नए और भव्य जनादेश संसदीय लोकतंत्र के बुनियादी रसायन बदलाव का संकेत देते लग रहे हैं
सोच के खोल आसानी से नहीं टूटते. उन्हें तोडऩे के लिए बदलावों का बहुत बड़ा होना जरूरी है. उत्तर प्रदेश का जनादेश भारतीय लोकतंत्र की पारंपरिक सोच के धुर्रे बिखेर रहा है.
याद कीजिए, पहले कब ऐसा हुआ था जब मणिपुरी, बुंदेली, मुंबईकर, ओडिय़ा, कोंकणी, पुरबिया, पर्वतीय, मैदानी सभी एक ही राजनैतिक दिशा में सोचने लगे हों.
इतिहास में उतरना बेकार है, क्योंकि आजादी के बाद किसी भी काल खंड में इस तरह का दौर नहीं मिलेगा जिसमें भारत की जटिल क्षेत्रीय पहचानें और राजनैतिक अस्मिताएं किसी एक नेता में इस कदर घनीभूत हो गई हों, जैसा कि नरेंद्र मोदी के साथ हुआ है. मोदी से जुड़ी उम्मीदों के अभूतपूर्व उछाह ने पंचायत से लेकर विधानसभाओं तक फैली वैविध्यपपूर्ण भारतीय राजनीति को गजब का एकरंगी कर दिया है.
जनता के यह नए आग्रह संसदीय लोकतंत्र के बुनियादी रसायन को तब्दील कर रहे है. भारी जनादेशों और अपेक्षाओं से भरे समाज की ताकत लेकर नरेंद्र मोदी, संसदीय लोकशाही के भीतर अध्यक्षीय लोकतंत्र गढ़ते नजर आने लगे हैं.
अध्यक्षीय लोकतंत्र की अपनी खूबियां हैं, संसदीय लोकतंत्र जैसी. 2014 के चुनाव के बाद से ही भारत में लोकतंत्र के इस स्वरूप की आमद के संकेत मिलने लगे थे जो ताजा चुनावों के बाद स्पष्ट हो चले हैं.
एक—अध्यक्षीय लोकतंत्र राजनैतिक दलों को अपने सर्वश्रेष्ठ प्रत्याशी को चुनाव मैदान में उतारने को बाध्य करता है. राष्ट्रव्यापी लोकप्रियता जिसकी पहली शर्त है.
चुनावी समर में नरेंद्र मोदी की सिलसिलेवार जीत न केवल भौगोलिक रूप से पर्याप्त विस्तृत है बल्कि जातीय पहचानों के व्यापक आयाम समेटती है. इन भव्य चुनावी विजयों के साथ उन्होंने यह तय कर दिया है कि विपक्ष को अब उनके जितना लोकप्रिय और अखिल भारतीय नेतृत्व सामने लाना होगा. इससे कम पर उन्हें चुनौती देना नामुमकिन है.
दो—अध्यक्षीय लोकतंत्र में पूरा देश सीधे राष्ट्रपति को चुनता है, जिसकी सरकार स्थिर होती है, कामकाज पूरे देश की नजर में होता है.
मोदी केंद्र में स्थायी सरकार का नेतृत्व कर रहे हैं और राज्यों में स्थायी सरकारों का गठन कर रहे हैं. सहयोगी दलों पर निर्भरता न के बराबर है. मोदी के नेतृत्व में सरकार के प्रचार तंत्र को गौर से देखिए, जो रह-रहकर पूरे देश को उनकी सरकार के कामों की याद दिलाता है. केंद्र सरकार के प्रचार अभियान इतने बड़े, व्यापक और राष्ट्रीय कभी नहीं रहे जैसे मोदी के नेतृत्व में दिखते हैं. मोदी जानते हैं कि पूरा देश उनके काम की हर पल समीक्षा कर रहा है, ठीक अमेरिकी राष्ट्रपति की तरह.
तीन—अध्यक्षीय लोकतंत्र में संसद सिर्फ कानून बनाती है. राष्ट्रपति कार्यपालिका यानी सरकार का मुखिया होता है जो संसद से बहुत बंधा नहीं होता. इसलिए अमेरिका में मंत्री बनने के लिए चुनाव जीतना जरूरी नहीं है. अमेरिकी राष्ट्रपति प्रोफेशनल्स को अपने साथ रखते हैं और सीधे फैसले करते हैं.
अचरज नहीं कि मोदी संसद से बहुत मुखातिब नहीं होते, वे जनता से सीधा संवाद करते हैं. पिछली सरकारों की तुलना में मोदी की मंत्रिपरिषद अधिकार संपन्न नहीं है. प्रधानमंत्री कार्यालय ही बड़े निर्णय करता है, जिसमें नौकरशाहों की प्रमुख भूमिका है जैसे कि नोटबंदी.
चार—अध्यक्षीय व्यवस्था में दलों की संख्या सीमित होती है और राष्ट्रपति पद के आम तौर पर दो ही प्रत्याशी होते हैं.
2014 के बाद राज्यों में क्षेत्रीय दलों की संख्या. घटती जा रही है. नरेंद्र मोदी केंद्र से लेकर राज्यों तक, दो दलों या दो गठबंधनों के बीच चुनावी संघर्ष का मॉडल स्थापित करने में लगे हैं, इसलिए वे राज्य के मुख्यमंत्री के स्तर तक जाकर प्रचार करते हैं. समझना मुश्किल नहीं है कि मोदी सरकार राज्यों और केंद्र के चुनाव एक साथ चाहती है.
अस्सी के दशक में कांग्रेस के क्षरण के साथ भारत का लोकतंत्र प्रखर बहुदलीय हो चला था. क्षेत्रीय दलों के उभार के साथ केंद्र कमजोर हुआ और राज्यों को अपने आप ही अधिक ताकत मिलने लगी. मोदी युग के प्रारंभ के साथ संघीय लोकतंत्र का यह मॉडल तब्दील हो रहा है. मोदी के राजनैतिक ढांचे में राज्यों को केंद्रीय नीतियों के क्रियान्वयक की भूमिका में रहना होगा. भाजपा में भी अब क्षेत्रीय नेतृत्व की ऊंची उड़ानों पर पाबंदी रहेगी.
प्रधानमंत्री मोदी यह समझ चुके हैं कि लोग राज्यों में बहुदलीय ढपली और परिवारों की सियासत से इस कदर ऊब चुके हैं कि उन्हें केंद्र में ताकतवर नेतृत्व और अध्यक्षीय लोकतंत्र जैसे तौर-तरीकों से फिलहाल दिक्कत नहीं है. मोदी की गवर्नेंस अब रह-रहकर संसदीय लोकतंत्र के पुराने मुहावरों से बगावत करेगी और लोग उनका समर्थन करेंगे.
विपक्ष को मोदी के नियमों के तहत चुनाव लडऩा होगा. 2019 का आम चुनाव अमेरिकी तर्ज पर होगा, भारतीय मॉडल पर नहीं.
न्यू इंडिया यही चाहता है!
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