इतिहास से हम क्या सीखते हैं? यही न, कि हमने इतिहास से कुछ नहीं सीखा है। इतिहास दरअसल खुद को नहीं दोहराता बल्कि गलतियों का इतिहास स्वयं को दोहराता है। नहीं तो लेहमन ब्रदर्स सहित शताधिक बैंकों को गंवाने के बाद दुनिया बदल न जाती ? चौंकिये और झुंझलाइये! दुनिया ने 2008 की शुरुआत से लेकर अब तक शेयर बाजारों में 30 खरब डॉलर गंवाये हैं और घरों आदि अचल संपत्तियों में 11 खरब डॉलर का चूना लगा है। यह पूरा नुकसान दुनिया के जीडीपी यानी कुल आर्थिक उत्पादन का 75 फीसदी है। मगर रत्ती भर बदलाव दिखा है कहीं? दुनिया के मुल्कों ने तो उन कारणों का इलाज तक नहीं किया जिनके कारण यह विपदा फट पड़ी थी। बैंक व निवेश संस्थायें फिर उसी पुराने ढर्रे पर हैं। नियामक पहले की तरह लड़ रहे हैं। राजनेताओं के एजेंडे पर अब वित्तीय संकट के कारणों का इलाज है ही नहीं। यानी सब कुछ हस्ब-मामूल है। खैर मनाइये क्यों कि मंदी के बाद की दुनिया जोखिमों से भरपूर है।
बड़ा हुआ तो क्या हुआ?
टू बिग टु फॉल .. यही तो मुहावरा इस्तेमाल करती थी न्यूयार्क की वाल स्ट्रीट, लेहमैनों जैसे नामचीन महाकाय निवेश बैंकों के बारे में जिन्हे वित्तीय संकट के सैलाब ने इतिहास के गटर में डाल दिया। अचरज इस बात पर नहीं कि संकट से पहले दुनिया यह समझती थी कि वित्तीय दिग्गज अपराजेय हैं, आश्चर्य इस पर है कि आज भी ऐसा ही माना जा रहा है। इसलिए ही तो सुधार के नाम पर दुनिया ने अपने बैंकों को और बड़ा कर दिया। मेरिल लिंच, बैंक ऑफ अमेरिका में घुस गया। अब बैंक ऑफ अमेरिका 2.7 खरब डॉलर की संपत्ति वाला भीमकाय वित्तीय संस्थान है। अमेरिका के वेल्स फार्गो ने 12.7 अरब डॉलर खर्च कर वाचोविया बैंक को निगल लिया। अमेरिका के केमिकल बैंक को चेज मैनहट्टन पचा गया तो यूरोप ड्रेसनर बैंक को ड्यूश बैंक। मंदी के बाद अमेरिका लेकर ऑस्ट्रेलिया तक और जापान से लेकर ब्राजील तक वित्तीय संस्थायें छोटी नहीं बल्कि बड़ी हुई हैं और वह भी संकट के मौके पर मिली सरकारी व केंद्रीय बैकों की मदद के सहारे।ध्यान दीजिये मेरिंल लिंच का उद्धार बैंक ऑफ अमेरिका ने अमेरिकी खजाने व फेड रिजर्व की कृपा से किया। दरअसल लेहमैनों, वाचोविया, फेनी मे आदि की बर्बादी के बाद दुनिया ने माना यह थी बड़ी वित्तीय संस्थाओं वाले मॉडल में जोखिम ज्यादा है क्यों कि इनकी बर्बादी बड़ी तबाही लाती है लेकिन सुधारों के नाम वित्तीय बाजारों के गले में और बड़े पत्थर बांध दिये गए। अब अगर किसी संकट में बैंक ऑफ अमेरिका डूबा तो तबाही देखकर दुनिया डर जाएगी।
संहार का सामान
