महिलाओं के खिलाफ अपराध रोकने के ताजा कानून के पीछे संवेदना और सजगता की राजनीतिक चेतना नहीं थी बस कानून फेंककर लोगों को किसी तरह चुप करा दिया गया। इसलिए डरावने बताये गए कानून से कोई दुष्कर्मी नहीं डरा।
इंसाफ
कोई बेरोजगारी भत्ता, लैपटॉप
या साइकिल नहीं है जिसे बांटकर वोट लिये जा सकें। न्याय विशेष राहत पैकेज भी नहीं
हैं जिनसे सियासत चमकाई जा सके। इंसाफ में समाज का भरोसा कानून के शब्दों से नहीं
बल्कि कानून की चेतना से तय होता है। एक कथित सख्त कानून से कुछ भी बदला। महिलाओं
के खिलाफ अपराध और जघन्य हो गए और लोग फिर सड़क पर उतर कर इंसाफ के लिए नेताओं का
घर घेर रहे हैं। कानून बेअसर इसलिए हुआ है क्यों कि कानून बनाने वालों की सोच ने
उसकी भाषा से ज्यादा असर किया है। एक बिटिया की हत्या के खिलाफ उबले जनआक्रोश के
बदले जो कानून मिला उसके पीछे दर्द, संवेदना
और सजगता की राजनीतिक चेतना नहीं थी बल्कि कानून फेंकर लोगों को किसी तरह चुप करा
दिया गया। पूरे देश ने देखा कि क्रूर अपराधी को अविस्मरणीय दंड की बहस, चलाकी के साथ सहमति से सेक्स की उम्र की बहस में बदल गई।
नतीजतन इस कथित सख्त कानून के शब्दों से न अपराधी डरे, न तेज फैसले हुए और न
न्याय मिला। हम वहीं खड़े हैं जहां से चले थे।
हममें
से किसने लड़कियों का पीछा नहीं किया है... गरीब की जोरु गांव की भौजाई। लड़किया
ऐसे लिफ्ट नहीं देतीं... इस कानून के बाद सहशिक्षा के स्कूल बंद करने होंगे.. !!! .. यह ठहाके और टिप्पणियां
दुष्कर्म रोधी कानून की संसदीय पृष्ठभूमि हैं और लोगों को झकझोर देने वाले विषयों
पर भारत की राजनीतिक चेतना के स्तर का सबूत हैं। भारत पूरी दुनिया में शर्मिंदा
था। बहस एक अभूतपूर्व कानून पर थी जो सीधे जनआंदोलन की देन था जो देश की राजधानी
में एक जघन्य घटना पर सरकार की लंबी संवेदनहीनता से उपजा था। लेकिन राष्ट्रपति
के बेटे की टिप्पणी सहित तरह की तरह जबानी फिसलन के बाद किसी को यह संदेह नहीं
रहा यह कानून गवर्नेंस की विफलता की ग्लानि से नहीं निकला बल्कि उपहास और
ठहाकों के बीच,
'चलो एक कानून दे दो' की मानसिकता से बना है।
कानून निर्माताओं और लागू कराने वालों की सोच बताने वाली भाषा, कानून की भाषा से ज्यादा प्रभावी होती है। एक दर्दनाक अपराध का संसद में उपहास हो या दुष्कर्म पीडि़तों का नाम लेने की गृह मंत्री शिंदे की स्टाइल। या फिर क्रूरता की शिकार महिलाओं पर पुलिस अधिकारियों की टिप्प्णी, यह सब कुछ जनसंवेदना से कटी जमात के ऐसे स्वाभाविक विचार थे जो बकौल जॉर्ज ऑरवेल, भाषा को भ्रष्ट कर देते हैं। इसलिए सख्त कहे गए एक कानून के क्रियान्वयन की भाषा भी पहले दिन से ही भ्रष्ट हो गई। राजनीतिक तंत्र व सरकारी कानूनदां देश को हफ्तों इस बात के लिए डराते रहे कि महिलाओं पर अपराध के खिलाफ एक कठोर कानून का दुरुपयोग हो सकता है और जेलें बेगुनाहों भर जाएंगी। इसलिए जब कानून सामने आया तो उसमें दंड की वह चेतना नदारद थी जिससे अपराध डरता है। इस कानून की पृष्ठभूमि में चली बेसिर पैर बहसें यह साबित कर रही थीं सरकार ने मजबूरी में कानून बनाया है और इसे मजबूरी में ही लागू किया जाएगा।
भारत के सांसदों विधायकों की कानून निर्माण
क्षमतायें गहराई तक संदिग्ध है। संसदीय समितियों से लेकर संसद तक विधेयकों पर
बहसों का स्तर यह बताता हैं कि हमारे जनप्रतिनिधि कितने तथ्य, सूचना और दूरदर्शिता
