिद्धांत की मदद से पूंजीवाद को
संतुलित किया. स्कैंडीनेविया ने जनहित में पब्लिक एक्सपेंडीचर की राह दिखाई
और दुनिया में टैक्स जायज लगने लगे.
इतिहास के सर्वमान्य सिद्धांत बताते हैं कि जो इतिहास हमारे सबसे करीब का
है वही हमारे लिए सबसे उपयोगी है. इसी इतिहास की रोशनी में संपत्ति के
पुनर्वितरण के एजेंट के तौर पर टैक्स उचित ठहराये जाते हैं और सरकारें इस
सिद्धांत की मदद लेकर कर बढ़ाती वसूलती हैं ताकि संतुलन बना रहे.
यानी टैक्स इसलिए लगाये जाते हैं कि किसी समाज में आयत की असमानता दूर हो
तो यह हंगामा क्या है
भारत के बारे में कुछ और ही सामने आया है. विश्व आर्थिक फोरम के मंच पर
प्रख्यात स्वयंसेवी संगठन ऑक्सफैम की रिपोर्ट में बताया गया कि भारत में वित्त
वर्ष 2022 जितना जीएसटी संग्रह हुआ उसका 50 फीसदी टैक्स राजस्व देश की आबादी आय
के आधार पर सबसे निचले 50 फीसदी आया. सबसे ऊंची आय वाले 10 फीसदी लोगों से केवल
तीन फीसदी वसूला गया. वित्त वर्ष 2021-22 में जीएसटी का संग्रह 14.83 लाख करोड़ रुपये रहा है.
यानी इनका 97 संग्रह निम्न और मध्य आय वर्ग से हुआ है
इस आंकडे मतलब है कि जिस टैक्स के
जरिये आय की असमानता को दूर होनी थी वह तो गरीबों को और गरीब कर रहा है.
यह सुनकर बहुतों को अचरज हुआ होगा क्यों कि उनके पास पहुंच रहे ज्ञान में
तो यह बताया जाता है कि भारत में लोग टैक्स ही नहीं चुकाते. पूरा देश मुफ्तखोरों
से भरा है. इनकम टेक्स देने वाले मुटठीभर लोग देश को खिला रहे हैं.
आइये दूध दूध का और पानी पानी करते हैं अब...
क्या भारतीय टैक्स नहीं
देते ..
भारतीय को टैक्स न देने वाला साबित करने के लिए दो आंकड़े हमेशा चिपकाये
जाते हैं एक भारत में केवल छह करोड़ लोग इनकम टैक्स रिटर्न भरते हैं उसमें केवल
दो करोड़ लोग टैक्स देते हैं.
दूसरा आंकडा है कि केंद्र सरकार का सकल (राज्यों का हिस्सा निकालने पहले)
टैक्स व जीडीपी के अनुपात 17-18 फीसदी के आसापास है. जबकि विकसित
देशों यानी अमेरिका और यूरोप (ओईसीडी) से जहां टैक्स जीडीपी अनुपात 24 से 46 फीसदी
के बीच है.
अब
जरा सच पकड़िये. टैक्स जीडीपी अनुपात देश के कुल उत्पादन के अनुपात में सरकार के
राजस्व का हिसाब किताब है जबकि टैक्स तो लोग चुकाते हैं तो इसे औसत प्रति व्यक्ति
आय के आधार पर देखना चाहिए. यानी किसी देश के लोग कमाई के अनुपात में कितना टैक्स
देतही हैं
अमेरिका
में प्रति व्यक्ति आय 68000 डॉलर है जिस पर टैक्स जीडीपी अनुपात 24 फीसदी है. रुस
में 11000 डॉलर की प्रति व्यक्ति आय पर टैक्स जीडीपी अनुपात 16.5 फीसदी, दक्षिण कोरिया में 31000 डॉलर की आय
पर 27 फीसदी, मलेशिया में 11400 डॉलर पर टैक्स जीडीपी अनुपात
16.5 फीसदी है. इंडोनेशिया में 3893 डॉलर की आय पर अनुपात 13 फीसदी का है. चीन
में 9770 डॉलर की प्रति व्यक्ति आय पर टैक्स जीडीपी अनुपात 27 फीसदी है.
भारत
की प्रति व्यक्ति आय 2020 डॉलर (रु.1,35,,050) है जिस पर 17 फीसदी का टैक्स जीडीपी अनुपात दरअसल एशिया के देशों से
बेहतर है.
इनमें भारत के वेतनभोगी करदाता सबसे गए गुजरे हैं. वे गैर वेतनभोगी
करदाताओं की तुलना में करीब तीन गुना ज्यादा इनकम टैक्स देते हैं 2018-19 के बजट
भाषण के अनुसार वेतनभोगी 76306 रुपये का टैक्स देते हैं जबकि गैर वेतन भोगी 25,753 रुपये
का. अधिकांश टैक्स वेतन मिलने से पहले कट जाता है.
