Monday, January 7, 2013

उनकी सियासत सबकी मुसीबत


हॅालीवुड के सबसे काबिल रोमांच निर्माता मिल कर भी दुनिया को थर्राने की उतनी कुव्‍वत नही रखते जितनी काबिलियत अमेरिका के मुट्ठी भर राजनेताओं में है। 2012 के अंतिम दिन फिस्‍कल क्लिफ से बचने की कोशिश, अमेरिकी सियासत का सन्‍न कर देने वाला तमाशा थी। राजकोषीय संकट की गोली कान के पास निकल गई। अमेरिका वित्‍तीय संकटों के भयानक टाइम बम पर बैठा है जो किस्‍म किस्‍म के घाटों, अकूत कर्ज, कमजोर ग्रोथ के बारुद से बने हैं। बुरी तरह विभाजित अमेरिकी सियासत पलीता लेकर इस बारुद के पास नाच रही है। फिस्‍कल क्लिफ की मुसीबत टलने से किसी को राहत नहीं मिली है कयों कि ग्‍लोबल अर्थव्‍यवस्‍था के लिए अमेरिकी फैक्‍ट्री में कुछ और बड़े संकट बन रहे हैं, जिनसे बचने के लिए राजनीतिक सहमति जरुरी होगी  जबकि अमेरिकी सियासत तो आत्‍मघाती संकटों की दीवानी हो चली है। दुनिया की सरकारों, बाजारों व बैंको को 2013 में अमेरिका के नेताओं से डरना चाहिए यूरोप के कर्ज से नहीं।
2013 के पहले दिन अमेरिका तकनीकी तौर राजकोषीय संकट में फंस गया था। पिछले वर्षों में लागू की गई कर रियायतों और खर्च में बढ़ोत्‍तरी को रोकने का आटोमेटिक सिस्‍टम ही फिस्‍कल क्लिफ था जो एक जनवरी 2013 को लागू हो गया। असर इसलिए नहीं हुआ कि क्‍यों कि नए साल की छुट्टिया थीं। घाटा कम करने के लिए टैक्‍स बढ़ाने पर एक ढीली ढाली सहमति बन गई, जिसे अमेरिकी कांग्रेस ने मंजूरी दे दी। अमेरिका के लिए बजट घाटे की फांस खत्‍म नहीं
हुई है, बस टैक्‍स बढ़ाकर मुश्किल टली है। फिस्‍कल क्लिफ के समाधान की कोशिशों ने अमेरिकी राजनीति को और बांट दिया है।
अमेरिका के वित्‍तीय संकट ग्‍लोबल असर करते हैं। अचरज है कि विश्‍व के सबसे परिपक्‍व लोकतंत्र में हाल के सभी गंभीर बजटीय संकट वहां की विभाजित राजनीति का तोहफा हैं। फिस्‍कल क्लिफ को ही लें। यह संकट उस राजनीतिक झगड़े के समाधान से निकला जो 2011 में उपजा था। सरकार के कर्ज लेने की सीमा पार हो गई थी। इसे बढ़ाने के लिए रिपब्लिकन व डेमोक्रेट इस कदर उलझे कि वक्‍त ही गुजर या। वित्‍तीय बाजार में अमेरिका की चट्टानी साख दरक गई। स्‍टैंडर्ड एंड पुअर ने अमेरिकी ट्रिपल ए रेटिंग घटा दी। बाजार औंधे मुंह गिरे और निवेशकों के अरबों खरबों लुट गए। अमेरिकी राजनीति कर्ज की सीमा बढ़ाने के लिए जिस बजट कंट्रोल एक्‍ट पर सहमत हुई थी उसके तहत अमेरिकी सरकार के घाटे को कम करने का एक कार्यक्रम बनाया जाना था। ऐसा न होने पर कर दरें बढ़नी थीं और खर्च में कटौती में होनी थी। यही वह फांस थी जिसमें अमेरिका और पूरी दुनिया के वित्‍तीय बाजार बस फंसते फंसते बच गए हैं।
अमेरिका में दूसरे संकट का ढोल बजने लगा है। 2011 का कर्ज वाला प्रेत अगले माह फरवरी में व्‍हाइट हाउस की छत पर फिर बैठ जाएगा। कर्ज की सीमा को 16.39 खरब डॉलर तक बढ़ाया गया था। इस फरवरी में अमेरिकी नेताओ को यह सीमा बढ़ाने पर नए से सिरे से बात करनी है। अमेरिका का 40 फीसदी खर्च कर्ज से चलता है और 1962 से अब तक कर्ज की सीमा 75 बार बढ़ चुकी है। ताजा संकट में अमेरिकी राजनीति का जो चेहरा दिखा है उसके बाद हर कोई यह मान रहा है कि कर्ज की सीमा को लेकर रिपब्लिकन व डेमोक्रेट दुनिया के बाजारों की सांसे थाम देंगे। रेटिंग एजेंसी मूडीज अमेरिका की रेटिंग पर  तलवार लटका चुकी है। अमेरिकी सरकार का कर्ज पिछले साल ही देश के जीडीपी के बराबर हो गया है। दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्‍यवस्‍था के कुल उत्‍पादन की कीमत, अब उसके सर पर चढ़े कर्ज के बराबर है। 
दुनिया की वित्‍तीय नब्‍ज संभालने वाले इस मुल्‍क को तीसरी फांस भी इसी मार्च में ही घेरेगी। 2011 में कर्ज की सीमा तय करते समय यह शर्त भी रखी गई थी  कि 3 जनवरी 2013 तक अमेरिकी सरकार अपना खर्च करीब 1.2 खरब डॉलर कम करेगी। ऐसा नहीं हो सका। फिस्‍कल क्लिफ को लेकर जो ताजी सहमति बनी है उसमें तहत यह कटौती लागू होने की समय सीमा मार्च तक बढ़ा दी गई है। खर्च घटाने और कर्ज की नई सीमा तय करने के लिए अमेरिकी संसद की मंजूरी चाहिए और एक जनवरी से आई नई संसद पिछली से ज्‍यादा विभाजित है।
पूरी दुनिया के नजरिये से अमेरिका, यूरोप की तुलना में कहीं ज्‍यादा बड़ी समस्‍या है। ग्‍लोबल मंदी का घाव 2008 में अमेरिकी बैंकिंग में विस्‍फोट से मिला था।  यूरोप में जो मुसीबतें ग्रीस, स्पेन, इटली में बिखरी हैं, वह सब एकजुट होकर अमेरिका में केंद्रित है। पिछले तीन माह में यूरोप पटरी पर आया है और यूरोपीय सियासत कुछ सुधरी है लेकिन अमेरिका में राजनीतिक शत्रुतायें इतनी गहरी हैं कि देश की संसद ने तीन साल बजट भी मंजूर नहीं किया है। खर्च और घाटे पर नियंत्रण को लेकर अमेरिकी राजनेता तभी मिलते है जब संकट सर पर टंग जाता है। पिछले दो साल में अमेरिका ने संकटों के टाइम बम की घड़ी आगे खिसकाई है और बारुद बढ़ा दिया है। लेकिन अब सभी टाइमर एक साथ सक्रिय हो गए हैं। 2013 में अमेरिका यह भी सा‍बित कर देगा कि उसकी राजनीति पूरी दुनिया की साझा मुसीबत  है। उसके बैंक ही नहीं नेता भी ग्‍लोबल संकट पैदा कर सकते हैं। 
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