एनडीए सरकार उसी घाट फिसल गई जिसको उसे सुधारना था. सरकार का आखिरी पूर्ण बजट पढ़ते हुए महसूस होता है कि सरकारों के तौर-तरीके आत्मा की तरह अजर-अमर हैं. यह आत्मा हर पांच वर्ष में राजनैतिक दलों के नाशवान शरीर बदलती है.
अगर बजट से सरकार की कमाई और खर्च को संसदीय मंजूरी निकाल दी जाए तो फिर इस सालाना जलसे में बचता क्या है? क्यों बजट इतने मूल्यवान हैं जबकि अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा, भाग्यवश, बजट यानी सरकार के नियंत्रण से बाहर है, जहां बजट की भूमिका परोक्ष ही होती है.
बजट इसलिए उत्सुकता जगाते हैं क्यों कि इनसे एक तो सरकार की नई सूझ का पता चलता है और दूसरा सरकार ने अपनी पिछली सूझ (फैसलों, नीतियों) पर अमल कितने दुरुस्त तरीके से किया है. बजट देखकर हम आश्वस्त हो सकते हैं कि हमसे लिया गया टैक्स कायदे से खर्च हो रहा है और बैंकों में हमारी जमा जो कर्ज में बदल कर सरकार को मिल रही है, उसका सही इस्तेमाल हो रहा है.
बजट हमेशा तात्कालिक और दूरगामी कसौटी पर कसे जाते हैं तात्कालिक कसौटी यह है कि जिंदगी जीने की लागत बढ़ेगी या कम होगी. महंगाई ओर ब्याज दरें इस कसौटी का हिस्सा हैं. दूरगामी कसौटी यह है कि जिंदगी कितनी सुविधाजनक होगी. सरकारी स्कीमों का क्रियान्वयन इस कसौटी की बुनियाद है
आगे और महंगाई है
महंगाई जिंदगी जीने की लागत बढ़ाती है. इस बजट के पीछे भी महंगाई थी जो जीएसटी से निकली थी और आगे भी महंगाई खड़ी है.
एक, खेती के बढ़े हुए समर्थन मूल्य किसानों को भले ही न मिलें लेकिन बाजार को
यह अहसास हो गया है कि खाद्य उत्पादों के मूल्य बढ़ेंगे. कई बाजारो में उन फसलों को लेकर तेजी माहौल बनने लगा है जिन की उपज आमतौर पर मांग से कम है. दालें इनमें प्रमुख हैं महंगाई उपभोक्ताओं के दरवाजे पर खड़ी है कीमतों तेजी रबी की फसल बाजार में आने के साथ प्रारंभ हो सकती है
दो, ढेर सारी चीजों पर सीमा शुल्क बढ़ा है, जीएसटी का असर कीमतों पर पहले से है खासतौर टैक्स के चलते सेवायें महंगी हुई हैं
तीन, राजकोषीय घाटा बढऩे से सरकार का कर्ज बढ़ेगा जो महंगाई की वजह होगा.
चार- कच्चे तेल की कीमतें बढ़ने लगी है, पेट्रोल-डीजल पर नया सेस लगाया गया है. जो ईंधन की महंगाई को असर करेगा.
इस बजट ने फिर यह साबित किया कि महंगाई बढ़ाए बिना, सरकार खुद को नहीं चला सकती. सरकार अपना खर्च कम करने को तैयार नहीं है इसलिए लोग महंगाई या टैक्स की मार के बदले ही कुछ पाने की उम्मीद कर सकते हैं.
ताकि सनद रहे: पहले बजट में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने सरकारी खर्च के पुनर्गठन का वादा किया था.
स्कीम-राज !
भारतीय गवर्नेंस अच्छे इरादों को खोखले वादों में बदलने वाली मशीन है. जिंदगी को सुविधाजनक बनाने के लिए सरकारी स्कीमों का क्रियान्वयन बेहतर होना जरूरी है. जेटली जब 'दुनिया की सबसे बड़ी स्वास्थ्य बीमा स्कीम का ऐलान कर रह थे, उनकी अपनी ही सरकार की दो असफल स्वास्थ्य बीमा स्कीमें उनके पीछे खड़ी थीं. सरकारों की स्कीमबाजी उबाऊ हो चली है. इनकी असफलता असंदिग्ध है. नई सरकारें नई स्कीमें लाती हैं तो लोग निराश होते हैं उम्मीद यह होती है कि सरकार पुरानी स्कीमों की डिलीवरी को चुस्त करेगी.
ताकि सनद रहे: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सबसे बड़ा लक्ष्य गवर्नेंस यानी कि सरकारी कार्यक्रमों का क्रियान्वयन सुधारना था. लेकिन बजट दर बजट उन्हें नई स्कीमें लानी पड़ी हैं ताकि पिछली स्कीमों के खराब क्रियान्वयन को भुलाया जा सके. स्कीमों की भीड़ और उनके बुरे हाल से अब इस सरकार की ही नहीं, अगली सरकारों की साख भी खतरे में रहेगी.
कर्ज जो रहेगा महंगा
सस्ता कर्ज नोटबंदी के सबसे बड़े मकसदों में एक था. हालांकि ऐसा हुआ नहीं. फंसे हुए कर्जों ने बैंकों के हाथ बांध दिये थे. नोटबंदी ने उन पर ब्याज का बोझ बढ़ा दिया. बैंकों की सरकारी मदद ( पूंजीकरण) पहुंचने तक महंगाई आ पहुंची. सात फरवरी को रिजर्व बैंक जब मौद्रिक नीति की समीक्षा करेगा, तो उसे महंगाई और राजकोषीय घाटे को लेकर खतरे की चेतावनियां भेजनी होंगी. ब्याज दरें कम होने की उम्मीद अब कम है. अचरज नहीं कि अगर ब्याज दरें बढ़ जाएं. स्टेट ने अपने डिपॉजिट पर ब्याज बढ़ाई है ताकि जमाकर्ता बैंकों से जुडे रहे हैं. इसका असर कर्ज की ब्याज दर पर होगा
मोदी सरकार के पहले दो बजट (जुलाई 2014 और फरवरी 2015 ) अभी कल की ही बात लगते हैं जब दहाई के अंकों में विकास दर, नई गवर्नेंस, बिग आइडिया, सब्सिडी में कटौती, खर्च में कमी, घाटे पर काबू, सस्ते कर्ज के आह्वान उम्मीदें जगाते थे लेकिन आखिरी बजट आते-आते महंगाई, कच्चे तेल की बढ़ती कीमत, स्कीमों की बारात और भारी टैक्स लौट आए हैं. और मंदी अभी तक गई नहीं है
हाल के दशकों में सबसे भव्य जनादेश वाली सरकार का आखिरी बजट यही बता रहा है कि चुनावों में सरकार तो बदली जा सकती है लेकिन 'सरकार’ को बदलना नामुमकिन है.
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