प्राकृतिक संसाधनों की खुली बंदरबांट, कुछ भी करने को तैयार निजी क्षेत्र और एक एक कंपनी टर्नओवर के बराबर संपत्ति वाले राजनेता !!!! यह सब देखकर अगर आर्थिक उदारीकरण को बिसूरने का मन करता है तो आप गलत नहीं है। गुलाम अतीत, राजनीति से बोझिल व्यवस्था, लचर कानून, जरुरी सुविधाओं की कमी और जबर्दस्त अवसरों वाले समाज में उदारीकरण शायद ऐसी ही आफत लाता है। प्राकृतिक संसाधन किसी भी देश की तरक्की की बुनियाद होते हैं लेकिन संसाधनों को संभालने वाले कानून अगर बोदे हों और निगहबान भ्रष्ट, तो खुला बाजार दरअसल खुली लूट बन जाता है। संवैधानिक संस्थाओं का शुक्रगुजार होना चाहिए वह हमें हमारे आर्थिक खुलेपन का बदसूरत चेहरा दिखा रही हैं। सीएजी की रिपोर्टें भारत के उदारीकरण की दो टूक समीक्षा हैं।
अराजक राज
खदान, खनिज, जमीन, स्पेक्ट्रम जैसे प्राकृतिक संसाधन आर्थिक विकास की बुनियादी जरुरत हैं। श्रम और पूंजी देश से बाहर से लाए सकते है मगर प्राकृतिक संसाधनों का आयात नहीं हो सकता। इसलिए पूंजी सबसे पहले इनके पीछे दौड़ती है ताकि इन्हें लेकर बाजार में बढ़त हासिल की जा सके। समझदार सरकारें देश के प्राकृतिक संसाधनों को बाजार के साथ बड़ी चतुराई से बांटती हैं। संसाधनों की वाणिज्यिक कीमत का तथ्यांत्मक व शोधपरक आकलन होता है। भविष्य की संभावनाओं का पूरा गुणा भाग करते हुए यह आंका जाता है कितने संसाधन विकास की जरुरत हैं और कितने बाजार की। इनके आधार पर सरकारें बाजार से इसकी सही कीमत कीमत तय करती है और बाजार से वह कीमत वसूली जाती है क्यों कि बाजार इनके इस्तेमाल की कीमत उपभोक्ता से लेता है। प्राकृतिक संसाधन, बाजार और पूंजी का यह ग्लोबल रिश्ता , उदारीकरण के साथ भारत भी पहुंचा मगर यहां एक अनोखा
शून्य था। बाजार खोलने के बाद सरकारें प्राकृतिक संसाधनों बंटवारे के आधुनिक और पारदर्शी कानून बनाना भूल गईं। इसलिए प्राकृतिक संसाधनो का कारोबारी इस्तेमाल घोटालों की महागाथा में बदल गया। दिल्ली का हवाई अड्डा बनाने वाली जीएमआर डायल को 24 हजार करोड़ रुपये की करीब पांच हजार एकड़ जमीन केवल सौ रुपये की सालाना लीज पर इसलिए मिल गई क्यों कि निजी क्षेत्र की भागीदारी से बनने वाली परियोजनाओं में भूमि की कीमत तय करने पारदर्शी पैमाना ही नहीं है। भारत में कौडि़यों के मोल से लेकर बेहद महंगी कीमत तक स्पे क्ट्राम सिर्फ इसलिए बिका क्यों कि इस कीमती संसाधन को बांटने की नीति ही नहीं बनी। स्पे क्ट्रशम नीति अभी भी अधर में है। कंपनियों को मनमाने ढंग से कोयला खदाने इसलिए दे दी गईं क्यों कि सरकार खदानों के पारदर्शी आवंटन की नीति ही नहीं बना सकी। जमीनें तो घोटालों के टाइम बम हैं। जो हर कस्बे व शहर में मौजूद हैं। जमीन की जमाखोरी भारत का ब्रांड न्यू आर्थिक अपराध है। विकास की जरुरतें जब मुंह बाये जमीन मांग रही हैं तो भू प्रबंधन