Monday, November 28, 2011

रिटेल के फूल-कांटे

ह नामुराद खुदरा कारोबार है ही ऐसा। इसका उदारीकरण हमेशा, हाथ पर फूल और कांटे एक साथ धर देता है। रिटेल का विदेशीकरण एक तरफ से ललचाता है तो दूसरी तरफ से यह जालिम कील भी चुभाता है। यानी, रहा भी न जाए और सहा भी न जाए। वैसे खुदरा कारोबार में विदेशी पूंजी निवेश की सीमा बढ़ने पर हैरत कैसी, संगठित मल्‍टी ब्रांड रिटेल भारत में दस साल पुराना हो चुका है, जिसमें आंशिक विदेशी निवेश भी हो चुका है। रिटेल में वाल मार्ट आदि की आमद (मल्‍टी ब्रांड रिटेल में 51 फीसदी विदेशी निवेश) के ताजे फैसले का असर अंदाजने के लिए हमारे पास पर्याप्‍त तथ्‍य भी हैं जो रिटेल के उदारीकरण की बहस को गाढा और रोचक बनाते हैं। इसलिए अचरज तो इस फैसले की टाइमिंग पर होना चाहिए कि विरोधों की बारिश के बीच सरकार ने रिटेल की पतंग उड़ाने का जोखिम उठाया है। भारत में संगठित रिटेल का आंकड़ाशुदा अतीत, अगर विरोध के तर्कों की धार कमजोर करता है तो रिटेल से महंगाई घटने की सरकारी सूझ को भी सवालों में घेरता है। दरअसल संगठित रिटेल के खिलाफ खौफ का कारोबार जितना आसान है, इसके फायदों का हिसाब किताब भी उतना ही सहज है...जाकी रही भावना जैसी।
रोजगार का कारोबार
भारत में संगठित खुदरा यानी ऑर्गनाइज्‍ड रिटेल के पास अब एक पूरे दशक का इतिहास है, ढेरों अध्‍ययन, सर्वेक्षण व रिपोर्टें (इक्रीयर 2008, केपीएमजी 2009, एडीबी 2010, नाबार्ड 2011 आदि) मौजूद हैं, इसलिए बहस को तर्कों के सर पैर दिये जा सकते हैं। ग्रोथ और रोजगार के मामले में भारतीय संगठित रिटेल की कहानी दमदार है। भारत का (संगठित व असंगठित) खुदरा कारोबार यकीनन बहुत बड़ा है। 2008-09 में कुल खुदरा बाजार  17,594 अरब रुपये का था जो 2004-05 के बाद से औसतन 12 फीसदी सालाना की रफतार से बढ़ रहा है, जो 2020 तक 53,517 अरब रुपये का हो जाएगा। नाबार्ड की रिपोर्ट बताती है कि संगठित रिटेल करीब 855 अरब रुपये का है जिसमें 2000 फिट के छोटे स्‍टोर ( सुभिक्षा मॉडल) से लेकर 25000 फिट तक के मल्‍टी ब्रांड हाइपरमार्केट (बिग बाजार, स्‍पेंसर, इजी डे) आदि आते हैं। खुदरा कारोबार में तेज ग्रोथ के बावजूद संगठित रिटेल इस अरबों के बाजार के पिछले एक दशक में केवल पांच
फीसदी हिस्‍सा ले पाया है। मगर इस पांच फीसदी हिस्‍से ने करीब एक करोड़ रोजगार पैदा किये हैं जो 2020 तक 1.84 करोड़ हो जाएंगे। सप्‍लाई चेन और परोक्ष गतिविधियों में रोजगार इसके अलावा हैं। दरअसल प्रति 206 वर्ग फिट पर एक कर्मचारी के औसत वाला यह उद्योग सीमित दक्षता वाले कर्मचारियों से लेकर उच्‍च प्रशिक्षित कर्मियों तक सबको एक साथ खपाता है।  रोजगार के पैमाने पर इस उद्योग को खारिज करना मुश्किल है।
खौफ का बाजार
खुदरा कारोबार में विदेशी कंपनियों का खौफ पुराना है।  भीमकाय वालमार्ट, चतुर ट्रेस्‍को और आक्रामक कार्फू जैसे रिटेल दिग्‍गजों के छोटे देशों में असर की कहानियों से यह डर और बडा हो जाता है। कहते हैं कि संगठित रिटेल अगर उपभोक्‍ताओं को सुविधा और बेकारों के रोजगार के फूल देता है तो बदले में असंगठित व छोटे व्‍यापारियों के कारोबार को कांटों में घेर देता हैं। भारत के मामले में इस खतरे को कुछ तथ्‍यों के तहत परखने की जरुरत है। भारत में कुल रिटेल का करीब 61 फीसदी हिस्‍सा खाद्य उत्‍पादों (अनाज, दाल, फल सब्‍जी दूध, चाय कॉफी, अंडा