Monday, November 4, 2013

खर्च की अमावस



 भारत की खर्च लक्ष्‍मी इस बार इतनी रुठी और अनमनी थी कि उपभोक्‍ता खर्च सबसे बड़ा भारतीय उत्‍सव, कंजूसी की अमावस बन कर गुजर गया।

स दीवाली अधिकांश भारतीय जब गणेश लक्ष्‍मी को गुहार रहे थे ठीक उस समय दुनिया की तमाम कंपनियां और निवेशक भारतीयों की खर्च लक्ष्‍मी को मनाने में जुटे थे। इस दीप पर्व पर भारतीय उपभोक्‍ताओं ने जितनी बार जेब टटोल कर खरीद रोकी या असली शॉपिंग को विंडो शॉपिंग में बदल दिया, उतनी बार निवेशकों के दिमाग में यह पटाखा बजा कि आखिर भारतीयों की खरीदारी दिया बाती, गणेश लक्ष्‍मी, खील बताशे से आगे क्‍यों नहीं बढ़ी ? कारपोरेट और निवेश की दुनिया में इस सवाल की गूंज उस धूम धड़ाके से ज्‍यादा जोरदार है जो दीवाली के ऐन पहले शेयरों में रिकार्ड तेजी बन कर नमूदार हुआ था। यह पिछले एक दशक की पहली ऐसी दीपावली थी जब भारतीयों ने सबसे कम खर्च किया। भारी महंगाई व घटती कमाई के कारण भारत की खर्च लक्ष्‍मी इस बार इतनी रुठी और अनमनी थी कि उपभोक्‍ता खर्च सबसे बड़ा भारतीय उत्‍सव, कंजूसी की अमावस बन कर गुजर गया। 
शेयरों में तेजी की ताजा फुलझड़ी तो विेदेशी पूंजी के तात्‍कालिक प्रवाह और भारत में बुरी तरह गिर चुकी शेयरों की कीमत से मिलकर बनी थी जो दीवाली साथ खतम हो गई।  इसलिए पटाखों का धुआं और शेयरों में तेजी की धमक बैठते ही निवेशक वापस भारत में उपभोग खर्च कम होने के सच से
भिड़ गए हैं जिस पर रिजर्व बैंक की ताजा रिपोर्ट ने मुहर लगाई है। 1991 के बाद से समग्र आर्थिक विकास दर में उठा पटक के बावजूद उपभोग खर्च में लगातार बढ़त बनी रही जिससे बडे पैमाने पर निवेश का रास्‍ता खुला था। आंकडे गवाह हैं कि आम लोगों ने अपने छोटे छोटे खर्च के बूते पिछले एक दशक में मांग का झंडा बुलंद रखा है। भारत के जीडीपी में करीब 57 फीसद के हिस्‍से के साथ साबुन तेल मंजन, कपडों से लेकर टीवी, फ्रिज, बाइक, कार  आदि पर होने वाला निजी उपभोग खर्च ही बाजार में मांग का बुनियादी कारक है।
जीडीपी व उपभोग खर्च के आंकडे बताते हैं भारत के सवा सौ करोड़ लोग ग्रोथ की पालकी अपने कंधे पर लेकर चल रहे थे। खपत खर्च ने 2007 से दुलकी चाल पकडी थी और 2012 तक यह 8 से 9 फीसद की गति से बढ़ा, जो जीडीपी दर के कमोबेश बराबर थी। ब्‍याज दरों में कमी, छठे वेतन आयोग की सिफारिशों पर अमल, नई नौकरियों की आमद व आय बढने ने इसमें मदद की थी। 2012 में जब‍ जीडीपी 6.2 फीसद पर लुढ़क गया तब भी उपभोग खर्च 8 फीसद की बढ़त के साथ सहारा देता रहा। 2013 में यह बढत दर घटकर चार फीसद पर आ गई है  जो अब दो फीसदी गर्त की तरफ मुखातिब है।
उपभोक्‍ता बाजार की तस्‍वीर  दिलचस्‍प रुप से जटिल हो रही है। व्‍यापक उपभोक्‍ता आधार वाली कंपनियां, इस दीपावली, सर पकडे बैठी थीं जबकि कुछ हजार ग्राहकों वाले प्रीमियम उत्‍पाद निर्माता ग्रोथ दर्ज कर रहे थे। छोटी कारों, बाइक, मझोली दरों के इलेक्‍ट्रानिकस को ग्राहक नहीं मिले। थोक बिक्री 15 से 50 फीसद तक कम रही लेकिन 25 लाख से ऊपर की कारों और महंगे आयातित इलेक्‍ट्रानिक्‍स की मांग जोरदार थी जो वस्‍तुत : काली कमाई से प्रेरित उपभोग खर्च से निकलती है। दूसरी तरफ शानदार मानसून के बावजूद खाद्य उत्‍पादों की कीमतें शिखर पर थीं लेकिन ससते आयात के सहारे गैर खाद्य सामानों की कीमतों में गहरी प्रतिस्‍पर्धा थी।
