अर्थार्थ
सड़क पर से बैंकनोट बटोरे जा रहे हैं। (हंगरी 1946) .. लाख व करोड़ मूल्य वाले के नोट लेकर लोग जगह जगह भटक रहे हैं। (जर्मनी 1923) .. बाजार में कीमतें घंटो की रफ्तार से बढ़ रही हैं। (जिम्बावे 2007)। ... अमेरिका के लोगों के सपनों में यह दृश्य आजकल बार-बार आ रहे हैं। अंकल सैम का वतन, दरअसल, भविष्य के क्षितिज पर हाइपरइन्फे्लेशन का तूफान घुमड़ता देख रहा है। एक ऐसी विपत्ति जो पिछले सौ सालों में करीब तीन दर्जन से देशों में मुद्रा, वित्तीय प्रणाली और उपभोक्ता बाजार को बर्बाद कर चुकी है। आशंकायें मजबूत है क्यों कि ढहती अमेरिकी अर्थव्यवस्था को राष्ट्रपति बराकर ओबामा और बेन बर्नांकी (फेडरल रिजर्व के मुखिया) मुद्रा प्रसार की अधिकतम खुराक (क्यूई-क्वांटीटिव ईजिंग) देने पर आमादा हैं। फेड रिजर्व की डॉलर छपाई मशीन ओवर टाइम में चल रही है और डरा हुआ डॉलर लुढ़कता जा रहा है। बर्नाकी इस घातक दवा (क्यूई) के दूसरे और तीसरे डोज बना रहे है। जिनका नतीजा अमेरिका को महा-मुद्रास्फीति में ढकेल सकता है और अगर दुनिया में अमेरिका के नकलची समूह ने भी यही दवा अपना ली तो यह आपदा अंतरदेशीय हो सकती।
क्यूई उर्फ डॉलरों का छापाखाना
मांग, उत्पादन, निर्यात और रोजगार में बदहाल अमेरिका डिफ्लेशन (अपस्फीति) के साथ मंदी के मुहाने पर खड़ा है। ब्याज दरें शून्य पर हैं यानी कि अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए ब्याज दरें घटाने जैसी दवायें फेल हो चुके हैं। अब क्वांटीटिव ईजिंग की बारी है। अर्थात ज्यादा डॉलर छाप कर बाजार में मुद्रा की क्वांटिटी यानी मात्रा बढ़ाना। नोट वस्तुत: भले ही न छपें लेकिन व्यावहारिक मतलब यही है कि फेड रिजर्व के पास मौजूद बैंको के रिजर्व खातों में (मसलन भारत में सीआरआर) ज्यादा धन आ जाएगा। इसके बदले बैंक बांड व प्रतिभूतियां फेड रिजर्व को दे देंगे। क्यूई की दूसरी खुराक इस साल दिसंबर तक आएगी। तीसरी की बात भी
चल रही है। अमेरिका मे इस खतरनाक दवा के इस्तेमाल के बाद से फेड रिजर्व की बैलेंस शीट 2008 के सितंबर में 900 बिलियन डॉलर से बढ़ कर अब 2.3 ट्रिलियन डॉलर पर आ गई है। फेड हर माह करीब 14.5 बिलियन डॉलर बाजार में छोडऩे की तैयारी में है। बर्नांकी समझ रहे हैं कि बाजार में पैसा बढऩे से औद्योगिक कर्ज, उत्पादन और डॉलर की कमजोरी से निर्यात व रोजगार बढ़ेंगे। मगर दुनिया यह मान रही कि इससे डॉलर की साख चौपट हो जाएगी जो कि अमेरिका और पूरी दुनिया पर भारी पड़ेगा।
महा-महंगाई की पदचाप
हंगरी की सड़क पर 1946 में जो पेंगो (हंगरी की मुद्रा) झाड़ू से बटोर कर किनारे किये गए उनमें ज्यादातर नोट दस के आगे 20 शून्य वाले (क्विनटिलियन) वाले था और महंगाई की दैनिक दर 207 फीसदी पर थी। हाइपरइन्फ्लेशन एक जटिल परिस्थिति है। यह वित्तीय आपदा किसी देश की कानूनी मुद्रा (फिएट करेंसी अर्थात सरकार से गारंटी प्राप्त मुद्रा मसलन कागजी नोट या सिक्के) को ले डूबती है। शास्त्रीय अर्थों में मुद्रास्फीति की मासिक दर का 50 फीसदी ऊपर जाना हाइपरइन्फ्लेशन की शुुरुआत है जो मुद्रा के अभूतपूर्व अवमूल्यन पर जाकर रुकती है। पिछले सौ वर्षों में जर्मनी, जापान, रुस, टर्की, चीन, ब्राजील, अर्जेँटीना सहित 36 से ज्यादा देशों के नागरिकों ने इस महा-महंगाई को झेला है जिसमे उनकी मुद्रा रद्दी में बदल (लाख करोड़ के नोट) गई और महंगाई सब कुछ लूट ले गई। 