बराक ओबामा, एंजेला मर्केल, निकोलस सरकोजी, डेविड कैमरुन, नातो कान, मनमोहन सिंह, आंद्रे पापेद्रू (ग्रीस), बेंजामिन् नेतान्याहू, रो्ड्रियो जैप्टारो (स्पे न) आदि राष्ट्राध्यक्ष सामूहिक तौर पर इस समय दुनिया को क्या दे रहे हैं ?? केवल घटता भरोसा, बढता डर और भयानक अनिश्चितता !!!! सियासत की समझदारी ने बड़े कठिन मौके पर दुनिया का साथ छोड़ दिया है। हर जगह सरकारें अपनी राजनीतिक साख खो रही हैं। राजनीतिक अस्थिरता के कारण इस सप्ताह जापान की रेटिंग घट गई। दुनिया के कई प्रमुख देश राजनीतिक संकट के भंवर में है। भारत में अन्ना की जीत सुखद है मगर एक जनांदोलन के सामने सरकार का बिखर जाना फिक्र बढ़ाता है। मंदी तकरीबन आ पहुंची है। कर्ज का कीचड़ बाजारों को डुबाये दे रहा है। इस बेहद मुश्किल भरे दौर में पूरी दुनिया के पास एक भी ऐसा नेता नहीं है जिसके सहारे उबरने की उम्मीद बांधी जा सके। राजनीतिक नेतृत्व की ऐसी अंतरराष्ट्रीय किल्लत अनदेखी है। पूरी दुनिया नेतृत्व के संकट से तप रही है।
अमेरिकी साख का डबल डिप
ओबामा प्रशासन ने स्टैंडर्ड एंड पुअर के मुखिया देवेन शर्मा की बलि ले ली। अपना घर नहीं सुधरा तो चेतावनी देने वाले को सूली पर टांग दिया। मगर अब तो फेड रिजर्व के मुखिया बर्नांकी ने भी संकट की तोहमत अमेरिकी संसद पर डाल दी है। स्टैंडर्ड एंड पुअर ने दरअसल अमेरिका की वित्तींय साख नहीं बल्कि राजनीतिक साख घटाई थी। दुनिया का ताजी तबाही अमेरिका पर भारी कर्ज से नहीं निकली, बल्कि रिपब्लिकन व डेमोक्रेट के झगड़े
ने पूरी दुनिया को वित्तीय संकट में झोंक दिया। अमेरिका पर कर्ज के आंकड़े फेड रिजर्व की तिजोरी में बंद नहीं थे। पूरी दुनिया यह सच जान रही थी और संसद से कर्ज की सीमा बढ़ना तय था लेकिन अमेरिकी राजनेता तीन माह तक लड़ते रहे, जिसके चलते दुनिया के सामने अमेरिकी सरकार और वित्तीय तंत्र में भरोसे का संकट पैदा हुआ और अमेरिका की रेटिंग घट गई। अमेरिकी राजनेता गहरे मतभेदों के बावजूद वित्तीय मामलों पर अक्सर एकजुटता दिखाते हैं। यह पहला मौका था जब वहां की राजनीति इस कदर बिखरी। इस बिखराव के कारण वित्तीय बाजार खरबों डॉलर गंवा चुके हैं और गंवा रहे हैं। मंदी दरवाजे पर खड़ी है मगर वाशिंगटन में राजनीतिक अभी भी लड़ाई जारी है। टैक्स बढ़ाने व खर्च घटाने की बहस से दुनिया का दिल बैठ रहा है। यह अमेरिकी साख का डबल डिप है। 2008 के बैंक संकट ने अमेरिका के वित्तीय नियमन की साख को कचरा कर दिया था और इस संकट के बाद अब अमेरिकी राजनीति की परिपक्वता से भरोसा उठ गया है। वित्तीय जगत में अब अमेरिका सबसे भरोसेमंद ब्रांड नहीं है और अमेरिकी नेतृत्व की समझदारी पर दुनिया को शक है।
ने पूरी दुनिया को वित्तीय संकट में झोंक दिया। अमेरिका पर कर्ज के आंकड़े फेड रिजर्व की तिजोरी में बंद नहीं थे। पूरी दुनिया यह सच जान रही थी और संसद से कर्ज की सीमा बढ़ना तय था लेकिन अमेरिकी राजनेता तीन माह तक लड़ते रहे, जिसके चलते दुनिया के सामने अमेरिकी सरकार और वित्तीय तंत्र में भरोसे का संकट पैदा हुआ और अमेरिका की रेटिंग घट गई। अमेरिकी राजनेता गहरे मतभेदों के बावजूद वित्तीय मामलों पर अक्सर एकजुटता दिखाते हैं। यह पहला मौका था जब वहां की राजनीति इस कदर बिखरी। इस बिखराव के कारण वित्तीय बाजार खरबों डॉलर गंवा चुके हैं और गंवा रहे हैं। मंदी दरवाजे पर खड़ी है मगर वाशिंगटन में राजनीतिक अभी भी लड़ाई जारी है। टैक्स बढ़ाने व खर्च घटाने की बहस से दुनिया का दिल बैठ रहा है। यह अमेरिकी साख का डबल डिप है। 2008 के बैंक संकट ने अमेरिका के वित्तीय नियमन की साख को कचरा कर दिया था और इस संकट के बाद अब अमेरिकी राजनीति की परिपक्वता से भरोसा उठ गया है। वित्तीय जगत में अब अमेरिका सबसे भरोसेमंद ब्रांड नहीं है और अमेरिकी नेतृत्व की समझदारी पर दुनिया को शक है।
