Tuesday, April 7, 2015

मौके जो चूक गए

मोदी और केजरीवाल दोनों ही तल्ख हकीकत की एक जैसी जमीन पर खड़े हैं. अपेक्षाओं का ज्वार नीचे आया है. नेताओं को महामानव और मसीहा बनाने की कोशिशों पर विराम लगा है.

भारतीय जनता पार्टी में लोकसभा चुनाव से पहले जो घटा था वैसा ही आम आदमी पार्टी में दिल्ली चुनाव के बाद हुआ. फर्क सिर्फ यह था कि आडवाणी के आंसू, सुषमा स्वराज की कुंठा, वरिष्ठ नेताओं का हाशिया प्रवास मर्यादित और शालीन थे जबकि आम आदमी पार्टी में यह अनगढ़ और भदेस ढंग से हुआ, जो गली की छुटभैया सियासत जैसा था. फिर भी भाजपा और आप में यह एकरूपता इतनी फिक्र पैदा नहीं करती जितनी निराशा इस पर होती है कि भारत में नई गवर्नेंस और नई राजनीति की उम्मीदें इतनी जल्दी मुरझा रही हैं और दोनों के कारण एक जैसे हैं. नरेंद्र मोदी बीजेपी में प्रभुत्वपूर्ण राजनीति लेकर उभरे थे इसलिए वे सरकार में अपनी ही पार्टी के अनुभवों का पर्याप्त समावेश नहीं कर पाए जो गवर्नेंस में दूरगामी बदलावों के लिए एक तरह से जरूरी था, नतीजतन उनकी ताकतवर सरकार, वजनदार और प्रभावी नहीं हो सकी. दूसरी तरफ अरविंद केजरीवाल ने सत्ता में पहुंचते ही समावेशी राजनीति की पूंजी गंवा दी, जो उन्हें औरों से अलग करती थी.
आम आदमी पार्टी का विघटन, किसी पारंपरिक राजनीतिक दल में फूट से ज्यादा दूरगामी असर वाली घटना है. यह पार्टी उस ईंट गारे से बनती नहीं दिखी थी जिससे अन्य राजनैतिक दल बने हैं. परिवार, व्यक्ति, पहचान या विचार पर आस्थाएं भारत की पारंपरिक दलीय राजनीति की बुनियाद हैं, जो भले ही पार्टियों को दकियानूसी बनाए रखती हों लेकिन इनके सहारे एकजुटता बनी रहती है. केजरीवाल के पास ऐसी कोई पहचान नहीं है. उनकी 49 दिन की बेहद घटिया गवर्नेंस को इसलिए भुलाया गया क्योंकि आम आदमी पार्टी सहभागिता, पारदर्शिता और जमीन से जुड़ी एक नई राजनीति गढ़ रही थी, जिसे बहुत-से लोग आजमाना चाहते थे. 
'आप' का प्रहसन देखने के बाद यह कहना मुश्किल है कि इसके अगुआ नेताओं में महत्वाकांक्षाएं नहीं थीं या इस पार्टी में दूसरे दलों जैसी हाइकमान संस्कृति नहीं है. अलबत्ता जब आप आदर्श की चोटी पर चढ़कर चीख रहे हों तो आपको राजनीतिक असहमतियों को संभालने का आदर्शवादी तरीका भी ईजाद कर लेना चाहिए. केजरीवाल की पार्टी असहमति के एक छोटे झटके में ही चौराहे पर आ गई जबकि पारंपरिक दल इससे ज्यादा बड़े विवादों को कायदे से संभालते रहे हैं.
दिल्ली की जीत बताती है कि केजरीवाल ने गवर्नेंस की तैयारी भले ही की हो लेकिन एक आदर्श दलीय सियासत उनसे नहीं सधी जो बेहतर गवर्नेंस के लिए अनिवार्य है. दिल्ली के मुख्यमंत्री के तौर पर लोग केजरीवाल की सीमाएं जानते हैं, अलबत्ता नई राजनीति के आविष्कारक के तौर पर उनसे अपेक्षाओं की फेहरिस्त बहुत लंबी थी. केजरीवाल के पास पांच साल का वक्त है. वे दिल्ली को ठीक-ठाक गवर्नेंस दे सकते हैं लेकिन वे अच्छी राजनीति देने का मौका चूक गए हैं. राजनीतिक पैमाने पर आम आदमी पार्टी  अब सपा, बीजेडी, तृणमूल, डीएमके जैसी ही हो गई है जो एक राज्य तक सीमित हैं. इस नए प्रयोग के राष्ट्रीय विस्तार की संभावनाओं पर संदेह करना जायज है.