11000 फीसदी की मुद्रास्फीति और 100 ट्रिलियन डॉलर के नोट वाला 2007 का जिम्बावे दुनिया के जहन में सबसे ताजी याद है। इस आपदा की पृष्ठभूमि में युद्ध, मुद्रा संकट, राजनीतिक अव्यवस्था कुछ भी हो सकते हैं लेकिन इसकी वजह है सिर्फ तर्कहीन मुद्रा प्रसार यानी नोट छापकर बाजार में फेंकने की आदत। जो अंतत: घरेलू मुद्रा को कचरे में बदल देती है। अधिकांश मामलों में हाइपरइन्फेलेशन मौद्रिक सुधारों और नई मुद्रा के जन्म के साथ बिदा हुई हैं। अमेरिका भी इस खतरे की दहलीज पर खड़ा है। फेड रिजर्व जितने डॉलर छोड़ेगा, अमेरिकी डॉलर उतना कमजोर होता जाएगा और डॉलर की कमजोरी के अपने व्यापक असर हैं। मुद्रा प्रसार (क्यूई) कार्यक्रम को देखकर विशेषज्ञ मान रहे हैं कि मुद्रास्फीति की यह महादशा 18 महीने में अमेरिका को घेर सकती है।
सबसे बड़ा दांव
अमेरिकी डॉलर, अर्जेंटीना का पेसो, हंगरी का पेंगो, बल्गीरिया का लेव या ग्रीस का ड्राच्मा नहीं है। हर देश के विदेशी मुद्रा भंडार इस रिजर्व करेंसी की खूंटी पर टंगे है। उसका अवमूल्यन बहुतों की सांस उखाड़ सकता है। यह समझने के बाद ही अमेरिका ने यह नपा तुला जोखिम लिया है। वित्तीय संकट से निबटने के लिए यह अमेरिका का अब तक का सबसे बड़ा दांव है। जीडीपी के अनुपात में शत प्रतिशत कर्ज और दस फीसदी के राजकोषीय घाटे पर बैठे अमेरिका, इस कदम के नतीजे के तौर पर, कर्ज का बोझ बढऩा और डॉलर का कमजोर होना तय है। फिर भी यह मानने वाले कम नहीं हैं इसके बावजूद दुनिया डॉलर को डूबने नहीं देगी क्यों कि यह रिजर्व करेंसी अगर धराशायी हुई तो जिंसों की कीमतें आसमान छूकर दुनिया को संकट में ढकेल देंगी। इस दूसरे तर्क के सहारे अमेरिका अपनी गलतियों की कीमत शेष दुनिया से वसूल रहा है। वैसे कई मायनों में यह परिस्थिति बिल्कुल नई है। कोई नहीं जानता कि निर्यात बढ़ाने के लिए प्रतिस्पर्धात्मक मुद्रा अवमूल्यन में उलझी दुनिया के कुछ और बड़े देशों ने अगर अमेरिका का नुस्खा आजमाया तो क्या दशा होगी? ऐसा होना बहुत हद तक मुमकिन है क्यों अमेरिका जैसी मंदी ने बहुतों को घेर रखा है।
हाइपरइन्फलेशन से खौफजदा लोग जर्मनी के वाइमर गणराज्य (1923) की वह छवि याद करते हंै जब लोगों ने 100 ट्रिलियन मार्क के बैंक नोटों से दीवारें सजाई थीं। इतिहास की इबारत तो यही कहती है कि अमेरिका ने एक ऐसी दवा चुनी है जिसके न प्रभावी होने की गारंटी है और न सुरक्षित होने की। क्यों कि जापान जैसे कुछ एक उदाहरणों को छोड़ कर ज्यादातर को यह इलाज गर्त में ही ले गया है लेकिन अमेरिका करे भी क्या? जिसके पास हथौड़ा ही एकलौता औजार हो उसे हर समस्या कील नजर आती है। फेड रिजर्व इसी कहावत का मुरीद है और अर्थव्यवस्था को उबारने के लिए डॉलर छापने के एकलौते विकल्प का इस्तेमाल रहा है। खुद अमेरिका भी यह नहीं जानता कि क्यूई यानी मुद्रा प्रसार का यह खतरनाक मंत्र उसके अनिष्ट को दूर करेगा या नए बड़े संकट में ढकेल देगा लेकिन इतना तय है कि कमजोर डॉलर बहुत सी जरुरी चीजों की कीमतों को बेतहाशा बढ़ाने जा रहा है। अर्थात दुनिया को तत्काल महंगाई की कुछ कठिन अंतर-दशाओं के लिए तैयार हो जाना चाहिए।