सरकारों की यूरोपीय त्रासदी
पता नहीं दुनिया के निवेशकों यूरोप से और कितनी बुरी खबरें सुनने को मिलेंगी। वित्तीय संकट के कारण अलोकप्रिय हो चुके स्पेकन के सोशलिस्ट प्रधानमंत्री रोड्रिग्स जैप्टारो ने इसी महीने संसद को भंग कर दिया। यूरोप की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्योवस्था स्पे्न वित्तीय दीवालियेपन से कुछ कदम ही दूर है। इस बीच राजनीतिक संकट भी शुरु हो गया है। कर्ज संकट के चलते यूरोप सरकारों की कब्रगाह जैसा दिख रहा है। कर्ज से तबाह पुर्तगाल में इस साल मार्च में राष्ट्रपति जोस सॉकर्टीज निबट गए। जून में नई सरकार सत्ता में आई, मगर चुनाव में लोगों की भागीदारी ऐतिहासिक तौर पर कम रही। मार्च में आयरलैंड की सरकार को भी इसी संकट ने खा लिया। दीवालिया ग्रीस के प्रधानमंत्री आंदे पांपेद्रू किसी तरह बने हुए हैं मगर देश तबाह है। ब्रितानी प्रधानमंत्री डेविड कैमरुन को यह मालूम है कि वह ब्रिटेन में मंदी नहीं रोक सकते। हाल के दंगों ने उनकी छवि का कबाड़ा कर दिया है। वह यूरोप को सामूहिक नेतृत्व देने की स्थिति में नहीं है। फ्रांस की रेटिंग किसी भी वक्त घट सकती है। मई 2012 में चुनाव की तैयारी कर रहे राष्ट्रफपति निकोलस सरकोजी घाटा कम करने की कवायद में अलोकप्रिय होते जा रहे हैं। जर्मनी के राज्य चुनावों में चांसलर एंजेला मर्केल की पार्टी को झटका लगा है इसलिए अब मर्केल अब यूरोप के कर्ज संकट अपनी सियासत की रोशनी में हल कर रही हैं और आलोचनाओं में घिर रही हैं। यूरोप, इस समय एक मजबूत राजनीतिक नेतृत्व के लिए तरस रहा है, जो यूरो को डूबने से बचा सके।
विरोध का एशियाई बवंडर
अमेरिका से सशंकित और यूरोप से डरे निवेश अब एशिया पर भी दांव नहीं लगा सके। यहां भी नेतृत्व की साख ढह रही है और जगह जगह राजनीतिक संकट उग रहे हैं। मंदी, वित्तीय संकट और प्राकृतिक आपदा से घिरा जापान राजनीतिक अस्थिरता में फंस गया है। प्रधानमंत्री नातो कान ने शुक्रवार को पद छोड़ दिया और इससे दो दिन पहले मूडीज ने जापान की रेटिंग घटा दी। एशिया सरकारों के खिलाफ विरोध के बवंडरों का ताजा गढ है। ग्रोथ के सबसे नए इंजन एशिया में जनता को इतना आंदोलित कम ही देखा गया है। अरब देशों में बगावत जारी है और तेल कीमतों को लेकर खतरा बरकरार है इस बीच इजरायल की नेतानयाहू सरकार भी महंगाई को लेकर अभूतपूर्व आंदोलनों से घिर गई है। पूर्व में थाईलैंड अस्थिर है। पिछले एक साल में हिंसक राजनीति (रेड शर्ट बनाम यलो शर्ट) का गढ़ रहे, थाईलैंड में इसी माह सरकार बदली है। चीन में महंगाई के खिलाफ आंदोलन और जातीय तनाव देश के राजनीतिक नेतृत्व की यह सबसे कठिन परीक्षा ले रहा है। भारत में केंद्र की सरकार अपनी राजनीतिक साख खो रही है और नए आंदोलनों के चलते राजनीतिक अस्थिरता का खतरा है। रेटिंग एजेसियां भारत की साख का दर्जा घटाने की चेतावनी दे चुकी हैं।
यह विश्वव्यापी राजनीतिक अनिशिचतता का अनोखा दौर है। ओबामा व सरकोजी अगले एक साल तक अपने चुनाव लड़ेंगे जबयकि वेन जियाबाओ को महंगाई थाम कर देश में अशांति रोकनी है। ब्रितानी प्रधानमंत्री कैमरुन को घाटा कम करने का हर कदम अलोकप्रिय करेगा जबकि एंजेला मर्केल को अपनी सियासत भी देखनी है मनमोहन सिंह के राजनीतिक भविष्य को लेकर उठे सवालों को जड़ मिलने लगी है। यही वजह है कि इतने विकट वित्तीय संकट के बाद भी दुनिया के राजनेता कोई समेकित समाधान नहीं निकल पा रहे है। तमाम सर मारने के बाद भी वित्तीय दुनिया को विश्व में एक भी भरोसमंद राजनेता नहीं मिल रहा है इसलिए बाजार पत्ते की तरह कांप रहे हैं। यह कर्ज या वित्तीय प्रणाली का संकट नहीं दरअसल राजनीतिक नेतृत्व का भूमंडलीय संकट है। दुनिया को राजनीतिक, दृढ़ता, दूरदर्शिता और अगुआई की जब सबसे ज्यादा दरकार थी तब हमारे नेता ही चुक गए हैं।
---------
No comments:
Post a Comment