असली
टैक्स तो इधर है.
भारत
की लगभग पूरी आबादी अपने अधिकांश खर्चों पर दुनिया में सबसे ज्यादा टैक्स देने
वालों में गिनी जाती है.
सबसे
बड़ी तादाद या सबसे भारी बोझ परोक्ष करों का है जो अमीर से लेकर गरीब सभी के खर्च
को निचोड़ते हैं भारत में जीएसटी की मीडियन दर 18 फीसदी है जो अंतरराष्ट्रीय औसत
दर 14 फीसदी से अधिक है लेकिन यह हिसाब भी इतना सीधा नहीं है. भारत में पेट्रोल
डीजल पर टैक्स की दर राज्यों में 15 से 35 फीसदी तक है यह एक्साइज और कस्टम ड्यूटी के अलावा है. पांच दरों
वाले जीएसटी में उपभोक्ता के खपत के कई उत्पाद, इलेक्ट्रानिक्स, आटोमोबाइल आदि पर 28 फीसदी की दर से टैक्स लगता है.
अचल
संपत्ति पर टैक्स, हाउस
टैक्स, वाटर
टैक्स, टोल
टैक्स और बिजली दरें जीएसटी से बाहर हैं. इसलिए भारत में खपत पर समग्र औसत टैक्स
दर दुनिया के सबसे ऊंची दरों 25 से 27 फीसदी के आसपास है.
2010
से 2022 के बीच भारत में टैक्स और जीडीपी के बीच एक अनोखा रिश्ता बना. इन दस
वर्षोां में भारत का महंगाई सहित जीडीपी 93 फीसदी बढ़कर 76.5 लाख करोड से 147.4 लाख करोड हो गया
लेकिन सरका का टैक्स राजस्व 303 फीसदी बढ़कर 6.2 लाख करोड़ से बढ़कर 25.2 लाख
करोड़ हो गया.
इन
संख्याओं का मतलब यह कि एक दशक में देश की कुल कमाई जितनी बढ़ी उससे तीन गुना ज्यादा
बढ़ा सरकार राजस्व. यह हुआ जीएसटी के कारण जो अब कारपोरेट इनकम टैक्स और व्यक्तिगत
आयकर से भी ज्यादा राजस्व ला रहा है. सनद रहे कि जीएसटी को टैक्स का बोझ कम
करने के लिए लाया गया था.
सनद
रहे कि 2017 के बाद भारत में इंपोर्ट ड्यूटी भी बढ़ने लगी हैं, जिसके कारण टैक्स पर टैक्स की मार
और गहरी हो गई. भारत में जीएसटी उत्पादों सेवाओं की कीमत पर लगता है इसलिए महंगाई
जितनी बढ़ती है सरकार को उतना ज्यादा टैक्स मिलता है.
कुर्बानी
के बदले क्या ?
इस हिसाब को जानने के बाद आपको अपनी पीठ ठोंकनी चाहिए क्येां
कि आप अपना पेट काटकर सरकार को हर तरह से टैक्स दे रहे हैं. अबलत्ता इस गर्व के
अनुभूति से बाहर निकलकर यह पूछना भी हमारा दायित्व बनता है कि इस निम्म आय वर्ग
के देश से इतना टैक्स वसूलने के बाद सरकार लोगों को क्या दे रही है.
अमेरिका और यूरोप की छोडि़ये एशिया के देशों में अधिकांश बच्चे
पब्लिक स्कूल में पढ़ते हैं. ज्यादातर जगह बेहतर स्वास्थ्य सुविधायें सरकारी हैं.
जबकि 2020 में आई नीति आयोग की एक रिपोर्ट बताती है कि भारत में 50
फीसदी बच्चे निजी स्कूल में पढते हैं. शिक्षा पर लोगों के खर्च में 50 फीसद
हिस्सा फीस और 20 फीसद किताबों, ड्रेस (एनएसएस सर्वे 2017-18) आदि का है. यह पूरा खर्च निजी क्षेत्र को जाता है.
भारत के स्वास्थ्य नेटवर्क में दो तिहाई क्षमता निजी क्षेत्र के
पास है. इलाज पर 70 फीसदी खर्च लोग अपनी जेब से करते हैं जिसमें 52 फीसदी दवाओं पर, 22 फीसदी
निजी अस्पतालों पर और 10 फीसदी पैथोलॉजी पर जाता है. निजी अस्पतालों, पैथोलॉजी
और दवाओं पर भारी टैक्स भी है.
