पैसे के बाद अगर कोई दूसरी चीज राजनीति के साथ गहराई तक गुंथी है, तो वह नेताओं के झूठ व बड़बोलापन है. चुनावों की प्रतिस्पर्धी राजनीति में दूरदर्शिता और दूर की कौड़ी के बीच विभाजक रेखा पतली है. नेता अक्सर इसे लांघ कर चांद-तारे बांटने लगते हैं
विदेश में जमा काला धन वापस लाने के वादे पर मोदी सरकार की किरकिरी को समझने के लिए खोजी
पत्रकार होने की जरूरत नहीं है. कोई भी सर्च इंजन, एक क्लिक पर आपके सामने मोदी के चुनावी भाषणों के दर्जनों वीडियो उगल देगा, जो यह बताते हैं कि काले धन पर तब
क्या-क्या कहा गया था और अब क्या फरमाया जा रहा है? गूगल की थोड़ी-सी मदद से अब, नेताओं के झूठ, अर्धसत्य व कुछ भी बोल देने के नमूनों का पिटारा खुल जाता है और
सियासत कुछ ज्यादा ही खोखली नजर आने लगती है. राजनीति ही इकलौता पेशा है जिसमें
झूठ बोलना, वादे करना और मुकर जाना, कानूनी तौर पर मान्य है. इसलिए अगर तकनीक की मदद न आती तो, सियासत के झूठे सचों पर लगाम के बारे में सोचना भी मुश्किल था. तकनीक, शोध और खोजी पत्रकारिता ने, अमेरिका में सियासी भाषणों और बयानों के झूठ उघाड़कर नेताओं को
शर्मिंदा करने का अभियान एक दशक पहले ही शुरू कर दिया था. भारत में नेताओं के मनमाने बयानों की तासीर परखने
का प्रचलन इसलिए
जड़ें नहीं पकड़ पाया क्योंकि इस हमाम में कपड़े न पहनने की रवायत सभी सियासी दलों ने मिलकर बनाई
है. लेकिन अब मौका भी है और साधन भी, जिनके जरिए भारत में भी नेताओं के लिए कुछ भी बोल-बताकर बच निकलने के रास्ते बंद किए जाने चाहिए.
‘‘धोखा देने और झूठ बोलने के मामले में अव्वल कौन है? मोअम्मर गद्दाफी, होस्नी मुबारक, सद्दाम हुसैन जैसे तानाशाह या जिमी कार्टर, जॉर्ज डब्ल्यू. बुश या बराक ओबामा जैसे लोकतांत्रिक दिग्गज?’’
‘‘धोखा देने और झूठ बोलने के मामले में अव्वल कौन है? मोअम्मर गद्दाफी, होस्नी मुबारक, सद्दाम हुसैन जैसे तानाशाह या जिमी कार्टर, जॉर्ज डब्ल्यू. बुश या बराक ओबामा जैसे लोकतांत्रिक दिग्गज?’’
वाशिंगटन पोस्ट ने यह सवाल, अप्रैल 2011 में एक किताब की समीक्षा में पूछा था. किताब थी व्हाइ लीडर्स लाइ? ट्रूथ अबाउट लाइंग इन इंटरनेशनल पॉलिटिक्स (नेता झूठ क्यों बोलते हैं? अंतरराष्ट्रीय राजनीति में झूठ का सच) शिकागो यूनिवर्सिटी के प्रो. जॉन
जे. मर्शेइमर की यह दिलचस्प और अनोखी पुस्तक मानती है कि गलतबयानी करने में लोकतांत्रिक नेता, तानाशाहों से कहीं आगे हैं. राजनीति और खास तौर पर चुनावी
सियासत में कुछ भी कह देना या आसमान के सितारे तोडऩे छाप वादे करना गैर-कानूनी नहीं हैं, इसलिए नेताओं के झूठ सियासत का स्वभाव बन गए हैं. बड़े
और प्रभावशाली झूठ के उदाहरण जुटाते हुए मर्शेइमर की किताब यह भी बताती है कि नेताओं के झूठ की एक नहीं, कई किस्में हो सकती हैं. ग्रीस (यूनान) का हाल बताता है कि नेताओं के झूठ कितने महंगे पड़ते हैं. ग्रीस ने
यूरोपीय संघ का हिस्सा बनने के लिए अपने बजट घाटों को छिपाया और बाद में पूरा देश ही दिवालिया हो गया.
