क्या हम हिंदुस्तानी अपनी आर्थिक मुश्किलों में जरा भी मॉडर्न नहीं हुए? यूरोप को देखो क्या हाई प्रोफाइल, फ्रेश मुसीबतों से दो चार है और हम बाबा के जमाने की समस्याओं पर मगज खर्च कर रहे हैं। यह फब्ती अर्थशास्त्र के एक मनचले छात्र की थी। वह भारत में घाटे, सब्सिडी जैसी पुरानी चर्चाओं से ऊब कर क्रेडिट डिफॉल्ट स्वैप (कर्ज में चूकने का बीमा), हेयरकट (आंशिक कर्ज माफी) जैसी जटिल नई यूरोपीय उलझनों पर फिदा हुआ जा रहा था।.. गुरु जी ने टोका! ऐसा नहीं कहते बेटा! हमने भी बहुत तरक्की की है। पहले कभी सुना था कि भारत के बैंकों के पास पैसे की इतनी कमी पड़ जाएगी कि उनका काम बीमा और म्युचुअल फंड कंपनियों से कर्ज लेकर चलेगा ? अथवा आधुनिक वित्तीय कंपनियां ही लोगों को सोने जैसे दकियानूसी निवेश का दीवाना बनाने लगेंगी जिससे पूरा वित्तीय नेटवर्क को खतरे में फंस जाएगा। रिजर्व बैंक की ताजी फाइनेंशियल स्टेबिलिटी रिपोर्ट सबूत है कि भारत का वित्तीय तंत्र अब नए किस्म के जोखिमों में तैर रहा है। यह दरारें ऊपर से नहीं दिखतीं, मगर भीतर से बड़ी गहरी हैं।
बैंकों पर कर्ज
भारत के बैंक कभी वित्तीय बाजार को अपनी उंगली पर नचाते थे मगर आज यह रोजमर्रा की पूंजी के लिए बीमा व म्युचुअल फंड कंपनियों से कर्ज के मोहताज हैं। यह एक नए तरह की (लिक्विडिटी डेफशिट) समस्या है और एक ऐसा खतरा है जिसके असर सोचकर रिजर्व बैंक भी दुबला हुआ जा रहा है। बैंकों के इस नए सिनेमा की पटकथा जमाकर्ताओं ने लिखी है, जो जमा पर घटती ब्याज दर के कारण बैंकों में पैसा रखने में बहुत इच्छुक नहीं दिखते। भारत का बैंकिंग उद्योग जमाकर्ताओं के भरोसे की कथा सुनाते थकते नहीं था लेकिन 2011-12 में बैकों की जमा वृद्धि दर दस साल के सबसे निचले
स्तर (17.7 से 13.7 फीसद) पर आ गई। जमाकर्ताओं के इस बदले व्यवहार से भारतीय बैंकिंग में जोखिम के पैमाने ही बदल गए हैं। बैंक ने अब अपनी दैनिक पूंजी जरुरतों के लिए मार्च 2012 के दौरान पूरे वित्तीय तंत्र से जो उधार लिया उसमें बीमा कंपनियों का हिस्सा 27 फीसदी और म्युचुअल फंड का 37 फीसद है। इनमें भी म्युचुअल फंड से लिए गए उधार छोटी अवधि के हैं यानी अचानक पैसा निकलने से बैंक लड़खड़ा सकते हैं। भारत का वित्तीय तंत्र (बैंक, बीमा, म्युचुअल फंड, शेयर बाजार) आपस में गहराई जुड़ (कनेक्टेटड) चुका है। वैसे यह यह एक अच्छा बदलाव है लेकिन जब बैंकों में रोजमर्रा की पूंजी कमी हो तब कनेक्टेड होना जोखिम भरा हो जाता है। रिजर्व बैंक की फाइनेंशियल स्टेबिलिटी रिपोर्ट मान रही है कि भारत में सबसे ज्यादा कनेक्टेड बैंक किसी मुश्किल में फंसते हैं तो पूरा तंत्र लड़खड़ा जाएगा और अगर बैकों को कर्ज देने वाले बीमा व म्युचुअल फंड कंपनियां टूटीं तो तो भी पूरे तंत्र में दरारें दौड़ जाएंगी।
स्तर (17.7 से 13.7 फीसद) पर आ गई। जमाकर्ताओं के इस बदले व्यवहार से भारतीय बैंकिंग में जोखिम के पैमाने ही बदल गए हैं। बैंक ने अब अपनी दैनिक पूंजी जरुरतों के लिए मार्च 2012 के दौरान पूरे वित्तीय तंत्र से जो उधार लिया उसमें बीमा कंपनियों का हिस्सा 27 फीसदी और म्युचुअल फंड का 37 फीसद है। इनमें भी म्युचुअल फंड से लिए गए उधार छोटी अवधि के हैं यानी अचानक पैसा निकलने से बैंक लड़खड़ा सकते हैं। भारत का वित्तीय तंत्र (बैंक, बीमा, म्युचुअल फंड, शेयर बाजार) आपस में गहराई जुड़ (कनेक्टेटड) चुका है। वैसे यह यह एक अच्छा बदलाव है लेकिन जब बैंकों में रोजमर्रा की पूंजी कमी हो तब कनेक्टेड होना जोखिम भरा हो जाता है। रिजर्व बैंक की फाइनेंशियल स्टेबिलिटी रिपोर्ट मान रही है कि भारत में सबसे ज्यादा कनेक्टेड बैंक किसी मुश्किल में फंसते हैं तो पूरा तंत्र लड़खड़ा जाएगा और अगर बैकों को कर्ज देने वाले बीमा व म्युचुअल फंड कंपनियां टूटीं तो तो भी पूरे तंत्र में दरारें दौड़ जाएंगी।
