Monday, April 11, 2011

जीत के जोखिम

मोटी खालों में जुंबिश मुबारक ! कानों पर जूं रेंगना मुबारक ! सन्नाटे का टूटना मुबारक! सबसे ज्यांदा मुबारक हो वह मौका जो बड़ी मुश्किल से बना है। भ्रष्टाचार के खिलाफ बनते माहौल और घुटनों के बल सरकार को देखना अनोखा है। मगर ठहरिये, इस जीत में  एक जोखिम है!!! व्य वस्था बदलने की यह बहस व्यक्तियों को चुनने की बहस में सिमट सकती है। हमें किसी छोटे से बदलाव से भरमाया भी जा सकता है क्यों कि भ्रष्टाचार हद दर्जे का चालाक, पेचीदा और पैंतरेबाज दुश्मन है। भ्रष्टा चार से लड़ाई ही का शास्त्र् ही उलटा है, यहां व्यवस्था के खिलाफ खड़े कुछ लोग नहीं बल्कि कुछ भ्रष्ट व्यक्तियों से निरंतर लड़ने वाली एक व्यवस्था की दरकार है जिसमें लोकपाल बस छोटी सी एक कड़ी मात्र है। लोहा गरम है... भ्रष्टाचार के खिलाफ रणनीति की बहस राजनीति, सरकार, उद्योग, कंपनी, स्वयंसेवियों सभी में पारदर्शिता को समेटती हुए होनी चाहिए ताकि मजबूत व्यवस्था बन सकें। इस लड़ाई में हम दुनिया में अकेले नहीं हैं। विश्‍व के देश जतन के साथ सिस्टम गढ़ कर भ्रष्टाचार से जूझ रहे है क्यों कि भ्रष्टाचार एक दिन का आंदोलन या एक मुश्त आजादी नहीं बल्कि रोजाना की लड़ाई है।
मोर्चे और रणनीतियां
आइये भ्रष्टा चार के खिलाफ रणनीति की बहस को दूर तक ले चलें। भ्रष्टा‍चार से लड़ती दुनिया लगातार नई तैयारियों के साथ इस दुश्मन को घेर रही है। तजुर्बे बताते हैं कि जीत की गारंटी के लिए राजनीति, कानून, अदालत, जन पहरुए, तरह तरह की आजादी, खुलापन सबका सक्रिय होना जरुरी है। मगर भारत तो इस लड़ाई में नीतिगत और रणनीतिक तौर पर सिरे से दरिद्र है। लिथुआनिया, रोमानिया जैसों के पास भी
भ्रष्टाचार के खिलाफ एक राष्ट्रीय कार्ययोजना है जो भ्रष्टाचार पर संयुक्त राष्ट्र के अंतरराष्ट्रीय कार्यक्रम जैसे मॉडल पर बनी है। यह सुलझी हुई रणनीतियां संसद, न्यायपालिका, प्रशासन, सार्वजनिक सेवायें, कारोबार, स्वयं सेवी संगठन और मीडिया सभी को नियमों में बांध कर भ्रष्टाचार पर रोक को राष्ट्रीय कार्यसंस्‍कृति का हिस्सा बना देती हैं और देश एक राष्ट्रीय शुचिता (इंटीग्रिटी) सिस्टम से संचालित होता है। आस्ट्रेलिया का क्वींसलैंड दुनिया को इस सिस्ट्म की रोशनी दिखा रहा है। इस जंग की सबसे कमजोर कड़ी है सांसद-विधायक, न्यायाधीश और जनसेवक ( पब्लिक ऑफिस) का कई मामलों में कानून से ऊपर होना। भारत में नेता होना अभियोजन से बचाव का आसान रास्ता है मगर गैलप इंटरेनशनल जैसे सर्वे के नतीजे, नेताओं मिली इस छूट को भ्रष्टा चार की जड मानते हैं। अतिविशिष्टों को कानून की निगाह में आम आदमी बनाने का सवाल पूरे यूरोप को वर्षों से मथ रहा है। वैसे इसकी एक आदर्श व्यीवस्था करीब सवा सौ साल से नीदरलैंड में मौजूद है। वहां सांसद विधायकों चुने हुए प्रतिनिधि के तौर पर किया गया काम ही केवल कानून के दायरे से बाहर है, और उन्हें कोई विशेषाधिकार नहीं हैं। भारत की ताजी बहस भी अगर, जनप्रति‍निधियों के विशेषाधिकार, राजनीतिक चंदे, चुनाव के खर्च, प्रत्याशियों का चयन आदि को भी समेटे तभी हमें कुछ उम्मी्द जग सकती है। भ्रष्टाचार के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय पेशंबदी का अगला स्तर जांच का है, यहां भी हम बदहाल हैं। हमारा एकलौता इलाज सीबीआई है जो सरकारों के सामने ठुमके लगाती है। हांगकांग ने भ्रष्टाचार विरोधी स्‍वतंत्र आयोग (आईसीएसी) दुनिया के सामने मॉडल के तौर पर रखा है। हांगकांग के 99 फीसदी लोग इस आयोग में भरोसा रखते हैं। इस मॉडल को लेकर मलावी व बोत्संवाना जैसे देशों ने भी अच्छी शुरुआत की है। आस्ट्रे लिया के न्यू साउथवेल्स के ऐसे ही आयोग की वेबसाइट भ्रष्टाचार के पहरुओं के बीच बहुत लोकप्रिय है।