सड़क पर से बैंकनोट बटोरे जा रहे हैं। (हंगरी 1946) .. लाख व करोड़ मूल्य वाले के नोट लेकर लोग जगह जगह भटक रहे हैं। (जर्मनी 1923) .. बाजार में कीमतें घंटो की रफ्तार से बढ़ रही हैं। (जिम्बावे 2007)। ... अमेरिका के लोगों के सपनों में यह दृश्य आजकल बार-बार आ रहे हैं। अंकल सैम का वतन, दरअसल, भविष्य के क्षितिज पर हाइपरइन्फे्लेशन का तूफान घुमड़ता देख रहा है। एक ऐसी विपत्ति जो पिछले सौ सालों में करीब तीन दर्जन से देशों में मुद्रा, वित्तीय प्रणाली और उपभोक्ता बाजार को बर्बाद कर चुकी है। आशंकायें मजबूत है क्यों कि ढहती अमेरिकी अर्थव्यवस्था को राष्ट्रपति बराकर ओबामा और बेन बर्नांकी (फेडरल रिजर्व के मुखिया) मुद्रा प्रसार की अधिकतम खुराक (क्यूई-क्वांटीटिव ईजिंग) देने पर आमादा हैं। फेड रिजर्व की डॉलर छपाई मशीन ओवर टाइम में चल रही है और डरा हुआ डॉलर लुढ़कता जा रहा है। बर्नाकी इस घातक दवा (क्यूई) के दूसरे और तीसरे डोज बना रहे है। जिनका नतीजा अमेरिका को महा-मुद्रास्फीति में ढकेल सकता है और अगर दुनिया में अमेरिका के नकलची समूह ने भी यही दवा अपना ली तो यह आपदा अंतरदेशीय हो सकती।
क्यूई उर्फ डॉलरों का छापाखाना
मांग, उत्पादन, निर्यात और रोजगार में बदहाल अमेरिका डिफ्लेशन (अपस्फीति) के साथ मंदी के मुहाने पर खड़ा है। ब्याज दरें शून्य पर हैं यानी कि अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए ब्याज दरें घटाने जैसी दवायें फेल हो चुके हैं। अब क्वांटीटिव ईजिंग की बारी है। अर्थात ज्यादा डॉलर छाप कर बाजार में मुद्रा की क्वांटिटी यानी मात्रा बढ़ाना। नोट वस्तुत: भले ही न छपें लेकिन व्यावहारिक मतलब यही है कि फेड रिजर्व के पास मौजूद बैंको के रिजर्व खातों में (मसलन भारत में सीआरआर) ज्यादा धन आ जाएगा। इसके बदले बैंक बांड व प्रतिभूतियां फेड रिजर्व को दे देंगे। क्यूई की दूसरी खुराक इस साल दिसंबर तक आएगी। तीसरी की बात भी
चल रही है। अमेरिका मे इस खतरनाक दवा के इस्तेमाल के बाद से फेड रिजर्व की बैलेंस शीट 2008 के सितंबर में 900 बिलियन डॉलर से बढ़ कर अब 2.3 ट्रिलियन डॉलर पर आ गई है। फेड हर माह करीब 14.5 बिलियन डॉलर बाजार में छोडऩे की तैयारी में है। बर्नांकी समझ रहे हैं कि बाजार में पैसा बढऩे से औद्योगिक कर्ज, उत्पादन और डॉलर की कमजोरी से निर्यात व रोजगार बढ़ेंगे। मगर दुनिया यह मान रही कि इससे डॉलर की साख चौपट हो जाएगी जो कि अमेरिका और पूरी दुनिया पर भारी पड़ेगा।
महा-महंगाई की पदचाप
हंगरी की सड़क पर 1946 में जो पेंगो (हंगरी की मुद्रा) झाड़ू से बटोर कर किनारे किये गए उनमें ज्यादातर नोट दस के आगे 20 शून्य वाले (क्विनटिलियन) वाले था और महंगाई की दैनिक दर 207 फीसदी पर थी। हाइपरइन्फ्लेशन एक जटिल परिस्थिति है। यह वित्तीय आपदा किसी देश की कानूनी मुद्रा (फिएट करेंसी अर्थात सरकार से गारंटी प्राप्त मुद्रा मसलन कागजी नोट या सिक्के) को ले डूबती है। शास्त्रीय अर्थों में मुद्रास्फीति की मासिक दर का 50 फीसदी ऊपर जाना हाइपरइन्फ्लेशन की शुुरुआत है जो मुद्रा के अभूतपूर्व अवमूल्यन पर जाकर रुकती है। पिछले सौ वर्षों में जर्मनी, जापान, रुस, टर्की, चीन, ब्राजील, अर्जेँटीना सहित 36 से ज्यादा देशों के नागरिकों ने इस महा-महंगाई को झेला है जिसमे उनकी मुद्रा रद्दी में बदल (लाख करोड़ के नोट) गई और महंगाई सब कुछ लूट ले गई। 