यही वजह है कि जैसे ही बयानों व दस्तावेजों को संजोने और वापस तलाशने की
तकनीक हाथ आई, दुनिया के कई देशों में जनता नेताई वचनों का सच जांचने के लिए उतावली हो उठी. पिछले कुछ वर्षों में अमेरिका
में सियासी बयानों की फैक्ट चेकिंग एक अभियान बन गई है. अखबारों से लेकर स्वयंसेवी संस्थाएं तक फैक्ट
चेकर और ट्रुथ-ओ-मीटर पर सियासी बयानों की सच्चाई नापती हैं, चुनावी वादों का क्रियान्यावन परखती हैं और भाषणों व
वादों को ‘‘सफेद झूठ’’, ‘‘आधा सच’’ और ‘‘सच’’ जैसी रेटिंग देती हैं. अमेरिका में चुनावी विज्ञापनों को रोकने पर मजेदार कानूनी लड़ाई शुरू हो चुकी है.
चुनावी बयानबाजी के पैरोकार नेताओं के बड़बोले भाषणों को अभिव्यक्ति की आजादी से जोड़ रहे हैं जबकि विरोधी
इसे जनता के साथ
धोखा मानते हैं.
चुनावों की प्रतिस्पर्धी राजनीति में दूरदर्शिता और दूर की कौड़ी के बीच विभाजक रेखा पतली है. नेता अक्सर इसे लांघ जाते हैं और चांद-तारे तोड़कर बांटने लगते हैं. भारत की सियासत ने भी गरीबी हटाने व हर हाथ को काम जैसे सपने बांटे हैं, तल्ख, धीमी व कठिन गवर्नेंस ने जिन्हें हमेशा झूठा साबित कर दिया है क्योंकि मौजूदा शहरों का इंतजाम ठीक करते हुए ही स्मार्ट सिटी का प्रयोग हो सकता है, ट्रेनों का सुरक्षित चलना तय करने के साथ बुलेट ट्रेन सोची जा सकती है, कमाई का स्तर बढ़ाकर सबके सिर पर छत का सपना संजोया जा सकता है. फिर भी शुक्र है कि भारत दुनिया के उन चुनिंदा देशों में है जहां लोग लोकतंत्र और उसकी संस्थाओं में भरोसा करते हैं. विज्ञापन एजेंसी एडलमैन का ग्लोबल ट्रस्ट सर्वे इस साल जनवरी में आया था जो बिजनेस, सरकार, मीडिया और स्वयंसेवी संस्थाओं पर, सजग लोगों के भरोसे की पैमाइश करता है. यह सर्वे भारत को उन पांच शीर्ष देशों में रखता है, जो विश्वास से भरपूर हैं, अलबत्ता सरकार पर भरोसा घटने के कारण भारत 2014 में इस रैंकिंग में तीसरे से पांचवें स्थान पर खिसक गया है. सरकार पर विश्वास में यह कमी नेताओं के बड़बोलेपन से उपजी है. चुनाव अभियानों के वादे ढहने से पहले केवल एक निराशा फैलती थी लेकिन अब पढ़ा-लिखा समाज के वादे पूरे न होने के बाद इनके पीछे के षड्यंत्र तलाशता है, ऊबता है और संदेह से भर उठता है. पैसे के बाद अगर कोई दूसरी चीज राजनीति के साथ गहराई तक गुंथी है, तो वह नेताओं के झूठ व बड़बोलापन है. इस झूठ की वजहें खंगालने वाले मर्शेइमर का दिलचस्प निष्कर्ष है कि नेता आपस में एक-दूसरे से उतना झूठ नहीं बोलते जितना कि वे जनता से बोलते हैं. ये झूठ बड़े मिथकों, तरह-तरह के वादों (लिबरल लाइज) और खौफ फैलाने के तरीकों में लपेटे जाते हैं और चुनावों में इनका भरपूर इस्तेमाल होता है. भारत का ताजा लोकसभा चुनाव भी इससे अलग नहीं था. यह चुनाव वादों, घोषणाओं और अपेक्षाओं का सबसे मुखर उत्सव तो था ही लेकिन किस्मत से इस बार तकनीक हर कदम पर साथ थी, अब यही तकनीक हमारे दुलारे नेताओं को उनके बोल-वचन दुरुस्त करने पर मजबूर करेगी. क्योंकि नेता इस चुनाव में जिस आधुनिक समाज से मुखातिब थे वह ठगे जाने के एहसास से सबसे ज्यादा चिढ़ता है.
