वाजपेयी की गवर्नेंस की रोशनी में मोदी सरकार को परखना, कीमती निष्कर्ष उपलब्ध कराता है.
वह
अक्तूबर 1998
की दोपहर थी. वाजपेयी
सरकार की दूसरी
पारी को कुछ
महीने बीते थे और मेल-मोबाइल से परे उस दौर में सरकार की रणनीति के सूत्रधार प्रमोद
महाजन से मिलने के लिए अशोक रोड के बीजेपी दफ्तर में बाट जोहने के अलावा कोई विकल्प
नहीं था. कमरे में घुसते ही महाजन मुस्कराए, टेलीकॉम! मैंने तुरंत सवाल दागा कि लाइसेंसों का क्या
होगा?
महाजन ने कुछ
सोचते हुए कहा,
''नई दूरसंचार
नीति लाएंगे और क्या?” दूरसंचार के उदारीकरण को पहले दिन से रिपोर्ट
कर रहे मेरे जैसे पत्रकार के लिए महाजन की टिप्पणी, सनसनीखेज से कम कुछ भी नहीं थी. नेशनल टेलीकॉम पॉलिसी (1994) को सिर्फ चार साल बीते थे.
टेलीकॉम क्षेत्र विवादों का एक्सचेंज बन गया था. ऊंची बोली लगाकर बुरी तरह
फंस चुकी कंपनियां लाइसेंस फीस देने की स्थिति में नहीं थीं. इस बीच केंद्र
में तीन सरकारें गुजर चुकी थीं और वाजपेयी सरकार की दूसरी पारी में भी दो संचार मंत्री
(बूटा सिंह और सुषमा स्वराज) रुखसत हो चुके थे. संचार मंत्रालय
तब प्रधानमंत्री के पास था और महाजन उनके सलाहकार थे. मैंने महाजन से पूछा कि अभी तो पिछली
नीति ही
लागू नहीं हुई है? उन्होंने कहा, ''वाजपेयी जी चाहते हैं विवादों
का कीचड़
साफ करने के लिए
नई नीति बनाई जाए. हम बजट तक इसे ले आएंगे.” मार्च,1999 में नई दूरसंचार नीति लागू हो गई और उसके
बाद भारत की टेलीकॉम क्रांति दुनिया के लिए अध्ययन का सबब बन गई.
वाजपेयी की गवर्नेंस
की रोशनी
में मोदी सरकार
को परखना,
कीमती निष्कर्ष
उपलब्ध कराता है. दूरसंचार निजीकरण के पहले दौर (1995) में लाइसेंसों के लिए ऊंची बोली लगाना
कंपनियों
की गलती थी. लेकिन
गठजोड़ की सरकार के लिए अस्थिर राजनैतिक माहौल में इस फैसले को पलटना, लाइसेंस फीस माफ करना और नई नीति
लाना सियासी जोखिम का चरम था क्योंकि 50,000 करोड़ रु. के घोटाले (लाइसेंस फीस माफी)
के आरोप सरकार
का इंतजार कर
रहे थे.
तत्कालीन वित्त
मंत्री यशवंत सिन्हा ने अपनी किताब कन्फेशंस ऑफ अ स्वदेशी रिफॉर्मर में स्वीकार किया
कि ''यह फैसला नैतिक रूप से कठिन था.” यह संवेदनशील फैसला सिर्फ वाजपेयी
के राजनैतिक साहस
से निकला था कि
दूरसंचार क्षेत्र में तरक्की के लिए कंपनियों का 'बेल आउट’ जरूरी है. यह फैसला न सिर्फ संसद
और अदालत में सही साबित हुआ बल्कि करोड़ों हाथों में मौजूद मोबाइल फोन आज भी इसकी तस्दीक
करते हैं.
राजनैतिक साहस का इम्तिहान चुनाव नहीं, सरकारें लेती हैं, जब संकट प्रबंधन की चुनौती मेज पर होती है. मोदी
सरकार को दो संकट विरासत में मिले. एक कोयला और प्राकृतिक संसाधनों का प्रबंधन
और दूसरा डूबते कर्ज से दबे बैंक. इन दोनों को ठीक किए बिना ग्रोथ और नई नौकरियां नामुमकिन
हैं. इन संकटों के
समाधान के जरिए
प्राकृतिक संसाधनों के आवंटन और बैंकिंग में दूरदर्शी बदलाव हो सकते हैं, जो टेलीकॉम में हुआ था.
