शंख और लिखित परम तपस्वी ऋषि थे. दोनों सगे भाई. एक दिन लिखित, शंख के आश्रम पर पहुंचे. शंख कहीं गए हुए थे. भूखे लिखित, आश्रम के वृक्षों से फल तोड़कर खाने लगे. इतने में शंख आ गए. उन्होंने फल तोडऩे से पहले किसी की अनुमति ली थी लिखित ?
लिखित निरुत्तर थे.
शंख ने कहा, यह चोरी है. आपको राजा सुद्युम्न से दंड मांगने जाना होगा.
लिखित दरबार में पहुंचे और पूरा प्रकरण बताकर दंड देने की याचना की. राजा ने कहा, अपराध को मैं क्षमा करता हूं. लिखित ने कहा, नहीं, मुझे दंड भुगतना ही होगा.
ऋषि के आग्रह पर राजा ने उनके दोनों हाथ कटवा दिए, जो चोरी के अपराध की सजा थी.
हाथ गंवाकर लिखित पुनः शंख के पास पहुंचे. शंख ने उन्हें नदी में स्नान और तप करने के लिए कहा और (जैसा कि मिथकों में होता है) स्नान करते ही लिखित के हाथ वापस आ गए.
लिखित फिर शंख के पास आए और पूछा कि जब आप अपने तप से मुझे पवित्र कर सकते थे तो फिर दंड क्यों?
शंख ने कहा कि हम तपस्वी हैं, लोग हमें आदर्श मानते हैं इसलिए हमारा छोटा-सा अपराध भी क्षम्य नहीं है. रही बात दंड की तो वह मेरा अधिकार नहीं है इसलिए आपको राजा के पास भेजा.
महाभारत के शांति पर्व की यह कथा इसके बाद शंख और लिखित के बारे में कुछ नहीं कहती बल्कि यह बताती है कि न्याय के मानकों पर ऋषि को भी सजा देने वाला राजा सुद्युम्न सशरीर स्वर्ग चला गया.
यह कहानी व्यास ने युधिष्ठिर को सुनाई थी जो युद्ध के बाद न्यायधर्म के अंतर्गत यह सीख रहे थे किः
एकः जो समाज में जितना ऊंचा है, उसका अपराध उतना ही बड़ा होता है.
दोः अपराधी ऋषि को भी सजा देने वाला राजा पूज्य होता है.
गुरमीत सिंह पर अदालत के फैसले को गौर से पढऩा चाहिए. पूरे निर्णय में विस्मय से भरा क्षोभ गूंजता है. मानो कहना चाहता हो कि संत और बलात्कार! यह कैसे सहन हो सकता है? धर्म को जीवन मूल्य और न्याय मानने वाले समाज के लिए यह बर्दाश्त करना असंभव है कि उसके अनन्य विश्वास का कर्णधार कोई संत यौनाचारी भी हो सकता है.
इंसाफ करना सबसे कठिन तब होता है जब समाज के विश्वास के शिखर पर बैठा कोई व्यक्ति कठघरे में होता है. आसान नहीं रहा होगा एक दंभी-लंपट संत पर फैसला करना जो लाखों भोले अनुयायियों और राजनैतिक रसूख की ताकत से डकारता हुआ न्याय को मरोडऩा चाहता था. फैसले के बाद हिंसा की आशंका को जानते हुए भी, न्यायाधीश गुरमीत को सजा इसलिए दे पाए क्योंकि वे उस बेचैनी को सुन पा रहे थे जो हमें एक धार्मिक समाज के रूप में शर्मिंदा कर रही थी.
क्या भारत की अदालतें लंपट साधुओं के प्रति अतिरिक्त कठोर हो रही हैं? लोकप्रियता के शिखर पर बैठे लोगों के अपराध को लेकर अदालतें ज्यादा ही आक्रामक हैं? यदि हकीकत में ऐसा है तो हमें स्वयं पर गर्व करना चाहिए. यही तो वह बात है जिसकी वजह से हस्ती मिटती नहीं हमारी. कहीं न कहीं, कोई न कोई आगे आकर हमें उम्मीद का दीया पकड़ा जाता है.
यदि बलात्कारी बाबाओं या उच्च पदस्थ अपराधियों को लेकर अदालतें बेरहम हो रही हैं तो यह न्याय व्यवस्था में एक गुणात्मक बदलाव है जिसे लाने के लिए हमें सड़क पर मोमबत्तियां नहीं जलानी पड़ीं.
अदालतों की सक्रियता पर चिंतित होने की बजाए यह जानना बेहतर होगा कि 21वीं सदी में चर्च की सबसे बड़ी उलझन दरअसल यौन कुंठित व बलात्कारी बिशप और पुजारी हैं. इसी साल जून में पोप फ्रांसिस के वित्तीय सलाहकार और वेटिकन के एक सर्वोच्च कार्डिंनल जॉर्ज पेल को मेलबर्न की अदालत ने यौन अपराधों (जब वे ऑस्ट्रेलिया के आर्कबिशप थे) में सजा सुनाई है. कैथोलिक चर्च में यौन और बाल शोषण के मामले लगातार सुर्खियों में है. इस तरह की करीब 2000 शिकायतों पर लंबे समय से बैठा वेटिकन लंबे अरसे से पश्चिमी प्रेस के निशाने पर है.
चर्च भारत की अदालतों से कुछ सीखना चाहेगा?
वैसे, भारत की अदालतें एक तरह का प्रायश्चित भी कर रही हैं. अपराधी और भ्रष्ट राजनेताओं पर उन्होंने इतनी सख्ती नहीं की थी. अपराधी संतों के मामले में यह गलती नहीं दोहराई जा रही है.
क्या राजनेता लंपट गुरुओं से दूरी बनाएंगे? क्या समाज सेवा दिखाकर अवैध साम्राज्य बनाने वाले बाबा-फकीरों को रोकने के लिए कानून बनेगा? क्या हिंदुत्व के पुरोधा भारतीय आध्यात्मिकता को कलंकित करने वालों से सहज भारतीयों की रक्षा करेंगे?
पता नहीं!
लेकिन गुरमीत हम सब आम लोगों को यह बड़ी नसीहत दे कर जेल गया है कि
अनुयायियों की भीड़ गुरु की पवित्रता की गारंटी नहीं है.
2 comments:
विवेकसम्मत और सामयिक टिप्पणी सर। निःसंदिग्ध रूप से न्याय निर्णय सराहनीय है।
बिल्कुल सत्य बात लिखी है आपने। इसको अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचना चाहिए ताकि लोग इसके मर्म को समझ सके।
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