संवैधानिक गारंटियों और कानूनी अधिकारों देश को रोजगार व शिक्षा के बदले एक नई राजनीतिक नौकरशाही और जवाबदेही से मुक्त खर्च का विशाल तंत्र मिला है।
भ्रष्टाचार व दंभ से भरी एक लोकतांत्रिक सरकार, सिरफिरे तानाशाही राज से ज्यादा घातक होती है। ऐसी
सरकारें उन साधनों व विकल्पों को दूषित कर देती हैं, जिनके
प्रयोग से व्यवस्था में गुणात्मक बदलाव किये जा सकते हैं। यह सबसे सुरक्षित दवा
के जानलेवा हो जाने जैसा है और देश लगभग इसी हाल में हैं। भारत जब रोजगार या
शिक्षा के लिए संवैधानिक गारंटियों और कानूनी अधिकारों के सफर पर निकला था तब विश्व
ने हमें उत्साह मिश्रित अचरज से देखा था। यह नए तरह का वेलफेयर स्टेट था जो
सरकार के दायित्वों को, जनता के अधिकारों में बदल रहा था।
अलबत्ता इन प्रयोगों का असली मकसद दुनिया को देर से पता चला। इनकी आड़ में देश को
एक नई राजनीतिक नौकरशाही से लाद दिया गया और जवाबदेही से मुक्त खर्च का एक ऐसा
विशाल तंत्र खड़ा किया गया जिसने बजट की लूट को वैधानिक अधिकार में बदल दिया।
मनरेगा व शिक्षा के अधिकारों की भव्य विफलता ने सामाजिक हितलाभ के कार्यक्रम
बनाने व चलाने में भारत के खोखलेपन को दुनिया के सामने खोल दिया है और
संवैधानिक गारंटियों के कीमती दर्शन को भी दागी कर दिया है। इस फजीहत की बची खुची
कसर खाद्य सुरक्षा के अधिकार से पूरी होगी जिसके लिए कांग्रेस दीवानी हो रही है।
रोजगार गारंटी, शिक्षा का अधिकार और प्रस्तावित
खाद्य सुरक्षा विधेयक, जनकल्याण के कार्यक्रमों की सबसे नई पीढ़ी है। ग्राम व
भूमिहीन रोजगार, काम के बदले अनाज, एकीकृत ग्राम विकास मिशन आदि इन स्कीमों के
पूर्वज हैं जो साठ से नब्बे दशक के अंत तक आजमाये गए। संसद से पारित कानूनों के जरिये न्यूनतम रोजगार,
शिक्षा व राशन का अधिकार देना अभिनव प्रयोग इसलिए था क्यों कि असफलता की स्थिति में
लोग कानूनी उपचार ले सकते थे। भारत के पास इस प्रजाति के कार्यक्रमों की डिजाइन व
मॉनीटरिंग को लेकर नसीहतें थोक में मौजूद थीं
लेकिन उनकी रोशनी इन नए प्रयोगों पर नहीं पड़ी। गारंटियों के गठन में खुले बाजार, निजी क्षेत्र और शहरों के विकास की भूमिका भी शामिल नहीं की गई। मनरेगा व शिक्षा के अधिकार की विशाल असफलता बताती हैं कि यह अनदेखी भूल वश नहीं बल्कि होशो हवाश में हुई है जिसमें स्वार्थ निहित थे।
लेकिन उनकी रोशनी इन नए प्रयोगों पर नहीं पड़ी। गारंटियों के गठन में खुले बाजार, निजी क्षेत्र और शहरों के विकास की भूमिका भी शामिल नहीं की गई। मनरेगा व शिक्षा के अधिकार की विशाल असफलता बताती हैं कि यह अनदेखी भूल वश नहीं बल्कि होशो हवाश में हुई है जिसमें स्वार्थ निहित थे।
मनरेगा सोवियत तर्ज पर बनी एक विशालकाय कंपनी के
मानिंद है। राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कमेटी, क्वालिटी निर्धारण तंत्र, नेशनल
मॉनीटर्स, प्रदेश कमेटियां, जिला कमेटियां, ग्राम स्तरीय कमेटी, प्रोग्राम ऑफीसर,
ग्राम रोजगार सहायकों से लंदी फंदी मनरेगा के जरिये देश में समानांतर नौकरशाही
तैयार की गई जिसका काम गरीबों को साल भर में सौ दिन का रोजगार देना और उसकी
मॉनीटरिग करना था। लेकिन, बकौल सीएजी, पिछले
