रेलवे को बदलने
पर यू टर्न मोदी सरकार के संकल्प में कमजोरी का पहला ऐलान था. इससे एक विशाल आबादी
की बड़ी उम्मीदें मुरझा गईं जिसके पास परिवहन के लिए रेलवे के अलावा कोई विकल्प
नहीं है.
वह पिछले साल नवंबर का आखिरी हफ्ता था जब प्रधानमंत्री
गुवाहाटी व मेंदीपाथर (मेघालय) के बीच ट्रेन को हरी झंडी दिखाते हुए कह रहे थे, “रेलवे की सुविधाएं 100 साल पुरानी
दिखती हैं. रेलवे स्टेशनों का निजीकरण कीजिए. उन्हें आधुनिक बनाइए. स्टेशन
एयरपोर्ट से अच्छे होने चाहिए. रेलवे को अपनी जमीन पर लग्जरी होटल बनाने के लिए निजी क्षेत्र
को आमंत्रित करना चाहिए.” रेलवे को समझने
वाले मानेंगे कि यह बड़ी बात थी. भारत का कोई प्रधानमंत्री पहली बार रेलवे के
निजीकरण की चर्चा का साहस दिखा रहा था. लेकिन ठीक एक माह के भीतर सब कुछ बदल गया.
प्रधानमंत्री ने वाराणसी के डीजल इंजन कारखाने पहुंचने के बाद कहा, “रेलवे के निजीकरण को लेकर अफवाहें फैलाई जा रही
हैं, न मैंने कभी ऐसा
सोचा है और न कभी करूंगा.” रेलवे को बदलने
पर यू टर्न न केवल कठोर सुधारों को लेकर मोदी सरकार के संकल्प में कमजोरी का पहला
ऐलान था, बल्कि इससे एक
विशाल आबादी की उम्मीदें भी मुरझा गईं जिसके पास परिवहन के लिए रेलवे के अलावा कोई
विकल्प नहीं है और जिसे बुलेट ट्रेन का सपना दिखाया गया था.
अंदाजा नहीं था
कि कि सत्ता में आते ही रेलवे में विदेशी निवेश का बिगुल बजाने वाली मोदी सरकार
कुछ ही महीनों में इतनी दब्बू हो जाएगी कि रेलवे के पुनर्गठन पर बात करने से भी
डरेगी. सरकार अब भले ही रेलवे को घिसटता हुआ बनाए रखने पर मुतमइन हो लेकिन हकीकत
यह है कि रेलवे में सुधार अपेक्षाकृत आसान है. रेलवे के पास सुधारों के कई ब्लू
प्रिंट मौजूद हैं. पिछले दो वर्ष में सात समितियां सुधारों की सिफारिश कर चुकी
हैं. बिबेक देबरॉय कमेटी तो मोदी सरकार ने ही बनाई थी, जिसे रेलवे में
सुधारों की महत्वाकांक्षी पहल माना गया था. लेकिन जब मार्च में इसकी अंतरिम
रिपोर्ट आई तब तक रेलवे को बदलने के उत्साह को अनजाना डर निगल चुका था, इसलिए कमेटी ने
अपनी अंतिम रिपोर्ट में एकमुश्त सुधारों की सिफारिश को नरम कर दिया है.
इस महाकाय परिवहन
कंपनी में सुधारों पर राजनैतिक सहमति बनाना मुश्किल नहीं है. भारतीय रेल में बदलाव
के तर्क किसी आम आदमी के भी गले उतर जाएंगे, जो रोज इसमें धक्के
खाता है. मसलन,
दुनिया में
कौन-सी परिवहन कंपनी 125 अस्पताल, 586 दवाखाने चलाती होगी? या विश्व की कौन
रेलवे डिग्री कॉलेज और स्कूल चला रही होगी? स्वाभाविक है कि
ट्रेन चलाना रेलवे का काम है, स्कूल-अस्पताल चलाना नहीं. ठीक इसी तरह दुनिया की कोई बस
सेवा या एयर सर्विस अपने लिए बसें और विमान नहीं बनाती होगी या सड़कें और हवाई
अड्डे नहीं चलाती होगी. इसलिए जब देबरॉय समिति ने रेलवे के बुनियादी ढांचे को अलग
कंपनी को सौंपने, कोच, इंजन व धुरा-पहिया बनाने वाली रेलवे की छह इकाइयों को
मिलाकर इंडियन रेलवे मैन्युफैक्चरिंग कंपनी बनाने और स्कूलों को केंद्रीय विद्यालय
को सौंपने की सिफारिश की तो सरकार को सांप सूंघ गया. देबरॉय समिति ने रेलवे के
पुनर्गठन के लिए ब्रिटेन, जर्मनी, स्वीडन, ऑस्ट्रेलिया के मॉडल सुझाए हैं, जिनका हवाला मोदी
के संबोधनों में मिलता है जब वे जापान व चीन की तर्ज पर रेलवे को आधुनिक बनाने की
बात करते थे.
