ग्रोथ भी गई और वोट भी गया! क्या खूब भूमिका बनी है बारह के बजट की। आर्थिक नसीहतें तो मौजूद थीं ही अब राजनीतिक सबक का ताजा पर्चा भी वित्त मंत्री की मेज पर पहुंच गया है। पांच राज्यों के महाप्रतापी वोटरों ने पारदर्शिता और भ्रष्टाचार से लेकर ग्रोथ तक और स्थिरता से लेकर बदलाव तक हर उस पहलू पर ऐसा बेजोड़ फैसला दिया है जो किसी भी समझदार बजट का कच्चा माल बन सकते हैं। भ्रष्टाचार पर उत्तर प्रदेश का वोटर सत्ता विरोधी हो गया हैं तो ग्रोथ के सबूतों के साथ पंजाब के वोटर बादल को दोबारा आजमाने जा रहे हैं। वित्त मंत्री यदि बजट को इन चुनाव नतीजों को रोशनी में लिखेंगे तो उन्हें तो उन्हें केवल आज की नहीं बलिक बीते और आने वाले कल की मुसीबतों के समाधान भी देने होंगे। क्यों कि सरकार असफलताओं के सियासी तकाजे शुरु हो गए हैं। कांग्रेस के प्रति वोटरों का यह समग्र इंकार यूपीए सरकार के खाते में जाता है। चुनावी इम्तहानो का पूरा कैलेंडर (दो वर्षो में कई राज्यों के चुनाव) सामने है इसलिए एक खैराती नहीं बल्कि खरा बजट देश की जरुरत और कांग्रेस की राजनीतिक मजबूरी बन गया है।
बीते कल का घाटा
अगर वित्त मंत्री उत्तर प्रदेश के नतीजों को पढ़कर बजट बनायेंगे तो उनका बजट बहुत दम खम के साथ उस घाटे को खत्म करने की बात करेगा जिसने उत्तर प्रदेश में राहुल गांधी की मेहनत पानी फेर दिया। अगली चुनावी फजीहत से बचने के लिए एक पारदर्शी सरकार का कौल इस बजट की बुनियाद होना चाहिए कयों कि केंद्र सरकार के भ्रष्टाचार ने कांग्रेस की राजनीतिक उममीदों का वध कर दिया है। माया राज मे यूपी की ग्रोथ इतनी बुरी नहीं थी। कानून व्यवस्था भी कमोबेश ठीक ही थी। जातीय गणित भी मजबूत थी लेकिन बहन जी का सर्वजन दरअसल विकट भ्रष्टाचार के कारण उखड़ गया। कांग्रेस अपने दंभ में यह भूल
गई कि वोटर को कालिख की दोनो (कांगेस व बसपा) फैक्टि्यां दिख रही थीं। इसलिए उत्तर प्रदेश मे ंअभूतपूर्व दोहरा इंकार आया और बसपा व कांग्रेस दोनों खेत रही। उत्तराखंड के वोटर भाजपा के प्रायश्चित (मुख्यमंत्री बदलने) से कुछ सतुष्ट हुए और उन्होंने अपने सबक का तीखापन घटा दिया। लेकिन उत्तर प्रदेश भ्रष्टो में सियासी फायदा देखने पर वोटरों ने भाजपा को भी किनारे टिका दिया। पारदर्शिता की नामौजूदगी एक आर्थिक संकट है, जो निवेशकों की लागत बढ़ाता है और व्यवस्था की साख चौपट करता है। देश की सियासत अब शिक्षित, संचार से तंत्र से लैस और मध्यवर्गीय जनता से मुखातिब है इसलिए पारदर्शिता वोट के सवालों में बदल रही है। यह बजट अगर काले धन, कर पारदिर्शता और आर्थिक अपराधों का लेकर मौन रहा तो मान लीजिये कि कांग्रेस आत्मघाती जिद की चपेट में है।
गई कि वोटर को कालिख की दोनो (कांगेस व बसपा) फैक्टि्यां दिख रही थीं। इसलिए उत्तर प्रदेश मे ंअभूतपूर्व दोहरा इंकार आया और बसपा व कांग्रेस दोनों खेत रही। उत्तराखंड के वोटर भाजपा के प्रायश्चित (मुख्यमंत्री बदलने) से कुछ सतुष्ट हुए और उन्होंने अपने सबक का तीखापन घटा दिया। लेकिन उत्तर प्रदेश भ्रष्टो में सियासी फायदा देखने पर वोटरों ने भाजपा को भी किनारे टिका दिया। पारदर्शिता की नामौजूदगी एक आर्थिक संकट है, जो निवेशकों की लागत बढ़ाता है और व्यवस्था की साख चौपट करता है। देश की सियासत अब शिक्षित, संचार से तंत्र से लैस और मध्यवर्गीय जनता से मुखातिब है इसलिए पारदर्शिता वोट के सवालों में बदल रही है। यह बजट अगर काले धन, कर पारदिर्शता और आर्थिक अपराधों का लेकर मौन रहा तो मान लीजिये कि कांग्रेस आत्मघाती जिद की चपेट में है।
आज की ग्रोथ