पहरुए और पेशबंदी
हांगकांग के बेहद ताकतवर और ऊंची साख वाले भ्रष्टांचार निरोधक आयोग पर कई मॉनीटरिंग समितियों के अलावा 40 नागरिकों का एक दल लगातार निगाह रखता है, इसी तरह चेक रिपब्लिक की सरकार ने भ्रष्टाचार के खिलाफ हॉटलाइन की जिम्मेखदारी स्व यंसेवी संगठनों को दी है यानी कि भ्रष्टाचार से लड़ाई में जनपहरुओं की जरुरत असंदिग्ध है लेकिन जन पहरुओं को भूमिका को लेकर दुनिया अभी बहस कर रही है। दुनिया बड़े स्वयंसेवी संगठन भी पहरेदारी तक सीमित हैं क्यों कि पारदर्शिता के सवाल इन संस्थाओं में भी हैं। भ्रष्टाचार से लड़ाई में दुनिया अभी अधिकार संपन्न स्वायत्त् संस्थाओं यानी लोकपाल या ओम्बुड्समैन को अभी आजमा ही रही है। ओम्बुड्समैन की व्यंवस्था चीन ने 2000 साल पहले दी थी। पहले नार्वे ने और फिर न्यूअजीलैंड ने इसे पकड़ा लेकिन पोलैंड का मॉडल काफी चर्चित रहा है। जहां ओम्बुहड्समैन संसद से नियुक्त होता है मगर लोकपालों की भूमिका जनता की शिकायतें सुनने और प्रशासनिक खामियों को दूर कराने तक सीमित है। भ्रष्टाचार से लड़ाई में लोकपाल को सीधी भूमिका कम ही देशों में मिली है क्यों कि अंतत: भ्रष्टाचार को सजा देने के लिए कानून जरुरी है और सजा अदालतों के जरिये ही मुमकिन है।
इंसाफ और इलाज
भ्रष्टाचार एक अपराध है जिसका कानूनी इलाज चाहिए।  मजबूत कानून व पारदर्शी अदालतें इस लड़ाई में जीत की गारंटी हैं। भारत में सहित शेष विश्‍व में यह जंग अदालतों के सहारे ही जीती गई है। इसलिए अमेरिका में जजों के सीधे चुनाव की व्यवस्था 19 वीं सदी से भली प्रकार लागू है ताकि नेता न्यायाधीशों की नियुक्ति से दूर रहें। मगर भारत में न्यायाधीशों की नियुक्ति का पूरा तंत्र सिरे से अपारदर्शी है। पारदर्शिता के पक्ष में और भ्रष्टाचार के खिलाफ कानूनों में हम गरीब हैं। 1947 में बने भ्रष्टाचार निरोधक कानून और 1964 में सतर्कता आयोग के बाद अर्से तक भ्रष्टाचार के खिलाफ फौज में बड़ी नई भर्ती ही नहीं हुई। व्हिसलब्लोअर ( सिस्टम में रहकर जूझने वालों की हिफाजत) कानून, वित्ती य भ्रष्टाचार की जांच का तंत्र आदि बनाने पर अब निगाह गई है। भ्रष्टाचार के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय सहमतियों से हम अभी भी बाहर है और नए तरह के भ्रष्टाटचार से लड़ने वाले कानूनों और संस्थाओं की नई पीढी नदारद है। भ्रष्टाचार से लड़ने की कवायद में हमें इन सभी पहलुओं समेटना होगा, अकेला लोकपाल जीत की गारंटी कतई नहीं है।
एक बड़ा समूह एक साथ सोच सके ऐसा हमेशा नहीं होता। जिद्दी सरकारें बमुश्किल झुकती हैं और सियासत बिरले ही अपनी जात छोड़ती है। हम एक मुबारक मौके के बीच में हैं मगर पेंच भी भरपूर हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन का झंडा उठाये पहरुओं के किरदार में जरा सी खोट ( खतरा पूरा है) उम्मीद को तोड़ देगी। इसलिए बेहतर है कि भ्रष्टाचार से जूझने की पूरी बहस को फैलाते हुए राजनीतिक दल, चुनाव, संसद, कानून, जनप्रतिनिधि, प्रशासन, कंपनी, जांच, संहिता और अदालत सभी को समेट लिया जाए। बात हर हाल में दूर तक जानी चाहिए नहीं तो हम एक लोकपाल के खिलौने से बहका दिये जाएंगे और भ्रष्टाचारियों की चतुर जमात, नए जनपहरुओं को ‘पटाकर’ अपने काम में लग जाएगी।
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