पर लापरवाह सरकारों ने संकट में बढ़ा दिया है। जमीन सबसे कीमती संसाधन है। असमानता और गरीबी मिटाने से लेकर विकास व समृद्धि लाने तक जमीन हर जगह पहली जरुरत है। करीब 80.76 करोड़ एकड़ जमीन वाला भारत सैटेलाइट जमाने में भू संसाधन को ब्रितानी कानूनों ( रजिस्ट्री की व्यावस्था 1882 से और भूमि अधिग्रहण कानून 1894 का) के जरिये संभाल रहा है। यही वजह है कि जब निजी क्षेत्र जमीन के खेल में उतरा तो जमीन पर हक की लड़ाई (ग्रेटर नोएडा) शुरु हो गई। अदालतों ने जमीन के सरकारी अधिग्रहण को खारिज कर दिया तो पूरी नीति ही सर के बल खडी हो गई। अब पैसा लगाने वाले निवेशकों से लेकर कर्ज के जरिये मकान लेने वाले मध्य वर्गीय लोगों तक सभी बीच में राह खड़े अब नई नीति का इंतजार कर रहे हैं।
शून्य था। बाजार खोलने के बाद सरकारें प्राकृतिक संसाधनों बंटवारे के आधुनिक और पारदर्शी कानून बनाना भूल गईं। इसलिए प्राकृतिक संसाधनो का कारोबारी इस्तेमाल घोटालों की महागाथा में बदल गया। दिल्ली का हवाई अड्डा बनाने वाली जीएमआर डायल को 24 हजार करोड़ रुपये की करीब पांच हजार एकड़ जमीन केवल सौ रुपये की सालाना लीज पर इसलिए मिल गई क्यों कि निजी क्षेत्र की भागीदारी से बनने वाली परियोजनाओं में भूमि की कीमत तय करने पारदर्शी पैमाना ही नहीं है। भारत में कौडि़यों के मोल से लेकर बेहद महंगी कीमत तक स्पे क्ट्राम सिर्फ इसलिए बिका क्यों कि इस कीमती संसाधन को बांटने की नीति ही नहीं बनी। स्पे क्ट्रशम नीति अभी भी अधर में है। कंपनियों को मनमाने ढंग से कोयला खदाने इसलिए दे दी गईं क्यों कि सरकार खदानों के पारदर्शी आवंटन की नीति ही नहीं बना सकी। जमीनें तो घोटालों के टाइम बम हैं। जो हर कस्बे व शहर में मौजूद हैं। जमीन की जमाखोरी भारत का ब्रांड न्यू आर्थिक अपराध है। विकास की जरुरतें जब मुंह बाये जमीन मांग रही हैं तो भू प्रबंधन पर लापरवाह सरकारों ने संकट में बढ़ा दिया है। जमीन सबसे कीमती संसाधन है। असमानता और गरीबी मिटाने से लेकर विकास व समृद्धि लाने तक जमीन हर जगह पहली जरुरत है। करीब 80.76 करोड़ एकड़ जमीन वाला भारत सैटेलाइट जमाने में भू संसाधन को ब्रितानी कानूनों ( रजिस्ट्री की व्यावस्था 1882 से और भूमि अधिग्रहण कानून 1894 का) के जरिये संभाल रहा है। यही वजह है कि जब निजी क्षेत्र जमीन के खेल में उतरा तो जमीन पर हक की लड़ाई (ग्रेटर नोएडा) शुरु हो गई। अदालतों ने जमीन के सरकारी अधिग्रहण को खारिज कर दिया तो पूरी नीति ही सर के बल खडी हो गई। अब पैसा लगाने वाले निवेशकों से लेकर कर्ज के जरिये मकान लेने वाले मध्य वर्गीय लोगों तक सभी बीच में राह खड़े अब नई नीति का इंतजार कर रहे हैं।
लेने व देने वाले हाथ