वित्त मंत्री अगर पंजाब के नतीजे देखकर बजट का मजमून लिखेंगे तो उन्हें भारत में सकारात्मक जनादेश के ताजे इतिहास से बहुत मदद मिलेगी। जनता की नब्ज समझने वाली, मौके पर चेत जाने वाली, ग्रोथ पर दांव लगाने वाली और पारदर्शी होने की कोशिश करने वाली दंभ रहित सरकारों को वोटर दोबारा मौका देने में संकोच नहीं करते। हर पांच साल में सरकारें फेंट देने वाला पंजाब अब बिहार, गुजरात, छत्तीसगढ और मध्य प्रदेश जैसे कुछ उन राज्यों में शामिल हो गया है जहां वोटरों ने सत्ता विरोधी सोच को सर के बल खड़ा दिया है। बादल सरकार में ऐसे कौन से सुर्खाब के पर लगे थे कि वोटर फिर रीझ गए? दरअसल नेता वक्त पर नसीहत लें तो वोटर पिघल जाते हैं। पंजाब में प्रकाश सिंह बादल ने मूड भांप कर, परिवार से ही सही मगर , सत्ता का चेहरा बदलने के लिए बेटे को आगे किया। सुखबीर ने पंजाब की खजाना लुटाऊ सियासत की जगह विकास के एजेंडे पर बात शुरु की और खुशकिस्मती से बड़ा राजनीतिक भ्रष्टाचार नहीं उभरा। हालांकि खानदानी सियासत के गढ़ पंजाब में राजनीति की सभी बुराईयां मौजूद हैं मगर पंजाब में बुनियादी विकास ने कई छोटी बुराइयों, राजनीतिक अंतरविरोध को ढक लिया। केद्र में अपनी लगातार दूसरी पारी वाली यूपीए सरकार के वित्त मंत्री से बेहतर और कौन यह समझ सकता है कि ग्रोथ और बुनियादी विकास वोटरों का सत्ता विरोधी स्वभाव बदलने की कुव्वत रखते हैं। इसके बाद भी बजट अगर ठोस व संतुलित ग्रोथ को पोसने की कोशिश नहीं करा तो समझिये कि कांग्रेस ने कोई सियासी नसीहत नहीं ली है।
कल की उम्मीद
यदि भविष्य की सियासत के लिए बजट में कुछ आवंटन करना हो तो वित्त मंत्री को शहरों को साधना चाहिए। शहर ग्रोथ का इंजन हैं, मध्य वर्ग का गढ हैं, उम्मीदो की मंजिल हैं और आने वाले वक्त की सियासत तय करने वाले हैं। देश में शहरो और शहरी कस्बों की तादाद पिछले एक दशक में 50 फीसदी बढ गई है। अगर टाउन एरिया, नगर निगमों और नगर परिषदो को जो़ड़ा जाए तो यह आंकड़ा काफी बडा हो जाता है। ताजी जनगणना रिपोर्ट के मुताबिक देश की करीब 32 फीसदी आबादी शहरी है लेकिन अर्ध शहरी इलाकों और शहरों में अपना अधिकांश दिन बिताने वाले ग्रामीणों को जोड़ लिया जाए शहर संस्कृति को अपनाने वाली की आबादी का हिससा करीब 55 फीसदी हो जाता है। शहर एक नया राजनीतिक समीकरण बनाने है, जहां जातीय, लोकलुभावन और वोटरों को बुड़बक मानने वाली सियासत नहीं चलती। शहरो का शिक्षित मध्य वर्ग नेताओं का भाग्य विधाता बन रहा है जो अब वोट देने के लिए भी आगे आने लगा है। भविष्य की ग्रोथ और सियासत देानो की ही उम्मीदें शहरों पर टिकी हैं। बजट अगर शहरों को हल्के में लेता है तो कांग्रेस के लिये सियासत का अगला दांव उलटा पड़ सकता है।
भारत की राजनीति अभी भी पुराना माल बेच रही है यही वजह है कि ताजा चुनावों में देश के राष्ट्रीय दल ( कांग्रेस भाजपा) , क्षेत्रीय दलें के मुकाबले, ज्यादा दकियानूसी (आरक्षण, जाति, धर्म के मुद्दे) दिखे हैं। तेज ग्रोथ के पिछले डेढ़ दशक में जनादेशों का मिजाज बदला है। वोटरों ने जितनी सरकारों को बेदखल किया है, उससे कहीं ज्यादा सरकारों को दोबारा सत्ता भी दी है। भारत का वोटर अब रफ्ता रफ्ता सियासत नहीं बल्कि सरकार चुने की कला सीख रहा है। करिश्माई सियासत ढल रही है और स्पष्ट स्वीकार व दो टूक इंकार नए वोटरों का स्वभाव बन रहे हैं। इसलिए यह बजट चूका तो न केवल ग्रोथ बिखर जाएगी बलिक कांग्रेस की सियासत भी बहुत कुछ गंवायेगी। मौका कहें या मजबूरी मगर वित्त मंत्री के लिए यह कुछ कर दिखाने का वकत है। करो या मरो टाइप के बजट ऐसे ही मौके पर बनते हैं।
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