हम अवमूल्यन के घाट पर फिसल ही गए हैं तो अब कायदे से गंगा नहा लेनी चाहिए। भारत के लिए रुपये की कमजोरी को निर्यात की ताकत में बदलने का मौका सामने खड़ा है।
बड़ी
मुसीबतों में एक बेजोड़ चमक छिपी होती है। इनसे ऐसे दूरगामी परिवर्तन निकलते हैं, सामान्य स्थिति में
जिनकी कल्पना का साहस तक मुश्किल है। किस्म किस्म के आर्थिक दुष्चक्रों के
बावजूद भारत के लिए घने बादलों की कोर पर एक विलक्षण रोशनी झिलमिला रही है। रुपये
में दर्दनाक गिरावट ने भारत के ग्रोथ मॉडल में बड़े बदलावों की शुरुआत कर दी है।
भारत अब चाहे या अनचाहे, निर्यात
आधारित ग्रोथ अपनाने पर मजबूर हो चला है क्यों कि रुपये की रिकार्ड कमजोरी
निर्यात के लिए अकूत ताकत का स्रोत है। भारत का कोई अति क्रांतिकारी वित्त मंत्री
भी निर्यात बढ़ाने के लिए रुपये के इस कदर अवमूल्यन की हिम्मत कभी नहीं करता, जो
अपने आप हो गया है। साठ के दशक में जापान व कोरिया और नब्बे के दशक में चीन ने ग्लोबल
बाजार को जीतने के लिए यही काम सुनियोजित रुप से कई वर्षों तक किया था। रुपया, निर्यात
में प्रतिस्पर्धी देशों की मुद्राओं के मुकाबले भी टूटा है इसलिए भारत में ग्रोथ
व निवेश की वापसी कमान निर्यातकों के हाथ आ गई है। जुलाई में निर्यात में 11 फीसद
की बढ़त संकेत है कि सरकार को रुपये को थामने
के लिए डॉलर में खर्च या आयात पर पाबंदी जैसे दकियानूसी व नुकसानदेह प्रयोग को छोड़ कर औद्योगिक
नीति में चतुर बदलाव शुरु करने चाहिए ताकि रुपये में गिरावट का दर्द, ग्रोथ
की दवा में बदला जा सके।
भारत
ने निर्यात की ग्लोबल ताकत बनने का सपना कभी नहीं देखा। आर्थिक उदारीकरण के जरिये
भारत ने अपने विशाल देशी बाजार को सामने रखकर निवेश आकर्षित किया जबकि
इसके विपरीत चीन सहित पूर्वी एशिया के देशों ने विदेशी निवेश इस्तेमाल अपने
निर्यात इंजन की गुर्राहट
बढ़ाने में किया। उदारीकरण के बाद भारत ने औद्योगिक उत्पादन
में जो भी बढ़त दर्ज की है उसका अधिकांश हिस्सा देशी बाजार में गया है। सरकार व
कंपनियों के लिए निर्यात हमेशा से एक सहायक गतिविधि रहा है इसलिए प्रोत्साहन भी
कर रियायतों तक ही सीमित रहे। देशी मुद्रा की कमजोरी के जरिये आक्रामक निर्यात की
रणनीति कभी नहीं गढी गई जो पूरब के करिश्मे का बुनियादी मंत्र है। जापान ने 1960
में कमजोर येन की ताकत चमकाई थी और निर्यात में चार गुना बढ़ोत्तरी के साथ सत्तर
के दशक तक दुनिया पर छा गया। दक्षिण कोरिया ने भी यही राह पकड़ी थी। चीन 1980 के
मध्य में कमजोर युआन का दांव चला और एक दशक के भीतर अधिकांश ग्लोबल बाजार मेड इन
चाइना सामानों से पट गया। इनके विपरीत भारत की निर्यात वृद्धि ग्लोबल व्यापार की
ग्रोथ पर निर्भर रही इसलिए मंदी आते ही निर्यात भी टूट गए।
निर्यात
की दिलचस्प दुनिया में घरेलू मुद्रा की कमजोरी सबसे बड़ी ताकत है। ताजा बदलावों
की रोशनी में भारत इस कसौटी पर महाशक्ति बन गया है। निर्यात में बढ़त की पैमाइश
