Monday, January 2, 2012

मध्‍यवर्ग की माया

Welcome 2012
त्‍तर प्रदेश की मुख्‍यमंत्री मायावती की सबसे बड़ी उलझन क्‍या होने वाली है, वही जो मनमोहन, सोनिया व राहुल की है। अरे वही जो होस्‍नी मुबारक वगैरह को ले डूबी और  ओबामा, पुतिन, कैमरुन, वेन जियाबाओ को सता रही है। उभरता ग्‍लोबल मध्‍यवर्ग दुनिया भर की सियासत की साझी मुसीबत है। यह मझले अमेरिका में वाल स्‍ट्रीट को आकुपायी करने के लिए चढ़ दौड़े है तो रुस व चीन में क्रांति की जबान बोल रहे हैं। अरब में विरोध का बसंत और यूरोप की अशांति (लंदन में हिंसा) भी इनके कंधे पर सवार थी। इसी मध्‍य वर्ग ने भ्रष्‍टाचार के खिलाफ मुहिम से भारतीय सियासत को पानी मंगवा दिया। मध्‍य वर्ग का यह तेवर अनदेखा है। संचार तकनीक से खेलते इन मझलों की मुखरता बेजोड़ है। इनकी अपेक्षायें सियासत की चतुरता का इम्‍तहान ले रही है। 2012 चुनावों के ग्‍लोबल उत्‍सव (अमेरिका, फ्रांस, रुस सहित 75 देशों में चुनाव) का वर्ष है। यानी कि एक तरफ बेचैन मध्‍य वर्ग और दूसरी तरफ सियासत की परीक्षा। नए साल की बिसात बड़ी सनसनीखेज है।
भौंचक सियासत 
बेताब मध्‍य वर्ग और उस में भी ज्‍यादातर युवा! यह जोड़ी खतरनाक है। भारत में 40 फीसदी वोटर युवा हैं। कोई नहीं जानता कि बाबरी ध्‍वंस के बाद जन्‍मे मध्‍यवर्गीय युवा उत्‍तर प्रदेश (53 लाख नए युवा वोटर) के चुनाव में क्‍या फैसला देंगे। भारत का मौन, मजबूर व परम संतोषी को मध्‍य वर्ग लोकपाल के लिए ऐसे सड़क पर आएगा, यह किसने सोचा था। रुस के राष्‍ट्रपति ब्‍लादीमिर पुतिन भी हैरान हैं कि  देश में आर्थिक प्रगति के बावजूद मध्‍य वर्ग और युवा आंदोलित क्‍यों हैं। दो सबसे बड़े दुश्‍मनों (सद्दाम और ओसामा) की मौत से अमेरिकी मध्‍यवर्ग को राष्‍ट्रपति बराक ओबामा पर रश्‍क नहीं हुआ। वह तो यही जाते हैं एक फीसदी अमेरिकियों के पास बहुत कुछ है और 99 फीसदी बस ऐ वेईं हैं। पूंजीवादी अमेरिका का मझला तबका वाल स्‍ट्रीट को निशाना बनाकर एक नया साम्‍यवाद गढ़ रहा है। चीन के कम्‍युनिस्‍ट शासन की सख्‍ती तोड़कर लोगों ने एक गांव (वुकान) को कबजा लिया और वह भी सबसे धनी गुएनडांग प्रांत में। तियेन आनमन और जास्मिन क्रांति अतीत वाले इस देश में मध्‍य वर्ग का मिजाज
सियासत को डरा रहा है। अमीर और रुढि़वादी अरब में मध्‍य वर्ग की बगावत तो अनोखी है। मुबारक जब तक समझ पाते तब इजिप्‍ट से बाहर हो गए।  ट्यूनीशिया, अल्‍जीरिया का भी यही हाल है। लंदन की सड़कों पर जब दंगाई दौडे तो कैमरुन को अहसास हुआ कि सियासत ने हकीकत समझने में भूल की है। राजनीति व मध्‍य वर्ग के बीच एक ग्‍लोबल खाई साफ दिखने लगी है। या तो जनता की नब्‍ज से नेताओं की तजुर्बेकार उंगलिया फिसल रही हैं या फिर मध्‍य वर्ग ही रहस्‍यमय हो चला है।
नए समीकरण  
मध्‍य वर्ग का सामाजिक वर्गीकरण और राजनीतिक पहचान हमेशा से धुंधली है। सियासत जातीय, क्षेत्रीय, नस्‍ली व धार्मिक या अमीर और गरीब की गणित लगाती है। इसलए मझलों को आर्थिक पैमानों पर (बाजार, खपत और मांग) पर ही पहचाना जाता है। समाजवादी अर्थ्‍व्‍यव्‍स्‍थाओं में नौकरीपेशा इसके नुमाइंदे हैं तो पूंजीवादी तंत्र में यह उपभोक्‍ता और अर्थव्‍यवस्‍था का इंजन है। मध्‍य वर्ग की राजनीतिक सक्रियता और इसकी दुनियावी तादाद में बढ़ोत्‍तरी सबसे नया समीकरण है। पिछले एक दशक की ग्‍लोबल ग्रोथ ने बड़ी आबादी को ठीक ठाक जिंदगी दी है जो मध्‍यवर्गीय होने का  बुनियादी