कोयला खदानों का
आवंटन रद्द
हुए चार माह बीत
रहे हैं. हमारे पास सिर्फ एक कामचलाऊ फैसला है जिसके जरिए रद्द की गई खदानें अगले साल मार्च
तक आवंटित हो जाएं तो बड़ी बात होगी. समग्र खनन सुधार चर्चा में नहीं है और सड़ती बैंकिंग
पर जन-धन का पोस्टर लगा दिया गया है. वाजपेयी के पास मोदी जैसा संख्या बल नहीं
था. तेरह माह
बाद अप्रैल, 1999 में जयललिता ने समर्थन खींचकर
सरकार को कार्यवाहक बना दिया लेकिन नई दूरसंचार नीति सिर्फ तीन माह (दिसंबर,1998-मार्च,1999) में बन गई. एक कमजोर सरकार में गवर्नेंस
की यह साहसी रफ्तार हर तरह से अनोखी थी.
सरकारें, सूझ-बूझ, दूरदर्शिता और कालजयी फैसलों
से परखी जाती
हैं. आर्थिक सुधारों
के सूत्रधार डॉ. मनमोहन सिंह के दस साल और नरेंद्र मोदी के छह माह देखने के बाद
ऐसा लगता है कि वाजपेयी सरकार मानो, दूरदर्शिता के शून्य से भरे अगले दस साल और छह माह के लिए
ही नीतियों का
ईंधन जुटा रही थी.
घाटे नियंत्रित करने वाला बजट मैनेजमेंट कानून, कम्पीटिशन कानून, स्वदेशी के आग्रहों को नकार कर डब्ल्यूटीओ नियमों के
तहत
भारतीय बाजार
के दरवाजे खोलना,
सरकारी
उपक्रमों का सबसे बड़ा निजीकरण, फेरा की समाप्ति और नया कानून, पेट्रोलियम सुधार, सड़क परियोजनाएं, कंपनियों को विदेशी कर्ज की छूट, दूरसंचार और सूचना तकनीक सेवाओं
में सिलसिलेवार
उदारीकरण...साहस
और सूझ-बूझ की फेहरिस्त वाकई बड़ी लंबी है.
गठजोड़ की सरकार में वाजपेयी इतना कुछ
कैसे कर सके?
शायद इसलिए कि उनके
पास
गवर्नेंस के लक्ष्यों
का रोड मैप था और दंभ रहित,
जिंदादिल और
ठहाकेबाज
वाजपेयी ने
अपने मंत्रियों को दूर की सोचने तथा फैसले करने की छूट दी थी. जबरदस्त बहुमत वाली मोदी सरकार
में इन दोनों की कमी बुरी तरह खलती है. वाजपेयी ऐसा इसलिए भी कर सके क्योंकि
उन्होंने प्रचार के कंगूरे नहीं बल्कि गवर्नेंस की बुनियाद गढ़ी थी. चुनाव तब भी होते थे.
अलबत्ता वाजपेयी
गवर्नेंस के
लिए राजनीति कर रहे थे,
राजनीति के लिए
गवर्नेंस नहीं.
एक वरिष्ठ उद्योगपति ने मई में चुनाव
नतीजों के बाद मुझसे कहा था कि वाजपेयी सरकार ने पांच साल में जितना काम
किया,
अगर मोदी उसका 30 फीसदी भी कर दें तो देश की ग्रोथ को 15 साल का ईंधन मिल जाएगा. अपनी
तीसरी पारी के पहले स्वाधीनता दिवस (2000) पर लाल किले से वाजपेयी ने आह्वान किया
था कि भारत
को अगले एक दशक
में अपनी प्रति व्यक्ति आय दोगुनी करनी होगी. 2007-08 में यह
लक्ष्य हासिल हो गया. महंगाई को निकाल दें तो भी प्रति व्यक्ति आय 50 फीसदी बढ़ी है जो 125 करोड़ की आबादी के लिए छोटी बात
नहीं है. क्या
नरेंद्र मोदी के
पहले छह महीनों से यह भरोसा मिलता है कि अगले एक दशक में यह करिश्मा दोहराया जाएगा? प्रचार भरे छह माह के साथ मोदी
सरकार के
कार्यकाल का दस
फीसदी हिस्सा गुजर गया है लेकिन सरकार में वह हिम्मत, सूझ और दूरदर्शिता अब तक नदारद है
जो वाजपेयी सरकार के पहले हफ्तों में ही नजर आ गई थी.
2 comments:
What a grounded comparison is this. Anshuman sir, great and really amazing right up. People should know about this. Hundred out of hundred sir.
नमस्कार भैया..
सच बताऊं जब मै जागरण में था तब आपका प्रत्येक सोमवार को अर्थार्थ स्तम्भ आता था.. उसे मैंने कभी नहीं पढ़ा..हाल ही में इण्डिया टुडे का पुराना अंक हाथ लग गया...इसमें यही लेख सामने दिखा..एक बार के बाद कई बार पढ़ा..क्या शब्द पिरोये हैं आपने..इस आलेख को पढने के बाद मैंने गूगल पर आपका नाम टाइप किया तो आपका ब्लॉग का विकल्प सामने आगया....सभी लेख शानदार...
Post a Comment