सिर्फ डॉलर के मुकाबले घरेलू मुद्रा की स्थ्िाति से नहीं होती। जीत हार का फैसला
इस पर निर्भर होता है कि बाजार में प्रतिसपर्धी देशों में किसकी मुद्रा कितनी
कमजोर है। इस पैमाने के तहत कमजोर रुपये के साथ भारत अब चीन पर भी भारी है। रुपया
के पिछले छह साल में चीनी युआन की तुलना में 74 फीसद गिरा है जबकि अमेरिकी डॉलर के
मुकाबले गिरावट 38 फीसद है। इसने अनजाने ही ग्लोबल बाजार में ताकत का संतुलन भारत
की तरफ मोड़ दिया है क्यों कि पूर्वी एशिया की किसी मुद्रा के पास कमजोरी की ऐसी
ताकत नहीं है। 2007 के बाद से चीनी युआन मजबूत हुआ है इसलिए ग्लोबल बाजार में अब
भारत के निर्यात चीन के मुकाबले प्रतिर्सपर्धात्मक हो चले हैं।
हालांकि चीन का मैन्युफैक्चर्ड उत्पाद निर्यात भारत का दस गुना है लेकिन
एम्बिट कैपिटल का एक ताजा अध्ययन बताता है कि 2007 के बाद से मैन्युफैक्चरिंग
निर्यात में भारत की ग्रोथ चीन से ज्यादा है। अब जबकि अमेरिकी व यूरोपीय बाजार
मंदी से उबर रहे हैं तो भारत के लिए निर्यात की चमक बिखेरने का मौका आ गया है।
एम्बिट
सहित कई नामचीन विश्लेषण संस्थायें मानती हैं कि फार्मास्यूटिकल, आटो
मोबाइल व पुर्जे, हल्की मशीनरी और सूचना तकनीक सेवायें निर्यात
बाजार में भारत का जयघोष करेंगी क्यों कि कमजोर रुपये के साथ इन क्षेत्रों में
भारत की प्रतिस्पर्धी ताकत बढ़ गई है। सरकार के लिए अब यह पैंतरा बदलने का वक्त
है। रुपये गिरावट थामने के लिए बदहवास व घातक फैसलों के बजाय मैन्युफैक्चरिंग
नीति को फाइलों से निकालना होगा और निर्यात संभावनाओं वाले उद्योगों की ताकत
बढ़ानी होगी। निर्यात को ताजा प्रोत्साहन हाल फिलहाल का सबसे सूझ बूझ भरा कदम
हैं। निर्यात वृद्धि से डॉलरों की आवक में इजाफे होगा और रुपये पर दबाव घटेगा तो
और साथ ही निर्यात उत्पादन बढ़ाने के लिए नया निवेश शुरु होगा।
कमजोर
रुपये से मिलने वाला दर्द अपने चरम पर पहुंच गया है। रुपये की कमजोरी बहुआयामी है, जिसे
थामना मुश्किल है इसलिए गिरावट रोकने की कोशिशें तकलीफ बढ़ा रही है। डॉलर के 45-50
रुपये पर लौटने की कोई उम्मीद नहीं है। 60-65 रुपये का दायर डॉलर नई सचाई है, बाजार
अपने आप रुपये को इस बीच में कहीं टिका देगा। बेहतर यही है कि यदि हम अवमूल्यन के
घाट पर फिसल गए हैं तो अब कायदे से गंगा नहा लेनी चाहिए। जापान, कोरिया
व चीन के तजुर्बे बताते हैं कि कमजोर मुद्रा की टॉनिक तीन से चार साल में असर करती
है अर्थात 2015-16 तक भारत के निर्यात में नई तेजी लौट सकती है जो ग्रोथ, निवेश
व रोजगारों की वापसी का रास्ता खोलेगी। 1991 के संकट ने जिस तरह देश
का आर्थिक का डीएनए बदल दिया था ठीक
उसी तरह मौजूदा मुसीबत में भारत का आर्थिक चोला बदल
छिपा है। मौजूदा संकट नीति निर्माताओं की सूझ बूझ का इम्तहान है क्यों कि संकट
का हर दरवाजा अवसरों के मैदान में खुलता है। भारत के लिए रुपये की कमजोरी को ताकत
में बदलने का मौका अब सामने खड़ा है।
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