सोने की जंजीर
आम लोगों में सोने की लालच हो तो चलता है मगर जब बैंक और वित्तीय कंपनियां सोने के पीछे दौड़ें तो डर लगता है। सोना एक दकियानूसी निवेश है लेकिन सोने की दीवानगी भारत के आधुनिक वित्तीय तंत्र का नया जोखिम है। सोना दो तरफ से मार रहा है। पिछले एक साल में भारत में सोने का आयात खासी तेजी से बढ़ा है। यह आयात बैंकों के जरिये हुआ है। दूसरी तरफ वित्तीय कंपनियों ने सोने के बदले कर्ज की स्कीमों से अपनी सेहत बिगाड़ ली है। चौंकना लाजिमी है कि भारत में कुल सोना आयात में 23 फीसद तो सिर्फ निवेश के लिए (बकौल वलर्ड गोल्ड काउंसिल) आता है। जबकि शेष सोना जो जेवरात बनने में इस्तेमाल होता है उनकी खरीद निवेश के मकसद से होती है। पिछले एक साल में सोना भारत का तीसरा (पेट्रो उत्पाद और कोयले) सबसे बड़ा आयात रहा है। बीते बारह महीनों के दौरान भारत ने 45 अरब रुपये के सोने का आयात किया और देश के कुल आयात में इसका हिस्सा 10 फीसद पर पहुंच गया। बैंक और सरकारी व्यापार कंपनियों (एमएमटीसी व एसटीसी) इसकी पीली धातु की प्रमुख आयातक हैं। आधुनिक वित्तीय तंत्र में सोने की दीवानगी चरम परम है। भारत में जितना सोना आयात हो रहा है उसमें बैंकों के सिक्का (सोने की गिन्नी) आयात का हिससा, पिछले दो साल में एक फीसद से बढ़कर चार फीसद पर पहुंच गया है। बैंक खुद सोना मंगा रहे हैं और इसमें निवेश को बढ़ावा दे रहे हैं। वित्तीय कंपनियों ने कुछ अलग ढंग से सोने में अपनी गर्दन फंसायी है। सोने के बदले कर्ज देने वाली कंपनिया बैंकिंग प्रणाली की सबसे जोखिम भरी कड़ी हैं। गोल्ड लोन देने वाली दो कंपनियों के कारोबार में बढ़ोत्तरी दांतो तले उंगली दबाने पर मजबूर करती है। 2009 से मार्च 2012 के बीच इनकी संपत्तियों का आकार 55 अरब रुपये से 445 अरब रुपये हो गया। गोल्ड लोन कंपनियां बैंकों से नकद लेकर सोने के बदले उसे आम लोगों को देती हैं। रिजर्व बैंक की फाइनेंशियल स्टेबिलिटी रिपोर्ट बताती है कि गोल्ड लोन कंपनियों के बैंक कर्ज एक साल में 200 फीसद बढे हैं। यदि इन कंपनियों के कामकाज में कोई समस्या आती है या सोने की कीमत में तेज उतार चढ़ाव होता है तो सोने का खेल गोल्ड कंपनियों को ही नहीं कई बैंकों को भी ले डूबेगा।
भारत के वित्तीय तंत्र में बला की रफ्तार से जटिलता बढ़ रही है। बैंकों व वित्तीय संस्थाओं की गुनी बुंथी और फलती फूलती की दुनिया में नए जोखिमों का सूचकांक बहुत ऊंचा है। एक के ढहते ही सबके ढहने के खतरे (कंटेजिअन) बढ़ रहे हैं, कामकाज करने के तरीकों की वजह से जोखिम (सिस्टमिक रिस्क) तैयार हो रहे हैं और दबाब के नए बिल्कुल नए बिंदु उभरे हैं। यह सब स्वाभाविक है क्यों कि वित्तीय ढांचा आधुनिक हो रहा है। मगर भारत की चुनौती दोहरी है। वजह यह कि सरकार का भारी कर्ज, बैंकों के फंसे हुए ऋण, जोखिम से बचाने वाली बैंक पूंजी की कमी जैसी पुरानी मुसीबतें अभी भी कायम हैं। भारत को दरअसल पुरानी उलझनों को खत्म करते हुए चुनौतियों की पीढ़ी के लिए तैयार होना चाहिए था। लेकिन पिछले एक दशक के दौरान सरकारों को सब्सिडी लुटाने और कर्ज माफ करने फुर्सत ही नहीं मिली। वक्त अपनी रफ्तार से बदला इसलिए पूरा वित्तीय तंत्र अब पुरानी व नई मुश्किलों का खतरनाक तिलिस्म बन गया है। जिसमें कदम कदम पर दरारें हैं और भांति भांति के जोखिम निकल रहे हैं।
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