इस मंदी में अगर आपने शेयर बाजार में पैसा गंवाया है या बाजार में रोजगार, तो आपका पूरा हक बनता है दुनिया के कर्णधारों से यह पूछने का कि मंदी के बाद क्या सुधरा है? अब तक तो वित्तीय दुनिया यह कायदे से जान गई है कि जटिल और हवाई वित्तीय उपकरणों ने उसे तबाह कर दिया लेकिन इन उपकरणों का इस्तेमाल कहीं बंद नहीं हुआ। सब कुछ वैसा ही है, खतरनाक, अपारदर्शी और विस्फोटक। वित्तीय जनसंहार के हथियारों के नाम से पारिभाषित वित्तीय डेरीवेटिव्स फलफूल रहे हैं। अपनी जेब संभालिये क्यों कि 2009 की दूसरी पहली छमाही तक अमेरिका के पांच बैंकों ने करीब 190 खरब डॉलर के डेरीवेटिव्स संजो रखे थे। यह घोर सट्टेबाजी पर आधारित डेरीवेटिव्स हैं और इस तरह के कुल डेरीवेटिव्स की मालकियत में इन पांच बैंकों हिस्सा करीब 25 फीसदी है। आइये आपका डर और बढ़ाते हैं। दुनिया के बैंकों ने निवेश के लिए ओवर ड्राफ्ट देना जारी रखा हुआ है। 2009 में दुनिया भर के प्रमुख बैंक अकेले ओवर ड्राफ्ट फीस से करीब 38 अरब डॉलर कमायेंगे। ध्यान दीजिये 2008 के संकट के बाद दुनिया ने गंगाजली उठा कर यह माना था कि अगर कर्ज के धन से अति निवेश या सट्टेबाजी होती है तो वह सिर्फ तबाही लाती है। मगर किससे पूछें कि दुनिया के शेयर बाजारों में हाल के महीनों में जो तेजी दिखी यह फिर उसी गलती का दोहराया जाना नहीं है? आखिर बताने वाला है कौन?
कौन चाहे सुधरना?
जी 20 के मंचों पर चिंता जताते, ओबामाओं, गार्डन ब्राउनों और मनमोहन सिंहों देखकर आप किसी भुलावे में तो नहीं पड़ गए? क्या आपको मालूम है कि लेहमैन के ढहने के बाद अमेरिका की संसद ने वित्तीय नियमों को चुस्त करने के कितने कानून पारित किये हैं? .. एक भी नहीं। जी हां सच में एक भी नहीं। दरअसल अमेरिका में संपत्ति मॉर्टगेज की समस्या के हल के लिए एक छोटा सा कानूनी प्रयास भी बैंकों की लामबंदी के कारण अमेरिकी संसद में इस तरह हारा कि एक सदस्य को कहना पड़ा कि बैंकों ने अमेरिकी कांग्रेस पर कब्जा कर लिया है। अमेरिका में कंज्यूमर फाइनेंशियल प्रोटेक्शन एजेंसी बनाने का प्रस्ताव भी मर चुका है। 2008 के संकट के बद पूरी दुनिया में सिस्टमिक रेगुलेटर बनाने की बहस शुरु हुई थी मगर यह कहीं नहीं पहुंची। किसी देश में वित्तीय नियमन में न कोई बड़ा बदलाव आया है और न ही कहीं कोई ऐसा नियामक बना जो कि दुनिया को आगाह करे कि पूरी प्रणाली में कहां खतरा है। भारत को ही देखिये इस संकट के बाद यहां भी कुछ नहीं बदला। वित्तीय तंत्र को मिली नसीहतें लागू करने के लिए कोई ठोस उपाय पिछले एक साल में नजर नहीं आए हैं।
मंदी खुद में बहुत बड़ी नसीहत थी लेकिन अब एक साल बाद की हालत देखकर लगता है कि मंदी जाते हुए शायद ज्यादा बड़ी नसीहतें छोड़ रही है। दुनिया अपनी रवानी में है। हम वही सब कुछ फिर करने लगे हैं जिसे हम एक साल पहले कोस रहे थे। न्यूटन ने कहा था कि वह ग्रहों की चाल की गणना कर सकते हैं लेकिन आदमी के पागलपन की नहीं। न्यूटन ने भी ब्रिटेन में 1711 के साउथ सी बबल नाम के मशहूर शेयर घोटाले में हाथ जलाये थे। जिसमें लोगों ने फर्जी कंपनियों के शेयर एक दूसरे को बेच दिये थे। न्यूटन से लेकर आज तक की दुनिया शायद कई मामलों एक जैसी है। इसलिए सतर्क रहिये, तबाही फिर मारेगी। क्यों कि इतिहास से हमने यही सीखा है कि इतिहास हमने कुछ नहीं सीखा। ====
1 comment:
V.Nice
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