केजरीवाल के समर्थक, जैसे आज योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण को पार्टी के लिए गैर जरूरी और बोझ साबित कर रहे हैं, ठीक इसी तरह नरेंद्र मोदी के समर्थक उस वक्त पार्टी की पुरानी पीढ़ी को नाकारा बता रहे थे जब बीजेपी की राष्ट्रीय राजनीति में मोदी युग की शुरुआत हो रही थी. नौ माह में मोदी की लोकप्रियता में जबर्दस्त गिरावट (इंडिया टुडे विशेष जनमत सर्वेक्षण) देखते हुए यह महसूस करना मुश्किल नहीं है कि गवर्नेंस में मोदी की विफलताएं भी शायद उनके राजनीति के मॉडल से निकली हैं जो हाइकमान संस्कृति और पार्टी में असहमति रखने वालों को वानप्रस्थ देने के मामले में कांग्रेस से ज्यादा तल्ख और दो टूक साबित हुआ.
प्रधानमंत्री के तौर पर मोदी के संकल्प और सदाशयता के बावजूद अगर एक साल के भीतर ही उनकी सरकार किसी आम सरकार जैसी ही दिखने लगी है तो इसकी दो वजहें हैं. एक-मोदी के नेतृत्व में बीजेपी ने गवर्नेंस के लिए कोई तैयारी नहीं की थी और दो-विशाल बहुमत के बावजूद एक प्रभावी सरकार आकार नहीं ले सकी. बीजेपी चुनाव से पहले अपनी सरकार का विजन डाक्यूमेंट तक नहीं बना सकी थी. घोषणा पत्र तो मतदान शुरू होने के बाद आया. चुनाव की ऊभ-चूभ में ये बातें आई गई हो गईं लेकिन सच यह है कि बीजेपी नई गवर्नेंस के दूरदर्शी मॉडल के बिना सत्ता में आ गई क्योंकि गवर्नेंस की तामीर गढऩे का काम ही नहीं हुआ और ऐसा करने वाले लोग हाशिए पर धकेल दिए गए थे. यही वजह है कि सरकार ने जब फैसले लिए तो वे चुनावी संकल्पों से अलग दिखे या पिछली सरकार को दोहराते नजर आए.
सत्ता में आने के करीब साल भर बाद भी मोदी अगर एक दमदार अनुभवी और प्रतिभाशाली सरकार नहीं गढ़ पा रहे हैं जो इस विशाल देश की गवर्नेंस का रसायन बदलने का भरोसा जगाती हो तो शायद इसकी वजह भी उनका राजनीतिक तौर तरीका है. मोदी केंद्र में गुजरात जैसी गवर्नेंस लाना चाहते थे पर दरअसल वे बीजेपी को चलाने का गुजराती मॉडल पार्टी की राष्ट्रीय राजनीति में ले आए, जो सबको साथ लेकर चलने में यकीन ही नहीं करता या औसत टीम से खेलने को बहादुरी मानता है. एनडीए की पिछली सरकार का पहला साल ही नहीं बल्कि पूरा कार्यकाल दूरदर्शी फैसलों से भरपूर था. विपरीत माहौल और गठजोड़ की सरकार में अटल बिहारी वाजपेयी इतना कुछ इसलिए कर सके क्योंकि उनके पास गवर्नेंस का स्पष्ट रोड मैप था और उन्हें सबको सहेजने, सबका सर्वश्रेष्ठ सामने लाने की कला आती थी.
राजनीति और गवर्नेंस गहराई से गुंथे होते हैं. मोदी और केजरीवाल इस अंतरसंबंध को कायदे से साध नहीं सके. अब दोनों ही तल्ख हकीकत की एक जैसी जमीन पर खड़े हैं. अपेक्षाओं का ज्वार नीचे आया है. नेताओं को महामानव और मसीहा बनाने की कोशिशों पर विराम लगा है. मोदी और केजरीवाल के पास उद्घाटन के साथ ही कड़वी नसीहतों का अभूतपूर्व खजाना जुट गया है. सरकारों की शुरुआत बेहद कीमती होती है क्योंकि कर दिखाने के लिए ज्यादा समय नहीं होता. मोदी और केजरीवाल ने गवर्नेंस और सियासत की शानदार शुरुआत का मौका गंवा दिया है, फिर भी, जब जागे तब सवेरा.




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