भारत में जिन सुविधाओं के लिए हम सरकार को टैक्स देते हैं उन्हीं को
निजी क्षेत्र से महंगी दर पर खरीदते हैं. भारत के आम लोगों की आय का करीब 35 से 45 फीसद हिस्सा
टैक्स में जा रहा रहा है लेकिन इतने टैक्स के बाद भारत
में न तो कोई समाजिक सुरक्षा है सार्वजनिक पेंशन ! तो फिर यह टैक्स कहां
जाता है, कौन खा जाता है? हमें एसा लगता है कि टैक्स देकर सुविधायें मांगने हमारे
अधिकार का हिस्सा ही नहीं है.
सबसे बड़ा सच
टैक्स से आय असमानता दूर करने का सिद्धांत भारत में दिवंगत हो चुका है. भारत के टैक्स लोगों को
गरीब बहुत गरीब बना रहे हैं.
कैसे ?
आइना सामने हैं
एक – अब भारत में कंपिनयां अपनी कमाई पर कम टैक्स चुकाती है और आम लोग ज्यादा.
आम लोगों की कमाई पर इनकम टैक्स की अधिकतम दर 30 फीसदी है जबकि कंपनियों कमाई
पर अधिकतम 21.9 फीसदी की दर से टैक्स देती हैं. इनमें से आधी से ज्यादा
कंपनियां 20 से 25 फीसदी टैक्स की दायरे में आती हैं
दूसरा सच
इंडिया रेटिंग्स ने 2021
में अपने एक अध्ययन में बताया था कि 2010 में केंद्र के कुल राजस्व में हर सौ
रुपये 40 कंपनियों से और 60 आम लोगों से आते थे अब सरकार आम लोगों से 75 फीसदी
टैक्स राजस्व उगाहती है और कंपनियों से 25 फीसदी. याद रहे कि 2018 में कॉर्पोरेट टैक्स में 1.45 लाख करोड़ रुपए की रियायत दी गई है.
2021-22 के बजट का आंकड़ा
करीब से देखिये तो यह सच पकड़ में आता है. केंद्र सरकार के कुल 27.58 लाख करोड़
के कुल टैक्स राजस्व में खपत पर लगने वाले टैक्स से 20 लाख करोड़ केवल आम लोगों से वसूले गए टैक्स
से आ रहे हैं.
केंद्र
के अलावा राज्यों के टैक्स लगभग सालाना 36-37 लाख करोड़ रुपये के हैं. यानी भारत
में खपत पर लगने वाले टैक्स 147 लाख करोड़ जीडीपी के अनुपात में करीब 40 फीसदी हो
गए हैं. इस हालत यदि लोग गरीब न हों तो और क्या होंगे.
तीसरा – आम लोगों पर टैक्स
का बोझ कम हो सकता है. सरकार को नया राजस्व भी मिल सकता है लेकिन भारत टैक्स
ढांचा बीते एक दशक में लगभग पूरी तरह खपत आधारित बना दिया गया और ऊंची कमाई वालों
को रियायतों के तोहफे दिये गए.
अमीरों की आय पर टैक्स
पूंजीवादी व्यवस्था की स्वीकार्य प्रणाली है इसके दो बडे रास्ते हैं और भारत
में दोनों ही जानबूझकर बंद रखे गए. पहला है वेल्थ टैक्स यानी संपत्ति कर.
यूरोप और अमेरिका के देशों में आयकर के अलावा संपत्ति कर भी हैं जो अमीरों की
संपत्ति पर लगते हैं. भारत में 2015 तक यह टैक्स था जिसे अरुण जेटली ने खत्म
कर दिया.
दूसरी टैक्स विरासत पर
लगता है जिसे इनहेरिटेंस टैक्स कहते हैं. भारत में यह लगाया ही नहीं जाता.
भारत में केवल कैपिटल के
ट्रांसफर पर टैक्स लगता है जिसे कैपिटल गेंस कहते हैं. अमीरों की अधिकांश संपत्ति
एसे विकल्पों में है जिसे बेचा नहीं जाता. संपत्ति बढ़ती जाती है और टैक्स
नहीं लगता.
यह बात किसी से छिपी नहीं
कि भारत समृद्ध लोगों को अपनी वेल्थ और विरासत को सामान्य आय के बीच छिपाने का
कानूनी मौका दिया जाता है और सरकार राजस्व में गरीबों की जेब नोचती रहती है.
सरकारों की टैक्सखोरी के
कारण भारत के अधिकांश परिवार एसे आदमी में बदल गए हैं जो एक बाल्टी में बैठकर
उसे हैंडल से उठाने की कोशिश कर रहा है. अगर हम यह भूल गए कि केवल टैक्स चुकाना
ही देश भक्ति नहीं है सरकारों से टैक्स का हिसाब मांगना भी सबसे बड़ी देशभक्ति है यकीन मानिये यह टैक्स वाली महंगाई बढती जाएगी और कमाई व बचत को टैक्सों
डायनासोर निगालता जाएगा.
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