चिकन, मसाले) के खुदरा कारोबार का है। जो करीब 11000 अरब रुपये बैठता है। इस कारोबार पर असंगठित क्षेत्र का राज है। रिटेल को लेकर उपभोक्‍ताओं के व्‍यवहार को नाबार्ड के एक ताजे सर्वेक्षण में करीब से पकड़ा गया है। देश के 23 शहरों में विभिनन आयु व आय वर्ग के उपभोक्‍ताओं के बीच हुआ यह सर्वेक्षण  बताता है कि महानगरों में करीब 68 फीसदी अनाज दाल मसाले (ग्रॉसरी) और 80 से 90 फीसदी फल सब्जियां, दूध, मीट, अंडे आदि छोटी दुकानों से खरीदे जाते हैं। दूसरे दर्जे के शहरों यह प्रतिशत 79 (ग्रॉसरी) और 92 से 98 (फल, सब्‍जी दूध आदि) के बीच है। अर्थात रिलायंस, स्‍पेंसर, बिग बाजार, इजी डे जैसे बड़े विक्रेता खाद्य उत्‍पादों के मामले उपभोक्‍ताओं का दिल नहीं जीत पाए हैं। खाद्य उत्‍पादों के कुल खुदरा कारोबार में संगठित रिटेल का हिस्‍सा दो फीसदी से भी कम है। यही नहीं उपभोक्‍ताओं तक पहुंच के मामले में भी रिटेल दिग्‍गजों को लंबा सफर तय करना है। नाबार्ड के सर्वे के मुताबिक असंगठित क्षेत्र की दुकाने उपभोक्‍ताओं के घर से औसतन 280 मीटर की दूरी पर स्थि‍त हैं जबकि संगठित क्षेत्र की दुकानों की दूरी औसतन डेढ़ किमी. है। यानी कि असंगठित कारोबारियों के संदर्भ में रिटेल की भारतीय कहानी बहुत डरावनी नहीं है।
महंगाई का सुधार
संगठित रिटेल से महंगाई घटने का तर्क अभी जड़ नही पकड पाया है। भारत में संगठित रिटेल के विस्‍तार के पिछले कुछ साल महंगाई बढ़ने के वर्ष भी रहे हैं। ज्‍यादातर रिटेलरों की खरीद स्‍थानीय मंडियों, थोक व्‍यापारियों, एजेंटों के जरिये होती है, जहां कीमतें कम करने की गुंजायश नहीं होती। इसलिए खाद्य उत्‍पादों के मामले में संगठित व असंगठित क्षेत्र की कीमतों में कोई फर्क नहीं होता। यही वजह है कि भारतीय उपभोक्‍ताओं का 60 फीसदी उपभोग खर्च और इस खर्च पर हावी महंगाई को रिटेल की क्रांति से कोई मदद नहीं मिली। किसानों को भी इसका कोई बड़ा फायदा नहीं हुआ क्‍यों कि भंडारण व आपूर्ति का ढांचा गैर हाजिर था। हकीकत यह है कि विदेशी दिग्‍गजों को अब भारतीय बाजार पर बड़ा दांव लगाना होगा नहीं तो असंगठित बाजार की प्रतिस्‍पर्धा उन्‍हें कमाने खाने नहीं देगी। बड़े दांव का मतलब है सप्‍लाई चेन प्रबंधन, भंडारण आदि में भारी पूंजी निवेश और किसानों से सीधे खरीद। यदि संगठित रिटेलर ऐसा कर सके तो फिर किसी उमा भारती को रिटेल स्‍टोर को जलाने की जरुरत नहीं पड़ेगी क्‍यों कि तब संगठित रिटेल से किसान और उपभोक्‍ता दोनों को फूल ही नहीं फल भी मिलेंगे।
  भारत खुदरा कारोबार का महासागर है। अगले दस साल में 700 लाख वर्ग फिट की जगह का जुगाड़ ही  रिटेल दिग्‍गजों की जेबें हल्‍की कर देगा, बाकी निवेश तो अलग से है। 125 करोड़ लोगों के खुदरा बाजार में एक कायदे का हिस्‍सा लेने में विदेशी कंपनियों का तेल निकल जाएगा। यदि भारी निवेश हुआ तभी रिटेल के फूल कांटों पर भारी पड़ेंगे और नहीं तो विदेशी कंपनियां भारतीय बाजार में सिर्फ हाजिरी ही लगा पायेंगी। वैसे विदेशी रिटेल कंपनियों की दुकाने जमने और उपभोक्‍ताओं, किसानों व छोटे व्‍यापारियों पर इस का प्रभाव दर्ज होने में वक्‍त लगेगा। फिलहाल हमें सरकार की राजनीतिक दुकान की तरफ देखना चाहिए जहां गुस्‍साये ग्राहकों की भीड़ जुटी है, जो इस फैसले पर पता नहीं क्‍या फैसला सुनायेगी।
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