परिपक्व लोकतंत्रों में सरकार को बंधक बना लेने वाली सियासत एक नया ही परिदृश्य है।ध्रुवीकरण की राजनीति ने लोकतंत्रों को जहरीला कर दिया है
दुनिया के लिए कौन सा लोकतंत्र बेहतर है, वह जहां
राजनीतिक दलों की शत्रुता के चलते सरकार बंद हो जाती है या फिर वह लोकतंत्र जहां सियासत
की मारी सरकारें काम ही नहीं करती। दुनिया के दो सबसे बड़े दलीय और परिपक्व
लोकतंत्रों में सरकार को बंधक बना लेने वाली सियासत एक नया ही परिदृश्य है। अमेरिका
में संविधान सख्त है तो रिपब्लिकन डेमोक्रेट के झगड़े में सरकार का खर्चा पानी
रुक गया है। भारत में संविधान ढीला है तो सरकारें सिर्फ राजनीतिक एजेंडे साधने में
खर्च हो रही हैं। सरकारों का मतलब, भूमिका और योगदान दोनों जगह नदारद है। अमेरिका
की जनता अपने फैसले पर शर्मिंदा है जबकि भारत के लोग तो चुनाव के बाद हमेशा सर
पीटते हैं।
राष्ट्रपति ओबामा 60 लाख निर्धन अमेरिकियों को
सस्ता स्वास्थय बीमा देना चाहते हैं, इस ओबामाकेयर का बोझ अमेरिकी बजट उठायेगा।
यह भारत में खाद्य सुरक्षा जैसी राजनीतिक पहल है। हालांकि भारत में ऐसा गतिरोध लोकलुभावन
राजनीति पर नहीं बल्कि सुधारों पर
होता है। खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश पर भारत के पक्ष-विपक्ष इसी तरह भिड़े थे। रिपब्लिकन के नियंत्रण वाले निचले अमेरिकी सदन को ओबामाकेयर की लोकलुभावन सियासत पर आपत्ति है जबकि इस स्कीम में कटौती ओबामा को मंजूर नहीं है इसलिए एक अक्टूबर तक बजट पास नहीं हुआ और सरकार वित्तीय पाइप लाइन रुक गई।
होता है। खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश पर भारत के पक्ष-विपक्ष इसी तरह भिड़े थे। रिपब्लिकन के नियंत्रण वाले निचले अमेरिकी सदन को ओबामाकेयर की लोकलुभावन सियासत पर आपत्ति है जबकि इस स्कीम में कटौती ओबामा को मंजूर नहीं है इसलिए एक अक्टूबर तक बजट पास नहीं हुआ और सरकार वित्तीय पाइप लाइन रुक गई।
वित्तीय मामलों में अमेरिकी संविधान बला का सख्त
है। निचले व उच्च सदन में क्रमश: रिपलिब्कन और डेमाक्रेट का बहुमत है इसलिए
सहमति संवैधानिक अनिवार्यता है। बजट तो फंस ही गया है, सरकार के कर्ज लेने की 16.7 खरब की मौजूदा सीमा
को 17 अक्टूबर तक बढ़ाया जाना है। इसलिए यदि गतिरोध बना रहा तो कर्ज पर निर्भर अमेरिकी
अर्थव्यवस्था के पूरी तरह बंद होने का डर है जिससे उपजा संकट ग्लोबल होगा। भारत
में संविधान इतना कठोर नहीं है। लोकतंत्र बहुदलीय है इसलिए सरकारें बंद नहीं
होती, पाला बदल से काम चल जाता है और सरकारें केवल दलीय एजेंडे ढोती हैं।
अमेरिकी नेता डूबने की हद तक जाने के बाद राजी
होने के लिए कुख्यात है इसलिए शायद आखिरी मौके पर कोई सहमति निकल आए लेकिन जिद्दी और झगड़ालू राजनीति
के हाथों अगवा होती सरकारें अब लोकतंत्रों की नियमित समस्या हैं। चुनावों में वोटों
की नापतौल खत्म होने के बाद एक राजनीतिक सहमति ही राज करती है जो किसी भी सरकार
का बुनियादी रसायन है। यह सहमति प्रचंड बहुमत
की सरकारों को तानाशाह होने से रोकती है
और अल्पमत की सरकारों को मतभेदों के बावजूद काम करने की सुविधा देती है। लेकिन दुनिया
