डॉलर के 65-70 रुपये तक जाने के आकलन सुनकर कलेजा मुंह को आ सकता है लेकिन ऐसा होना संभव है। हमें कमजोर रुपये की यंत्रणा के साथ जीने की आदत डाल लेनी चाहिए।
देश को यह कड़वा कंटीला अब सच निगल लेना
चाहिए कि रुपया जोखिम के खतरनाक भंवर में उतर गया है और विदेशी मुद्रा की सुरक्षा उन
सैलानी डॉलरों की मोहताज है जो मौसम बदलते ही वित्तीय बाजारों से उड़ जाते हैं।
यह सच भी अब स्थापित है कि भारत संवेदनशील जरुरतों के लिए आयात पर निर्भर है इसलिए
डॉलर के मुकाबले रुपये की कमजोरी रोजमर्रा का दर्द बन गई है। वर्तमान परिदृश्य की
बुनियाद 1991 जैसी है और लक्षण 1997 के पूर्वी एशियाई संकट जैसे, जब पूरब के मुल्कों
की मुद्रायें ताबड़तोड़ टूटीं थीं। ताजी छौंक यह है कि अमेरिका व जापान की अर्थव्यवस्थायें
जितनी तेजी से मंदी से उबरेंगी और बाजारों में पूंजी का प्रवाह सीमित करेंगी, भारत
के वित्तीय बाजारों में डॉलरों की कमी बढ़ती जाएगी। इसलिए सिर्फ कमजोर रुपये से ही
नहीं, विनिमय दर अस्थिरता से भी जूझना होगा।
रुपये की ताजा रिकार्ड गिरावट को तातकालिक
कहने वाले हमारे सर में रेत घुसाना चाहते हैं। दरअसल देशी मुद्रा की जड़ खोखली हो
गई और हवा खिलाफ है। मंदी व महंगे कर्ज का दुष्चक्र महंगाई की जिस धुरी पर टिका
है, रुपये की कमजोरी उसे ऊर्जा दे रही है। रुपया पिछले वर्षों में बला की तेजी से
ढहा है। सितंबर 2008 में ग्लोबल संकट शुरु होते वक्त डॉलर
43.90 रुपये पर था। पहली चोट लगते ही यह नवंबर 2008 में 49.60 रुपये पर आ गया। अक्टूबर 2012 में डॉलर 53 रुपये का हुआ और बीते हफ्ते इसने 60 रुपये की तलहटी छू ली। चार साल और कुछ महीनों में डॉलर का 43 से 60 रुपये हो जाना इतनी बडी गिरावट है कि इससे ग्रोथ, महंगाई, निवेश व कर्ज के फार्मूले ही बदल गए हैं। लगातार टूट रहे रुपये ने महंगाई को ताकत दी है। बचत को महंगाई से बचाने के लिए लोग सोने पर पिल पडे। जिससे आयात निर्यात का संतुलन बिगड गया। अब महंगाई भी है कमजोर रुपया भी और दोनों मिलकर एक दूसरे की ताकत व मंदी की मजबूती बढ़ा रहे हैं।
43.90 रुपये पर था। पहली चोट लगते ही यह नवंबर 2008 में 49.60 रुपये पर आ गया। अक्टूबर 2012 में डॉलर 53 रुपये का हुआ और बीते हफ्ते इसने 60 रुपये की तलहटी छू ली। चार साल और कुछ महीनों में डॉलर का 43 से 60 रुपये हो जाना इतनी बडी गिरावट है कि इससे ग्रोथ, महंगाई, निवेश व कर्ज के फार्मूले ही बदल गए हैं। लगातार टूट रहे रुपये ने महंगाई को ताकत दी है। बचत को महंगाई से बचाने के लिए लोग सोने पर पिल पडे। जिससे आयात निर्यात का संतुलन बिगड गया। अब महंगाई भी है कमजोर रुपया भी और दोनों मिलकर एक दूसरे की ताकत व मंदी की मजबूती बढ़ा रहे हैं।
रुपये की रिकार्ड कमजोरी बावजूद दो साल से
निर्यात भी नहीं बढा। इसकी वजह सिर्फ ग्लोबल मंदी नहीं है दअसल उत्पादन
लागत में वृद्धि ने निर्यात की प्रतिस्पर्धा तोड दी है। लागत बढाने में कमजोर
रुपये, महंगाई व महंगे कर्ज की बडी भूमिका है। ग्लोबल बाजार में मांग निकलने के
बावजूद देशी निर्यातक रत्न आभूषण, कपड़ा,
इंजीनियरिंग पारंपरिक क्षेत्रों में भी थाईलैंड, दक्षिण अफ्रीका व इंडोनेशिया से
मात खा रहे हैं। 2012 का अक्टूबर निर्णायक था, जब डॉलर ने 53 रुपये से आगे का सफर