संपन्न हैं। कानून लिखने का काम बाबुओं की मशीनरी के हाथ है, जिनसे संवेदनशीलता
की अपेक्षा व्यर्थ है और सांसदों के पास कानून के बनाने के अलावा बहुत से काम
हैं। नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज को दिल्ली की ताजी घटना के बाद बालिकाओं के उत्पीड़न
पर कानून में और सख्ती की जरुरत महसूस हो रही है लेकिन महिलाओं पर अपराध रोकने का
ताजा कानून तो अभी अभी भाजपा की सक्रिय भागीदारी से ही बना है? एक बच्ची के साथ
जघन्यता से उबले लोग जानना चाहते हैं कि यह कैसा क्रांतिकारी कानून है जिस में बच्चियों
से दुष्कर्म को लेकर अलग से कोई सख्त प्रावधान ही नहीं हैं। शायद ऐसा इसलिए हुआ क्यों
कि बच्चियों के साथ दुष्कर्म पर सख्ती की अपेक्षाओं को सहमति से सेक्स की उम्र
पर बहस में गायब कर दिया।
पचास के दशक में सुप्रीम कोर्ट के चीफ जसिटस रहे अर्ल वारेन को अमेरिका
में क्रांतिकारी फैसलों और न्याय व्यवस्था को नया शिखर देने के लिए याद किया
जाता है। वारेन ठीक ही कहते थे न्याय को जिंदा रखने के लिए कानून का स्वरुप नही
बल्कि उसकी चेतना महत्वपूर्ण होती है। यकीनन, कानून के संदर्भ में चेतना अमूर्त
नहीं होती। दुनिया का अदालती इतिहास गवाह है कि कानून की चेतना शब्दों से पार
जाकर न्याय को प्रभावित करती है। कानून की पृष्ठभूमि और कानून निर्माताओं की संवेदनशीलता
व दूरदर्शिता ही तो वह तत्व हैं जो जिनसे
बने कानून न्याय को सुनिश्चित करते हैं। जनता कानून की जबान भले ही न जाने लेकिन उसकी
चेतना जरुर महसूस करती है। लोगों को सड़क पर इसलिए फिर उतरना पडा है क्यों कि एक
डरावने बताये गए कानून से कोई दुष्कर्मी नहीं डरा।
कानून बनाना, समितियां बनाने, आयोग
बिठाने, पैकेज बांटने ओर रियायतें लुटाने जैसा काम नहीं है। लेकिन हम उस दौर में
हैं जहां निष्ठुर सरकारें जनता के चीखने पर आपदा राहत की तरह कानून पकड़ा देती हैं।
इसलिए पिछले एक दशक में हमें जो कानून मिले हैं वे या तो सत्ता के स्वार्थ से निकले
हैं या फिर जनता को चुप कराने की गरज से। जनता की अपेक्षा कटे और उखडे कानूनों का
राज हमें इस हाल में ले आया है कि जहां कानून की निगाह में सभी लोग समान हैं बस सिर्फ
‘कुछ’ लोगों को छोडकर। शरद
यादव ने दुष्कर्म विरोधी विधेयक पर अपने विवादित भाषण में एक ही बात ठीक कही थी कि
लमहों ने खता की थी सदियों ने सजा ने पाई। दागी और संवेदनहीन दिमागों से निकले कानून
इंसाफ नहीं अंतहीन सजा ही होते हैं और हम वही सजा भुगत रहे हैं।
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जागते समाज से हारती
सियासत
2 comments:
बिल्कुल सही कहा आपने, देश की हालत लगातार बिगड़ रही है और कानून के नाम पर कुछ हो नहीं रहा। सजा का ऐसा प्रावधान किया जा रहा है कि फिर वो अपराध हो रहे है। इसके लिए जरूरी है कुछ ऐसे देशों के कानून को लागू करना, जहां ऐसे जघन्य अपराधों पर ऐसी सजा दी जाती है कि हर कोई उस अपराध के बारे में सोचकर ही कांप उठे। यहां भी ऐसा ही होना चाहिए।
सड़क पर उतरकर संसद से न्याय मांगने वालों को ये बात जरूरत समझनी होगी िक वो न्याय और कानून की मांग उनसे कर रहे हैं िजनके िलए ये घटनाएं सिर्फ एक घटना से ज्यादा और कुछ नहीं हैं। बहुत ही सारगर्भित लेख।
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