पैमाना है। ब्रुकिंग्‍स इंस्‍टीट्यूशंस के होमी खरास का शोध (2010) कहता है कि पिछले डेढ़ दशक में पूरी दुनिया में यह वर्ग सबसे तेजी से बढ़ा है। मगर एशिया सबसे आगे है। जहां 2015 में मध्‍यवर्ग का आकार यूरोप व अमेरिका के मध्‍य वर्ग के बराबर(300 साल मे पहली बार) हो जाएगा। पिछले एक साल में उभरते बाजारों में करीब 7 करोड़ लोग मध्‍य की श्रेणी में आए हैं। लैटिन अमेरिका के मैक्सिको, उरुग्‍वे, अर्जेंटीना आदि में मध्‍य वर्ग अब आबादी का 50 से 60 फीसदी है। चीन व भारत में 2020 तक आधी आबादी सिर्फ मध्‍य वर्ग की होगी। यही बढता मध्‍य वर्ग अलग-अलग कारणों से अब सड़क पर है। सियासत इसलिए हैरान है क्‍येां कि उसके पास इन मझलों की राजनीतिक प्रवृत्ति का कोई पुराना डाटा नहीं है।
बदले मुहावरे  
काइरो, मास्‍को, नयूयार्क, दिल्‍ली, लंदन की सड़कों उतरे लोगों की सियासत के आयाम नए और तरीके बड़े गैर पारं‍परिक थे। किसने सोचा था कि दोस्‍तों के बीच गपशप के लिए बना सोशल नेटवर्क या संदेश भेजने की तकनीकें क्रांति करा देंगी। यह वर्ग पत्‍थर नहीं बल्कि मैसेज फेंकता है और दीवारों पर नारे नहीं बल्कि ब्‍लॉग लिखता है। जबकि संवाद व संचार की इन नई विधाओं में बेचारी पुरानी सियासत का दखल ही कम है। ताजे आंदोलनों ने अपने टटके, बेलौस और दो टूक नारों से राजनीति की बोरिंग और अर्थभ्रष्‍ट भाषा (बकौल जॉर्ज ऑरवेल और वाक्‍लाव हावेल) को भी बदला है। ग्‍लोबल राजनीति की चुनौती यह है कि इन आंदोलनों में पढ़े लिखे, अच्‍छी जिंदगी जीत लोग हैं जिन्‍हें सोचना व संवाद करना आता है। प्‍यू जैसी शोध एजेंसियां बताती हैं कि मध्‍य वर्ग भूख के बजाय बोलने की आजादी, असमानता के बजाय पारदर्शिता, सत्‍ता में भागीदारी के बजाय साफ सुथरे लोकतंत्र की बात करता है। इसके आग्रह पर्यावरण और मानव अधिकारों से जुड़ते हैं जो सियासत के पारंपरिक मुद्दे हैं ही नहीं। यह मध्‍य वर्ग एक तरफ गर्व, तो दूसरी तरफ असुरक्षा से भरा है। इसके राजनीतिक आग्रह तेजी से बदलते हैं और प्रतिक्रियायें अस्थिर हैं। इसलिए एक दो मुद्दों को वर्षों तक सिंझाकर समर्थन जुटाने वाली पारंपरिक सियासत का इस मध्‍य वर्ग से कोई कनेक्‍ट नहीं बनता। अचरज नहीं कि ताजे मध्‍यवर्गीय आंदोलन ज्‍यादातर देशों में वहां राजनीतिक मुख्‍यधारा से बाहर हैं।
  पारंपरिक सियासत या तो अभाव दूर होने की उम्‍मीद पर चलती है या फिर पहचान के आग्रहों का इस्‍तेमाल करती है। तभी तो दुनिया के सबसे बुरे नेता भी समर्थन व सफलता हासिल कर लेते हैं। मगर मध्‍य वर्ग का ताजा मोहभंग अभाव या पहचान के आग्रहों से अलग है। ताजे आंदोलन तो राजनीति का बुनियादी चरित्र (अपारदर्शिता, झूठे लोकतंत्र, मनमाने कानून, राजनीतिक भ्रष्‍टाचार) बदलने की बात करते हैं। विरोध की इस बयान के बीच मंदी जब इस मध्‍य वर्ग की नौकरियों व कमाई पर दांत गड़ायेगी तो प्रतिक्रिया और मुखर हो सकती है। न जाने, अरस्‍तू ऐसा क्‍यों लिखा था कि दुनिया का सबसे अच्‍छा राजनीतिक समुदाय वही है जहां मध्‍य वर्ग अन्‍य दोनों वर्गों (निर्धन और धनी) से बड़ा होता है और सत्‍ता का नियंत्रण मध्‍य वर्ग के हाथ होता है।.. मध्‍य वर्ग की बढ़ती आबादी से अरस्‍तू की पहली शर्त तो पूरी हो रही है। दूसरी का पता दूसरी का पता इस साल के ग्‍लोबल चुनावों के बाद चलेगा। 2012 का बरस मध्‍यवर्ग की माया का वर्ष हो सकता है।
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