के विकसित लोकतंत्रों में सहमति का यह रसायन सूख रहा है और ध्रुवीकरण की राजनीति
इस की जगह ले रही है। 2004 के चुनावों के बाद अमेरिकी मान रहे थे कि दोनों सदनों
में रिपब्लिकन काबिज होंगे जबकि 2008 के चुनाव के बाद यही धारणा डेमोक्रेट को लेकर
बनी इसलिए 2012 के खंडित जनादेश के बाद राजनीतिक
वैर चरम पर पहुंच गया है। भारत में भी 2009 के चुनाव के बाद यही हाल हुआ और इसलिए पिछले
पांच साल में किसी बड़े सुधार पर राजनीतिक सहमति नहीं बनी। राज्यों में यह असहमति
और भी मुखर है इसलिए सरकारें नीतियों में अपनी सियासत घोलती हैं और प्रतिपक्ष विधायिकाओं
में कामकाज रोककर अपनी ताकत दिखाता है।
बराक ओबामा को अमेरिकी राजनीति में ध्रुवीकरण का
चैम्पियन माना जाता है। उनके आने के बाद से अमेरिका की जनता जातीय, जनसांख्यिक और
भौगोलिक रुप से बुरी बंट गई। अमेरिका के एफ्रो एशियाई और प्रवासी ओबामा के साथ हैं
जबकि श्वेत रिपब्लिकन पार्टी के समर्थक हैं। मध्य वर्ग और तटवर्ती इलाके ओबामा के
हैं जबकि मध्य अमेरिका व उच्च्ा वर्ग रिपब्लिकन के साथ है। ठीक इसी तरह भारत में
भी विभाजक सियासत का नया दौर शुरु हो रहा है। राजनीतिक ध्रुवीकरण के नए सूरमा उभर
रहें है जिनकी अगुआई में 2014 का चुनाव, वोटरों के दो टूक बंटवारे की सबसे बड़ी नुमाइश
हो सकता है। ध्रुवीकरण की राजनीति सरकारों में बदले की भावना भर देती है इसलिए व्हाइट
हाउस और तेजी के साथ ओबामाकेयर को लागू करने में जुट गया है, ठीक इसी तरह सत्ता
में आने में बाद भारत के राजनीतिक दल समग्र विकास की अपेक्षाओं को छोड़ अपने चुनावी
एजेंडों पर जुट जाते हैं।
चुनावी होड़ और सरकार चलाने की सहमति दो अलग अलग
पहलू हैं और दशकों से लोकतंत्र दोनों को सफलता के साथ निभाते आए हैं। राष्ट्रपति ओबामा की जिस सस्ती स्वास्थ्य
बीमा स्कीम पर अमेरिकी सियासत बंट गई है वह दरअसल ओबामा के धुर विरोधी रिपब्लिकन
मिट रोमनी के हेल्थकयर रिफॉर्म से निकला है, जिसे रोमनी ने मैसाचुसेट्स के गवर्नर
रहते हुए लागू किया था ओर अमेरिकी जनता ने इसे रोमनीकेयर कहा था। रोमनीकेयर का
ओबामाकेयर बनना स्वाभाविक लोकशाही है ओर सहमति की सियासत का नमूना है लेकिन ध्रुवीकरण
की राजनीति ने लोकतंत्रों को जहरीला कर दिया है। यह राजनीति चुनाव तो जिता देती है
लेकिन बाद में यह नीतियों से चिपक जाती है और सियासी झगड़े सरकारों को विकलांग कर
देते हैं। अमेरिका इस समय जॉर्ज वाशिंगटन को याद कर रहा है जिन्होंने तीसरी बार राष्ट्रपति
बनने का प्रस्ताव ठुकराते हुए 1796 की प्रसिद्ध फेयरवेल स्पीच में कहा था कि राजनीतिक
दलों के बीच बदले की भावना की भरी सियासत एक किस्म की तानाशाही ही है जो जनता की
स्वाधीनता को खत्म कर देती है। रिलपब्लिकन डेमोक्रेट के झगडे में फंसे अमेरिकी
अपनी आजादी को बंधक होता देख रहे हैं। कल यही हालत भारतीयों की भी हो सकती है क्यों
कि आगामी चुनाव ध्रुवीकरण का टूर्नामेंट है और इससे जो भी सरकार निकलेगी उसे एक
बेहद आक्रामक व असहयोगी विपक्ष से निभाना होगा।
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