चुनावों की प्रतिस्पर्धी राजनीति में दूरदर्शिता और दूर की कौड़ी के बीच विभाजक रेखा पतली है. नेता अक्सर इसे लांघ जाते हैं और चांद-तारे तोड़कर बांटने लगते हैं. भारत की सियासत ने भी गरीबी हटाने व हर हाथ को काम जैसे सपने बांटे हैं, तल्ख, धीमी व कठिन गवर्नेंस ने जिन्हें हमेशा झूठा साबित कर दिया है क्योंकि मौजूदा शहरों का इंतजाम ठीक करते हुए ही स्मार्ट सिटी का प्रयोग हो सकता है, ट्रेनों का सुरक्षित चलना तय करने के साथ बुलेट ट्रेन सोची जा सकती है, कमाई का स्तर बढ़ाकर सबके सिर पर छत का सपना संजोया जा सकता है. फिर भी शुक्र है कि भारत दुनिया के उन चुनिंदा देशों में है जहां लोग लोकतंत्र और उसकी संस्थाओं में भरोसा करते हैं. विज्ञापन एजेंसी एडलमैन का ग्लोबल ट्रस्ट सर्वे इस साल जनवरी में आया था जो बिजनेस, सरकार, मीडिया और स्वयंसेवी संस्थाओं पर, सजग लोगों के भरोसे की पैमाइश करता है. यह सर्वे भारत को उन पांच शीर्ष देशों में रखता है, जो विश्वास से भरपूर हैं, अलबत्ता सरकार पर भरोसा घटने के कारण भारत 2014 में इस रैंकिंग में तीसरे से पांचवें स्थान पर खिसक गया है. सरकार पर विश्वास में यह कमी नेताओं के बड़बोलेपन से उपजी है. चुनाव अभियानों के वादे ढहने से पहले केवल एक निराशा फैलती थी लेकिन अब पढ़ा-लिखा समाज के वादे पूरे न होने के बाद इनके पीछे के षड्यंत्र तलाशता है, ऊबता है और संदेह से भर उठता है. पैसे के बाद अगर कोई दूसरी चीज राजनीति के साथ गहराई तक गुंथी है, तो वह नेताओं के झूठ व बड़बोलापन है. इस झूठ की वजहें खंगालने वाले मर्शेइमर का दिलचस्प निष्कर्ष है कि नेता आपस में एक-दूसरे से उतना झूठ नहीं बोलते जितना कि वे जनता से बोलते हैं. ये झूठ बड़े मिथकों, तरह-तरह के वादों (लिबरल लाइज) और खौफ फैलाने के तरीकों में लपेटे जाते हैं और चुनावों में इनका भरपूर इस्तेमाल होता है. भारत का ताजा लोकसभा चुनाव भी इससे अलग नहीं था. यह चुनाव वादों, घोषणाओं और अपेक्षाओं का सबसे मुखर उत्सव तो था ही लेकिन किस्मत से इस बार तकनीक हर कदम पर साथ थी, अब यही तकनीक हमारे दुलारे नेताओं को उनके बोल-वचन दुरुस्त करने पर मजबूर करेगी. क्योंकि नेता इस चुनाव में जिस आधुनिक समाज से मुखातिब थे वह ठगे जाने के एहसास से सबसे ज्यादा चिढ़ता है.
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