भारत, राजनीति व नौकरशाही के विवेकाधिकारों का अभयारण्य है। इसलिए यहां खुली हवा आते ही भ्रष्टाचार का इन्फे कशन कई गुना बढ़ गया। जिन फैसलों के लिए पारदर्शी नीतियां होनी चाहिए, उनके लिए पहले आओ पहले पाओ के आधार पर फैसले होते हैं। कानूनों के बनने में देरी या उनका लंबे समय लटके रहना आदत नहीं है बल्कि शायद बांटने और कमाने की इस ताकत को बनाये रखने के षड़यंत्र का हिस्सा है। इसलिए ही याद नहीं आता कि भारत की संसद ने कब आखिरी बार प्राकृतिक संसाधनों के मूल्यांदकन की नीति पर गंभीर बहस की थी। ट्रासंपेरेंसी इंटरनेशनल सहित भ्रष्टाचार को आंकने वाले सभी अध्ययनों में ब्राजील, भारत, रुस, चीन, मलेशिया, इंडोनेशिया, ताईवान आदि भ्रष्टतम देशों के चैम्पियन हैं। इन देशों ने बीते दो तीन दशकों में अपने बाजार खोले हैं। कुछ साल पहले अमेरिका के रोचेस्टर इंस्टीट्यूट ने उदारीकरण और भ्रष्टाचार पर अध्ययन में पाया था कि जिन देशों में लोकतंत्र पहले और आर्थिक उदारीकरण बाद में आया है वहां मुक्त बाजार ने भ्रष्टाचार को नए आयाम दे दिये हैं। उदारीकरण अनंत अवसरों, नियंत्रणों से मुक्ति और पैसे की आंधी लेकर आता है जिसके सामने लोकतंत्रों के कमजोर व पुराने कानून अक्सर हार जाते हैं। खुली अर्थव्यवस्थाओं में भ्रष्टाचार के लिए ज्यादा खुराक उपलब्ध है। लाभ के नए अवसर प्रतिस्पर्धा बढ़ाते हैं तो रिश्वंत देने वाले हाथों की तादाद भी बढ़ जाती है।
एक कंपनी को शून्य से सौ करोड़ रुपये के कारोबार तक पहुंचने में पता नहीं कितने लोगों, कितनी तकनीक, कितना निवेश जोडना पड़ता है और ऐसा करते हुए कंपनी के प्रवर्तकों को आधी जिंदगी गुजर जाती है। अलबत्ता भारत में एक राजनेता कोई उत्पांदक निवेश किये बगैर पांच साल में शूनय से सौ करोड़ की घोषित संपत्ति का मालिक हो जाता है। ऐसा इसलिए है क्यों कि सियासत का अब अपना एक बिजनेस मॉडल है। भारत में सियासत का मतलब ही है कुछ लेने या देने का अनोखा विशेषाधिकार। उदारीकरण ने राजनेताओं के हाथों में बेचने की अकूत ताकत पहुंचा दी है। मोटी जेब वाली कंपनियां कुछ भी करने को तैयार हैं, क्यों कि भारत एक संभावनामय बाजार है। रिश्वत, कार्टेल, फर्जी एकाउंटिंग, कारपोरेट फ्रॉड, लॉबीइंग, नीतियों में मनमानी .... उदार बाजार का हर धतकरम में खुलकर खेल रहा है। हम मुक्त बाजार की विकृतियों को संभाल नहीं पा रहे हैं। सातवें आठवें दशक के नेता अपराधी गठजोड़ की जगह अब नेता-कंपनी गठजोड़ ले ली है। यह जोड़ी ज्यादा चालाक, आधुनिक, रणनीतिक, बेफिक्र और सुरक्षित है। मुक्त बाजार में ताली दोनों हाथ से बज रही है। उदारीकरण, भ्रष्टाचार और प्राकृतिक संसाधनों से जुड़े कानूनों की कमजोरी ने मिलकर ऐसी अराजकता रच दी है कि हर उस क्षेत्र में जहां हमें प्रगति मिली है, वहीं लूट की वीभत्स कथायें भी खुल गई हैं। भारत की ग्रोथ पर गर्व किया जाना चाहिए लेकिन यह तरक्की बला की तेजी से दागदार हो रही है।
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