दो साल में प्रति व्यक्ति केवल 43 दिन का रोजगार दिया गया। फर्जी जॉब कार्ड व घटिया
निर्माण जो गरीबी उन्मूलन व ग्रामीण रोजगार स्कीमों की पुरानी बीमारी हैं वह
मनरेगा में कायम रही। चुस्त् मॉनीटरिंग की नामौजूदगी सरकारी कार्यक्रमों की
वंशानुगत बीमारी है, लेकिन मनरेगा तो सबसे आगे निकली। इसमें वह विशाल नौकरशाही एक
कानूनी गारंटी को खा गई जो इसकी मॉनीटरिंग के लिए बनी थी। इस स्कीम से केंद्रीय
बजट या गांवों के श्रम बाजार को जो नुकसान
पहुंचा वह दोहरी मार है। मनरेगा देश के वर्तमान से भी कटी हुई है, यह उस समय उपजी,
जब नए रोजगार गैर कृषि क्षेत्रों से आ रहे थे।
शिक्षा का अधिकार देने वाली स्कीम का डिजाइन ही
खोटा था। इसने दुनिया में भारत की नीतिगत दूरदर्शिता की बड़ी फजीहत कराई है। निरा
निरक्षर भी शिक्षा के ऐसे अधिकार पर माथा ठोंक लेगा जिस में बच्चों को बगैर
परीक्षा के आठवीं तक पास कर दिया जाता हो, मानो उनका भविष्य परीक्षा के बगैर बनने
वाला है। बच्चों को स्कूल तक पहुंचाने का मतलब शिक्षित करना नहीं है, यह स्थापित
ग्लोबल सच भारत के नीति निर्माताओं तक क्यों नही पहुंचा? शिक्षा का अधिकार पाठ्यक्रम, शिक्षकों व शिक्षा
के स्तर के बजाय स्कूलों की इमारत बनाने पर जोर देता था। इसलिए शिक्षा का अधिकार,
इमारतें बनाने के अधिकार में बदल गया और यह सब उस समय हुआ जब शिक्षा की गुणवत्ता
की बहस की सबसे मुखर थी।
खाद्य सुरक्षा के लिए राजनीतिक आपाधापी अनोखी है।
सब्सिडी की लूट नया रास्ता खोलने वाली यह स्कीम उस वक्त् आ रही है जब सरकार नकद
भुगतानों के जरिये सब्सिडी के पूरे तंत्र को बदलना चाहती है। खाद्य सुरक्षा की सूझ
में मनरेगा व शिक्षा के अधिकार की गलतियों का संगठित रुप नजर आता है। भारत की राशन
प्रणाली अनाज चोरी व सब्सिडी की बर्बादी का दशकों पुराना संगठित कार्यक्रम है। यही
तंत्र 75 फीसद ग्रामीण और 50 फीसद शहरी
आबादी को सस्ता अनाज देगा अर्थात कृषि लागत व मूल्य आयोग के अनुसार छह लाख करोड़
रुपये का खर्च इस कुख्यात व्यवस्था के हवाले होगा। जहां गरीबों की पहचान ही संदिग्ध
हो वहां इतना बड़ी प्रत्यक्ष बर्बादी, दरअसल देश के लिए वित्तीय असुरक्षा की
गारंटी है। हालांकि भूखों की बात सुनने के लिए राज्य स्तरीय फूड कमीशन और जिला
स्तरीय शिकायत तंत्र, जैसी नई नौकरशाही इस कानून में भी प्रस्तावित है।
इन अधिकारों से न रोजगार मिला, न शिक्षा और न
खाद्य सुरक्षा ही मिलेगी। रोटी, कमाई और पढ़ाई का हक पाने के लिए मुकदमा लड़ने भी
कौन जा रहा है? सबसे बड़ा नुकसान यह है कि संवैधानिक गारंटियों
और कानूनी अधिकारों की साख मटियामेट हो गई है। मनरेगा विशाल नौकरशाही, और शिक्षा का अधिकार बने अधबने स्कूलों की विरासत
छोड कर जा रहा है। खाद्य सुरक्षा बजट की बर्बादी करेगी। अगली सरकारों को इन्हें
बदलना या बंद करना ही होगा। कहते हैं कि इतिहास जब भी खुद को दोहराता है तो उसका तकाजा
दोगुना हो जाता है। सत्तर अस्सी के दशक की आर्थिक भूलों को मिटाने में नब्बे का एक पूरा दशक खर्च हो गया। सोनिया
मनमोहन की सरकार देश के वित्तीय तंत्र में इतना जहर छोड़ कर जा रही है जिसे साफ
करने में अगली सरकारों को फिर एक दशक लग जाएगा।
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