“मगध में शोर है कि मगध में
शासक नहीं रहे, जो थे वे मदिरा, प्रमाद और आलस्य के कारण इस लायक नहीं रहे कि हम
उन्हें अपना शासक कह सकें।”
जब बंधे बंधायें विकल्पों के बीच चुनाव को बदलाव
मान लिया जाता है, तब परिवर्तन को एक नए मतलब की जरुरत होती है। नए रास्तों की
खोज भी तब ही शुरु होती है जब मंजिल अपनी जगह बदल लेती है और एक वक्त के बाद
सुधार भी तो सुधार मांगने लगते हैं। लेकिन परिवर्तन, सुधार और विकल्प जैसे घिसे पिटे
शब्दों को नए सक्रिय अर्थों से भरने के लिए जिंदा कौमें को एक जानदार संक्रमण से
गुजरना होता है। ऊबता, झुंझलाता, चिढ़ता, सड़कों पर उतरता, बहसों में उलझता भारत पिछले
पांच वर्ष से यही संक्रमण जी रहा है। यह जिद्दोजहद उन तीसरे रास्तों की तलाश ही है, जो राजनीति,
समाज व अर्थनीति की दकियानूसी राहों से अलग बदलाव की दूरगामी उम्मीदें जगा सकें। इस
बेचैन सफर ने 2013 के अंत में उम्मीद की कुछ रोशनियां पैदा कर दी हैं। दिल्ली
में एक अलग तरह की सरकार राजनीति में तीसरे रास्ते का छोटा सा आगाज है। स्वयंसेवी
संस्थाओं व अदालतों की जुगलबंदी न्याय का नया दरवाजा खोल रही है और नियामक संस्थाओं की नई पीढ़ी
रुढि़वादी सरकार व बेलगाम बाजार के बीच संतुलन व गवर्नेंस का तीसरा विकल्प हैं। इन
प्रयोगों के साथ भारत
का संक्रमण नए अर्थों की रोशनी से जगमगा उठा है।
किसे अनुमान थी कि आर्थिक-राजनीतिक भ्रष्टाचार
से लड़ते हुए एक नई पार्टी सत्ता तक पहुंच जाएगी। यहां तो किसी राजनीतिक दल के चुनाव घोषणापत्र में भ्रष्टाचार
मिटाने रणनीति कभी नहीं लिखी गई। पारदर्शिता तो विशेषाधिकारों का स्वर्ग उजाड़
देती है इसलिए 2011
की संसदीय बहस में पूरी सियासत एक मुश्त लोकपाल को बिसूर रही थी। लेकिन दिल्ली
के जनादेश की एक घुड़की
के बाद दिसंबर 2013 में वही लोकपाल संसद को पार गया और एक जागरुक देश ने जिद्दी व रुढि़वादी सियासत को खुद पर अदालत व मीडिया के बाद तीसरा पहरुआ बिठाने पर मजबूर कर दिया।
के बाद दिसंबर 2013 में वही लोकपाल संसद को पार गया और एक जागरुक देश ने जिद्दी व रुढि़वादी सियासत को खुद पर अदालत व मीडिया के बाद तीसरा पहरुआ बिठाने पर मजबूर कर दिया।
भ्रष्टाचार सबसे मानवाधिकारों का संगठित
उल्लंघन है। यह गरीबों का हक मारता है और विकास रोकता है। पारदर्शिता की लड़ाई, गुलामी से जंग के मुकाबले ज्यादा कठिन है। इसमें
अपनी ही व्यवस्था के खिलाफ अपने ही लोग लड़ते हैं और सरकारें संवैधानिक ताकत का बेजा इस्तेमाल करती हैं। चीन
के राष्ट्रपति शी चिनिफिंग ने कहा था भ्रष्टाचार बर्बाद कर देगा लेकिन एक साल
में वह कुछ ठोस नहीं कर सके। भ्रष्टाचार से बेजार, ब्राजील, रुस व दक्षिण अफ्रीका
भी कोई रास्ता नहीं निकाल पाए हैं। अलबत्ता दुनिया के देश हम पर रश्क कर रहे हैं
कि हम सबसे पहले जाग गए और जब जाग ही गए तो हैं तो अब दोबारा सोने का कोई मतलब
नहीं है।
हम तो यह मानते थे कि
समझदारी का सागर सिर्फ राजनीतिक दलों के पास है। लेकिन जनता से
चंदा लेकर चुनाव लड़ने की सूझ किसी पार्टी के मंच से नहीं उठी। चुनाव काले धन का