शुरु किया। तब तक विदेशी मुद्रा सुरक्षा की दरार पूरी तरह खुल चुकी थी। डॉलरों की आवक
व निकासी का अंतर यानी चालू खाते का घाटा (सीएडी) जीडीपी के अनुपात में 6.7 फीसद को
छू गया था जो कि 1991 के संकट में 5.6 फीसद
था और जिसे आदर्श स्थिति में तीन फीसद होना चाहिए। देश के पास
केवल सात माह के आयात के लायक डॉलर होने की खबर आने के बाद से रुपये में
जबर्दस्त अस्थिरता शुरु हुई है क्यों कि अब देशी मुद्रा की ताकत निर्यात या
प्रत्यक्ष निवेश पर नहीं बल्कि शेयर बाजार में डॉलरों की आमद-निकासी पर निर्भर
है।
विदेशी
निवेशक भारत के वित्तीय बाजारों में वह पूंजी लेकर उतरे थे जो अमेरिकी फेडरल
रिजर्व ने मंदी से उबरने के लिए बाजार में छोड़ी थी। अब अमेरिका में ग्रोथ की वापसी
से यह प्रवाह रुकना तय है इसलिए फेडरल रिजर्व से ताजा संकेतों से वित्तीय बाजार
ढह रहे हैं और रुपया गर्त में चला गया है। इसका असर सभी उभरते बाजारों पर है लेकिन
अन्य देशों के पास विदेशी मुद्रा भंडार मजबूत हैं। जबकि भारत का भंडार समकक्ष देशों
में न्यूनतम है, विदेशी कर्ज बढ़ा है, मुद्रा भंडार अब 78 फीसदी कर्ज चुकाने लायक
है, बुनियादी आर्थिक कारक कमजोर हैं और 50 से अधिक प्रमुख बड़ी कंपनियां के सर पर
विदेशी कर्ज लदे हैं, जो अपनी लागत कीमतें बढ़ाकर उपभोक्ताओं के सर मढेंगी। इसलिए
उभरते बाजारों के बीच भारतीय मुद्रा सबसे तेजी से गिरी है।
संतुलित
मुद्रा अवमूल्यन एक रणनीति है जिसके फायदे मिलते हैं जबकि बुनियादी कमजोरी से मुद्रा
का टूटना एक आफत है। भारत के पास मुद्रा अवमूल्यन का पुराना रिकार्ड है, जिनके अलग अलग असर रहे हैं। 1966 में विदेशी मदद
पाने के लिए रुपये का पहला बड़ा अवमूल्यन हुआ था जब आयात के लिए सीमित तौर पर बाजार
खोला गया। उस वक्त अर्थव्यवस्था 1965 के युद्ध व सूखे से ध्वस्त थी। रुपये की
यह कमजोरी निर्यात को पहली मजबूत बढ़त देने के काम आई थी। 1991 में हुए दो अवमूल्यन
आर्थिक सुधारों का हिस्सा था जिससे विदेशी पूंजी आने का रास्ता खुला जबकि 1998
से 2005 के बीच संतुलित अवमूल्यन से निर्यात को नई ताकत मिली। अलबत्ता ताजा
अवमूल्यन बुनियादी समस्याओं की देन है, इसलिए इस निर्यात भी ध्वस्त हैं और अब
जब कि भारत अब गंभीर रुप से आयात निर्भर है तो मुद्रा की कमजोरी से जोखिम कई गुना ज्यादा
बढ गया है।
डॉलर के 65-70 रुपये तक जाने के आकलन सुनकर
कलेजा मुंह को आ सकता है लेकिन ग्लोबल बाजार में संभावित बदलावों को देखते हुए यह
अप्रत्याशित नहीं होगा। अब चुनौती रुपये की कमजोरी नहीं बलिक उतार-चढ़ाव है जो कारोबारी
योजनाओं को हर सप्ताह सर के बल खड़ा कर रहा है। सरकार गिरते रुपये को फिलहाल थाम
नहीं सकती। अगर कुछ संभव है तो महंगाई थामी जाए जिसके घटते ही सोने की खरीद में
कमी से लेकर ब्याज दर कटौती तक बहुत कुछ संभव होगा। बाजार जानता है कि रुपया अब
भारत की बुनियादी आर्थिक मजबूती से ही उबरेगा। बेहतर है कि हमें कमजोर रुपये की
यंत्रणा के साथ जीने की आदत डाल लेनी चाहिए क्यों कि आयात पर निर्भर भारतीय अर्थव्यवस्था
कमजोर देशी मुद्रा के साथ एक कठिन सफर पर निकल चुकी है, और यह सफर लंबा हो सकता
है।
No comments:
Post a Comment