बाजार के साथ उपभोग खर्च ढांचे में भी कम पेंच नहीं हैं। अकुशल श्रमिकों की कमी के कारण निचले आय वर्गों में कमाई और मनरेगा के कारण दैनिक मजदूरी उल्‍लेखनीय रुप से बढ़ी है। इस ने निचले सामाजिक आर्थिक तबकों व ग्रामीण मांग में इजाफा तो किया लेकिन कंपनियां इस वर्ग की खर्च क्षमता के लायक उत्‍पादों के साथ तैयार नहीं थीं। कंपनियां तो नौकरीपेशा शहरी मध्‍य वर्ग के सहारे थीं जो कर्ज लेकर खरीद से भी नहीं हिचकते। इस वर्ग को वेतन में कटौती, महंगे कर्ज और भारी महंगाई ने दबोच लिया। इसलिए बडे पैमाने पर मांग का नेतृत्‍व करने वाला विशाल मध्‍य वर्ग ही बाजार बाहर से हो गया। निचले तबके की आय बढ़ना अचछा है लेकिन इस वर्ग के पास बिजली आवास जैसी बुनियादी सुविधाओं की आपूर्ति नहीं है इसलिए उपभोक्‍ता उत्‍पाद बाजार को इसका लाभ नहीं मिला। इस वर्ग की अतिरिक्‍त आय ने खाद्य उत्‍पादों की मांग व महंगाई को उछाल दिया।  
उदारीकरण के बाद विदेशी निवेशकों व कंपनियों के काफिले भारत में इसलिए नहीं उतरे कि यहां की  सियासत में सुर्खाब के पर उग आए थे या फिर  भारत का बुनियादी ढांचा ग्‍लोबल स्‍तर का हो गया था। यह तो सवा अरब लोगों का बाजार और उनका खपत खर्च का बूता था जिसकी ताकत ने एक पिछड़ी अर्थव्‍यवस्‍था को उभरते बाजार में बदल दिया। इस दीपावली बिसूरती कार कंपनियां, चिढ़ते इलेक्‍ट्रानिक्‍स निर्माता और झुंझलाते उपभोक्‍ता उत्‍पाद वाले यह बता रहे हैं कि भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था का यह बुनियादी आकर्षण धूमिल पड़ रहा है। निजी क्षेत्र गहरे असमंजस में है, खर्च कम करने के लिए उसने अपने पैरों पर कुल्‍हाड़ी मार ली। उसकी कंजूसी का निशाना वही लोग और क्षेत्र बने हैं जिनका खर्च मांग बढाता था। दूसरी तरफ फालतू की स्‍कीमों पर सरकार का खर्च बढ़ गया है, जिससे बुनियादी सुविधायें तो नहीं सुधरीं अलबत्‍ता  घाटा बढ़ गया है। तीसरी तरफ काले धन के असर ने जमीनों की कीमतें बेतहाशा बढाकर विकास की लागत बढा दी है। बचा हुआ काम देशी व आयातित महंगाई ने किया। उपभोग खर्च अर्थव्‍यवस्‍था में ताकत का स्‍थायी और दीर्घकालिक कारक है इसलिए ग्रोथ की ऊंच नीच व सुधारों की सर्दी गरमी के बावजूद 125 करोड़ लोगों के खपत खर्च की कहानी में निवेशकों का भरोसा हमेशा से कायम रहा है लेकिन इस बार खर्च सिकुड़ने का अंधेरा, दियों के तले से निकल कर इस कदर सामने आया है कि यह दीपावली बहुतों के दिमाग में चेतावनी के पटाखे सुलगा गई है।  

2 comments:

Unknown said...

Very-very nice article sir as always...
It's your quality that you always put commen's men touching point and today too you put very heart touching point...
Really very-very nice...

Amrish yash said...

Is Growth and inflation integral part of a emerging economy?