11000 फीसदी की मुद्रास्फीति और 100 ट्रिलियन डॉलर के नोट वाला 2007 का जिम्बावे दुनिया के जहन में सबसे ताजी याद है। इस आपदा की पृष्ठभूमि में युद्ध, मुद्रा संकट, राजनीतिक अव्यवस्था कुछ भी हो सकते हैं लेकिन इसकी वजह है सिर्फ तर्कहीन मुद्रा प्रसार यानी नोट छापकर बाजार में फेंकने की आदत। जो अंतत: घरेलू मुद्रा को कचरे में बदल देती है। अधिकांश मामलों में हाइपरइन्फेलेशन मौद्रिक सुधारों और नई मुद्रा के जन्म के साथ बिदा हुई हैं। अमेरिका भी इस खतरे की दहलीज पर खड़ा है। फेड रिजर्व जितने डॉलर छोड़ेगा, अमेरिकी डॉलर उतना कमजोर होता जाएगा और डॉलर की कमजोरी के अपने व्यापक असर हैं। मुद्रा प्रसार (क्यूई) कार्यक्रम को देखकर विशेषज्ञ मान रहे हैं कि मुद्रास्फीति की यह महादशा 18 महीने में अमेरिका को घेर सकती है।
सबसे बड़ा दांव
अमेरिकी डॉलर, अर्जेंटीना का पेसो, हंगरी का पेंगो, बल्गीरिया का लेव या ग्रीस का ड्राच्मा नहीं है। हर देश के विदेशी मुद्रा भंडार इस रिजर्व करेंसी की खूंटी पर टंगे है। उसका अवमूल्यन बहुतों की सांस उखाड़ सकता है। यह समझने के बाद ही अमेरिका ने यह नपा तुला जोखिम लिया है। वित्तीय संकट से निबटने के लिए यह अमेरिका का अब तक का सबसे बड़ा दांव है। जीडीपी के अनुपात में शत प्रतिशत कर्ज और दस फीसदी के राजकोषीय घाटे पर बैठे अमेरिका, इस कदम के नतीजे के तौर पर, कर्ज का बोझ बढऩा और डॉलर का कमजोर होना तय है। फिर भी यह मानने वाले कम नहीं हैं इसके बावजूद दुनिया डॉलर को डूबने नहीं देगी क्यों कि यह रिजर्व करेंसी अगर धराशायी हुई तो जिंसों की कीमतें आसमान छूकर दुनिया को संकट में ढकेल देंगी। इस दूसरे तर्क के सहारे अमेरिका अपनी गलतियों की कीमत शेष दुनिया से वसूल रहा है। वैसे कई मायनों में यह परिस्थिति बिल्कुल नई है। कोई नहीं जानता कि निर्यात बढ़ाने के लिए प्रतिस्पर्धात्मक मुद्रा अवमूल्यन में उलझी दुनिया के कुछ और बड़े देशों ने अगर अमेरिका का नुस्खा आजमाया तो क्या दशा होगी? ऐसा होना बहुत हद तक मुमकिन है क्यों अमेरिका जैसी मंदी ने बहुतों को घेर रखा है।
हाइपरइन्फलेशन से खौफजदा लोग जर्मनी के वाइमर गणराज्य (1923) की वह छवि याद करते हंै जब लोगों ने 100 ट्रिलियन मार्क के बैंक नोटों से दीवारें सजाई थीं। इतिहास की इबारत तो यही कहती है कि अमेरिका ने एक ऐसी दवा चुनी है जिसके न प्रभावी होने की गारंटी है और न सुरक्षित होने की। क्यों कि जापान जैसे कुछ एक उदाहरणों को छोड़ कर ज्यादातर को यह इलाज गर्त में ही ले गया है लेकिन अमेरिका करे भी क्या? जिसके पास हथौड़ा ही एकलौता औजार हो उसे हर समस्या कील नजर आती है। फेड रिजर्व इसी कहावत का मुरीद है और अर्थव्यवस्था को उबारने के लिए डॉलर छापने के एकलौते विकल्प का इस्तेमाल रहा है। खुद अमेरिका भी यह नहीं जानता कि क्यूई यानी मुद्रा प्रसार का यह खतरनाक मंत्र उसके अनिष्ट को दूर करेगा या नए बड़े संकट में ढकेल देगा लेकिन इतना तय है कि कमजोर डॉलर बहुत सी जरुरी चीजों की कीमतों को बेतहाशा बढ़ाने जा रहा है। अर्थात दुनिया को तत्काल महंगाई की कुछ कठिन अंतर-दशाओं के लिए तैयार हो जाना चाहिए।
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