रेलवे को लेकर
दूरदर्शिता भाषणों तक रह गई. इसका बड़ा प्रमाण डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर (डीएफसी) है, जो 2005 से लटका है. यह
प्रोजेक्ट रेलवे में माल परिवहन को तेज गति का नेटवर्क देने के लिए बना. इसके शुरू
होने से वर्तमान नेटवर्क यात्री ट्रेनों के लिए खाली हो सकता है. डीएफसी के 3,300 किमी के पश्चिम
(हरियाणा से महाराष्ट्र) और पूर्व (पंजाब से पश्चिम बंगाल) गलियारे स्वीकृत हो
चुके हैं. पूर्वी कॉरिडोर में पटरी बिछाने के लिए टाटा और एलऐंडटी के नेतृत्व में
दो संयुक्त उपक्रम भी बन चुके हैं. मोदी सरकार चाहती तो इन्हें सक्रिय करने के साथ
रेलवे को बुनियादी ढांचे और मैन्युफैक्चरिंग (मेक इन इंडिया) का झंडाबरदार बना
सकती थी.
रेलवे से
प्रधानमंत्री के भावनात्मक रिश्तों पर तमाम कविताई के बावजूद, पिछले एक साल में
सरकार ने रेलवे में सुधारों की लगभग सभी तैयारियों को फाइलों की नींद सुला दिया
है. रेलवे के पुनर्गठन की बात करना मना है और निजीकरण की चर्चा पर करंट लगता है.
देबरॉय कमेटी ने अंतरिम रिपोर्ट की सिफारिशों के विरोध को देखते हुए सुधारों से
पहले एक स्वतंत्र नियामक की सिफारिश की है, जिससे सरकार
कन्नी काटती रही है. भारतीय रेल फिलहाल सरकारी बीमा कंपनियों से मिले कर्ज पर चल
रही है और रेलवे से लेकर यात्रियों तक सब जगह यह एहसास गाढ़ा हो चला है कि रेलवे
में तेज सुधार दूर की कौड़ी हैं. ताजा हालात में रेलवे में विदेशी निवेश आने की उम्मीद
न के बराबर है. गैर-परिवहन गतिविधियों में विदेशी निवेश की इजाजत तो 2001 में ही मिल गई
थी मथुरा और मधेपुरा
में इंजन बनाने की परियोजनाएं सात साल से विदेशी निवेशकों के स्वागत में कालीन
बिछाए बैठी हैं.
भारतीय रेल का
हाल जानने के लिए, इस दहकती गर्मी में ट्रेनों में सफर करने के अलावा दूसरा
रास्ता यह भी है कि आप गूगल की मदद से मोदी के उन भाषणों को पढ़ें, जो चुनाव से लेकर
सत्ता में आने तक दिए गए थे. ये भाषण देश की सबसे बड़ी परिवहन प्रणाली में बदलाव की
उम्मीदों के शिखर पर चढ़ने और ढह जाने का दस्तावेजी सबूत हैं. इनमें खास तौर पर
पिछले साल 19 जनवरी को दिल्ली
के रामलीला मैदान में बीजेपी की राष्ट्रीय परिषद का वह भाषण सबसे महत्वपूर्ण है, जहां से रेलवे
में बदलाव की उम्मीद जगी थी. तब मोदी ने कहा था कि “हमारे पास विशाल रेलवे नेटवर्क है, लेकिन दुर्भाग्य से हमने इस पर ध्यान नहीं
दिया. अगर रेलवे आधुनिक हो तो हम विकास को नई गति दे सकते हैं.” यह पहली बार था जब कोई
सत्ता की तरफ बढ़ते एक राजनैतिक दल का सबसे बड़ा नेता रेलवे में सुधारों की बात कर
रहा था.
नई सरकार बनने के
एक साल बाद आज रेलवे में सुधारों की ज्यादातर उम्मीदें अगर बुझती महसूस हो रही हैं
तो हमें यह मानना पड़ेगा कि भारत की सबसे बड़ी परिवहन प्रणाली की बदहाली केवल पिछली
सरकारों की अक्षमता का ही नतीजा नहीं है. भारतीय रेलवे अब एक सक्षम सरकार के
असमंजस और डर का शिकार भी हो गई है.
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