उत्सव बन गए और अपराधी राजनीति गठजोड़ जिताऊ फार्मूला हो गया। बदलाव के रास्ते तो
उस शिक्षित मध्य वर्ग ने खोले जो जन पहरुओं अर्थात स्वयंसेवी संगठनों की नई पीढ़ी
को सामने लाया। जनहित याचिकाओं की शुरुआत अस्सी के दशक में हो गई थी लेकिन इनका
सबसे प्रभावी इस्तेमाल पिछले वर्षों में हुआ और बदलाव की एक नई जंग सड़कों पर नहीं
बल्कि अदालतों में लड़ी गई। सिविल सोसाइटी और सक्रिय अदालतें भारत में न्याय व
समानता का तीसरा कोण हैं। चुनाव सुधार, जन कल्याण और भ्रष्टाचार के खिलाफ बड़े फैसले
इस जुगलबंदी से निकले हैं। यह मुहिम अब राज्यों में पहुंच रही है।
जनपहरुओं
ने आर्थिक प्रगति की तस्वीरों में भी जन अधिकारों के चेहरे उकेरने शुरु किये हैं। वेदांत, पोस्को, लाफार्ज
जैसे मामले स्वयंसेवी संगठनों के जरिये अदालतों तक गए और सकारें कदम उठाने पर
बाध्य हुईं। सरकारों व कंपनियों पर नई जनपहरेदारी कई मामलों में बड़े काम की साबित
हुई है। पोर्तो अलेग्री (ब्राजील) के वर्ल्ड
सोशल फोरम में दुनिया भर के स्वयंसेवी संगठन 2001
में जब पहली बार जुटे थे तब इन संगठनों से ऐसी क्रांति
की उम्मीद नहीं थी लेकिन दुनिया को चौंकाते हुए भारत स्वयंसेवी संगठनों के जरिये
बदलाव की बड़ी ग्लोबल नजीर बन गया है।
बदलाव की इन हवाओं के बीच भारत में
गवर्नेंस का एक खामोश हस्तांतरण भी शुरु हो चुका है। नेता व नौकरशाही
के बीच बंटी सत्ता में स्वतंत्र
नियामक यानी रेगुलेटर्स तीसरी
ताकत हैं। नियामक संस्कृति नब्बे के दशक में उड़ीसा के बिजली
सुधारों के जरिये आई थी, जिसे पिछले वर्षों में गति मिली है। रियल एस्टेट व कोयला, दूरसंचार
व प्रसारण, बिजली, बीमा, पेंशन, पेट्रोलियम, बंदरगाह, एयरपोर्ट, कमॉडिटी, फार्मास्यूटिकल व पर्यावरण क्षेत्रों
में ताकतवर नियामक बैठ चुके हैं। दिग्गज कंपनियों को सजा देते और सरकारों पर सख्ती
करते यह नए सुल्तान गवर्नेंस में रोमांच भर रहे हैं और मंत्रालयों का दबदबा तोड़ रहे
हैं। आर्थिक सुधार, विकास, बाजार, विनिमयन के भावी फैसले, बहसें व विवाद इन नियामकों के इर्द
गिर्द ही केंद्रित होने वाले हैं जिनमें राजनीति को अपनी जगह तलाशनी होगी। यह गवर्नेंस
का अनोखा पीढ़ी परिवर्तन है।
श्रीकांत वर्मा की कविता की प्रसिद्ध पंक्ति है
कि “मित्रों, एक तीसरा
रास्ता भी है मगर वह मगध, अवंती, कोसल या विदर्भ होकर नहीं जाता” भारतीय
समाज पिछले कुछ वर्षों से लगभग उन तीसरे रास्तों
की तलाश में हैं जो सियासत के पारंपरिक मागधों, कोसलों से अलग हैं क्यों कि “मगध में शासक नहीं रहे, जो थे वे मदिरा,
प्रमाद और आलस्य के कारण इस लायक नहीं रहे कि हम उन्हें अपना शासक कह सकें।” -- भारत ने पिछले आधे दशक में जो बदलाव ईजाद
किये हैं, वह छोटी शुरुआतें ही हैं। लेकिन लोकतंत्र में शुरुआत छोटी ही होती है, बड़े
बदलाव तो तानाशाही में होते हैं। दुनिया के अन्य लोकतंत्र जब नई सूझ के मामले में
ठहरे और बुझे हुए हैं तब राजनीति, न्याय और अर्थव्यवस्था में इन तीसरे रास्तों
के जरिये भारतीय लोकतंत्र दुनिया में सबसे जीवंत, सक्रिय और आधुनिक नजर आने लगा
है।
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